ये वही बिब्बी थी, फैजाबाद में जिसका घर दुश्मनों ने जलाकर राख कर डाला था और वह अपनी झिलमिल आंखों से सबकुछ को राख में बदलते हुए देखती रह गई थी। मां मुश्तरी बाई जिसे लेकर गया बिहार चली गई थीं और जो कई उस्तादों से संगीत की तालीम हासिल करने के बाद अख्तरी बाई फैजाबादी बनकर हिन्दुस्तानी संगीत के आसमान पर ऊदी-सी घटा बन कर छा गईं थी। ये वही अख्तरी बाई थीं जिनकी गजल-
‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे
वरना कहीं तकदीर तमाशा न बना दे।
ऐ देखने वालों मुझे हंस हंस के न देखो
तुमको भी मोहब्बत कहीं मुझसा न बना दे। ‘-
इसी को सुनकर पण्डित जसराज को गायक बनने की प्रेरणा मिली थी।
ये वही अख्तरी थी जिसने अपनी गरदन से अख्तरी बाई का तौक उतारने के लिए काकोरी के नवाब, बैरिस्टर इश्तियाक अहमद से इल्तिजा की कि क्या वो उनको गङ्ढे से निकाल कर चबूतरे पर बैठा देंगे? इश्तियाक अहमद ने हांमी तो भरी लेकिन वह इतनी आसानी से भरी हुई नहीं थी। वह अख्तरी बाई की गरदन से ‘गानेवाली’ और ‘तवायफ’ का तौक उतार फेंकने के एवज में, ताजिन्दगी कभी गाना न गाने, की शर्त की मोटी और वजनदार जंजीरें पकड़े सामने आ खड़े हुए। ‘बाई’ ने ‘बेगम’ बनने की लालसा में सारी शर्तों के सामने सिर झुका दिया और जंजीरें पहनाने के लिए अपने आपको ‘मालिक’ के हवाले कर दिया। अख्तरी बाई बेगम अख्तर तो बन गईं लेकिन गले में उठ रहे संगीत के सुरों को जबरन गले में ही दबोचे रहने के लिए होने वाले संघर्ष से उनके गले में जैसे खरोंचे-सी पड़ने लगीं। फेफड़े सांस भरते, गुनगुनाहट गले की मांसपेशियों को टहोके-सी मारती रहती,सुर सीने में उठते तो लगता जैसे सीना फाड़कर बाहर आ निकलेंगे, रेडियो पर बजते अपने रिकार्ड सुनकर मन में एक हूक सी उठती लेकिन आखिर मौसीकी से तआल्लुकात तर्क कर लेने का फैसला तो उन्हीं का था।
सुरों को जबरदस्ती रोकने का ही नतीजा था कि बेगम अख्तर बीमार हो गईं। डाक्टरों ने राय दी कि रोग का एक ही इलाज है कि बेगम अख्तर फिर से गाना शुरू कर दें जिसके लिए इश्तियाक अहमद किसी सूरत राजी होने को तैयार नहीं थे। बाद में कुछ लोगों के बहुत समझाने पर इश्तियाक अहमद को अपनी ज्यादती का अहसास हुआ और उन्होंने अपनी बेगम को गाने की इजाजत दे दी। यह इजाजत सिर्फ रेडियो पर गाने के लिए थी और उसमें शर्त शामिल थी कि अनाउन्सर कोई महिला ही होगी और अगर कोई पुरूष अनाउन्सर होगा तो स्टूडियो और अनाउन्सर बूथ के बीच की शीशे की खिड़की पर पर्दा लगाना अनिवार्य होगा। यह शर्त बहुत दूर तक चल नहीं सकती थी क्योंकि गायन में उनके साथ संगत करने वाले सारे कलाकार तो पुरूष ही होते थे। कुछ भी हो,बेगम अख्तर को जैसे छूटती हुई सांसें मिल गईं थीं।
आकाशवाणी का वह दिन बहुत गुलजार हुआ करता था जिस दिन बेगम अख्तर साहिबा के गायन का सजीव प्रसारण होता था। उनका वह धीरे-धीरे चलना, उनका शाहाना अन्दाज और होठों पर खिली रहा करने वाली मुस्कान देखने वालों को मंत्रमुग्ध कर देती। गाते समय उनकी नाक की हीरे की लौंग अलग से ही दमकती जो उनकी पहचान-सी बन गई थी। आकाशवाणी लखनऊ में उन दिनों सजीव कार्यक्रम अक्सर प्रसारित होते थे। किसी दिन बदायूं के तराना गाने के लिए विख्यात उस्ताद निसार हुसैन खां आ रहे हैं, किसी दिन होठों ही होठों में गाने वाले नसीर अहमद खां का कार्यक्रम है और किसी दिन बेगम अख्तर साहिबा का गायन है। एक बार एक अनाउन्सर ने बेगम अख्तर साहिबा के गायन के कार्य्रकम की उद्धोषणा करते हुए बेगम के ग के नीचे रेफ लगा कर यानी ग के नीचे नुक्ता लगाकर उनका नाम बोल दिया। पुरमजाक बेगम साहिबा ने गायन समाप्त करने के बाद अनाउन्सर के पास जाकर कहा, ‘बेटा, मैं बहुत गमजदा हूं, मैं बेगम नहीं हूं।
जिस दिन बेगम साहिबा का प्रसारण होता वह अपना गायन समाप्त करने के बाद डयूटी-रूम में आकर बैठती थीं जहां डयूटी अफसर उन्हें उनका चेक देता था। बेगम साहिबा के लिए चेक महत्वपूर्ण नहीं होता था। वह इत्मीनान ने कैप्स्टेन सिगरेट की अपनी डिब्बी निकालतीं,बड़ी नफासत से सिगरेट सुलगातीं और सिगरेट के एक-एक कश का पूरा मजा लेतीं। डिब्बी और माचिस सामने मेज पर रखी रहती और जिसका जी चाहता उस डिब्बी से सिगरेट निकालकर पीता। इस बीच बेगम साहिबा डयूटी अफसर से डयूटी-रूम में मौजूद सभी लोगों के लिए चाय मंगवाने के लिए कहतीं। सबको चाय पिलाने के बाद वह वापस जातीं।
उस दिन आकाशवाणी के गेट पर चाय का उठल्लू इन्तजाम रखने वाले साहू के यहां से एक छोकरा एक छीके में दस-बारह गिलास चाय लेकर डयूटी-रूम में आया। लगभग पांच साल का वह छोकरा बेहद काला था। उसकी निक्कर का एक पांयचा लंबा और एक छोटा था। कमीज भी उसकी कई जगह से फटी हुई थी। साहू ने चाय का व्यवसाय तुरन्त ही शुरू किया था और उसके घर के सभी छोटे-बड़े उस काम में लगे हुए थे। उस छोकरे ने बहुत संभालकर चाय का छीका मेज के ऊपर रख दिया और जाने लगा। तभी बेगम साहिबा ने उससे पूछ लिया, ‘क्या नाम है तुम्हारा?’ छोकरा जवाब देने के बजाय शरमा कर मुस्करा दिया। बेगम अख्तर साहिबा ने उसका हाथ पकड़ा और अपनी ओर कुछ खींचते हुए कहा, ‘एक बार और मुस्कराओ।’ छोकरा हंस पड़ा। उसके काले रंग पर उजली हंसी चमक उठी। बेगम साहिबा ने अपने बैग में हाथ डाला और मुट्ठी में चवन्नी,अट्ठन्नी और एक रूपये के जितने सिक्के आ सकते थे,निकाले और छोकरे की हथेली खोलकर उसमें रख दिए। छोटी-सी हथेली की सामर्थ्य इतने सारे सिक्कों को संभाल पाने की नहीं थी। सारे सिक्के फर्श पर खनखनाते हुए गिरे और उसी के साथ बेगम अख्तर साहिबा की उन्मुक्त हंसी भी सुनाई दी। आज भी दोनों आवाजें कानों में ताजा हैं, आज भी नहीं कह सकता कि किसकी खनक ज्यादा थी।
नवनीत मिश्र सुपरिचित लेखक हैं, आकाशवाणी से सम्बद्ध रहे।सौज- अकार पत्रिका