कारंत कहते थे, ‘हम कला का प्रदर्शन करते हैं, कोठा नहीं चलाते, जहां कोई कभी भी चला आए!’

नीलेश द्विवेदी

रंग-साधना को बेहद पवित्र और ऊंचा दर्जा देने वाले बी.वी. कारंत के लिए अपनी कला के सामने बड़ी से बड़ी हस्ती भी मामूली थी

यह कहानी 1985 की है. तब रामकृष्ण हेगड़े कर्नाटक के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. और उनके अच्छे मित्र तथा देश के जाने-माने रंगकर्मी बी.वी. कारंत भोपाल (मध्य प्रदेश) स्थित भारत भवन के रंगमंडल के निदेशक. उन दिनों कारंत की अगुवाई में भारत भवन के कलाकारों का एक दल बेंगलुरु के दौरे पर गया था. नाटक खेलने के लिए. हेगड़े भी उनका नाटक देखने के लिए पहुंचे. लेकिन अपने मंत्रिमंडल की बैठक के कारण सभागार पहुंचने में उन्हें 10 मिनट की देर हो गई. हेगड़े को कारंत का स्वभाव पता था. इसलिए बिना किसी तामझाम के ही वे चलते नाटक के बीच चुपचाप जाकर दर्शकों में सबसे पीछे बैठ गए. कुछ देर बाद जब इंटरवल हुआ और सभागार की बत्तियां जलीं, तो कारंत की नजर हेगड़े पर पड़ गई. वे वहीं मंच से माइक हाथ में लेकर दर्शकों से बोले, ‘वो देखिए. आपके पीछे आपका मुख्यमंत्री बैठा है. लेट आता है, नाटक देखने.’ हेगड़े के लिए इतना काफी था, जैसे. इसके बाद अगले दिन नाटक शुरू होने का वक्त था, शाम सात बजे. लेकिन इसके एक घंटा पहले से ही सभागार में एक व्यक्ति अकेला दर्शकों की सबसे आगे वाली पंक्ति में बैठा नजर आ रहा था और वह रामकृष्ण हेगड़े थे.

कारंत के साथ बतौर अभिनेता करीब सात साल तक काम कर चुके मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय (एमपीएसडी) के वरिष्ठ रंगकर्मी आलोक चटर्जी ऐसी ही कुछ और कहानियां भी बताते हैं. साथ ही याद करते हैं, ‘बाबा (कारंत को उनके सहयोगी इसी नाम से बुलाते थे) कहा करते थे- हम कला का प्रदर्शन करते हैं. कोई कोठा नहीं चलाते, जहां कोई कभी भी घुस आए.’

आलोक के मुताबिक, ‘एक मामला 1981-82 का है, अर्जुन सिंह से जुड़ा, जिन्हें भारत भवन बनवाने का श्रेय जाता है. एक बार अशोक वाजपेयी (भारत भवन के पहले न्यासी सचिव) उन्हें रंगमंडल में लेकर आए. अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री थे, इसलिए उनके सुरक्षाकर्मी भी उनके साथ थे. यह देख बाबा ने उनसे अपनी दक्षिण भारतीय टोन में साफ कह दिया, ‘ठाकुरपंती दिखाते आप. ठाकुर हैं. ये बॉडीगार्ड ले के आते तो मेरा दर्शक डरता. कल से टिकट ले के आइए और बॉडीगार्ड ले के मत आइए.’ आलोक के मुताबिक, ‘एक और वाकया 1996-97 का है. एक शाम रंगमंडल में मेरी अगुवाई में ‘द फादर’ नाटक खेला जा रहा था. बाबा उसे देखने आए थे. सात बजे का टाइम होता था. मध्य प्रदेश के राज्यपाल मोहम्मद शफी कुरैशी उस रोज सात बजकर पांच मिनट पर भारत भवन पहुंचे. बाबा ने उन्हें दरवाजे के बाहर ही रुकवा दिया. उनका सम्मान इतना था कि राज्यपाल भी उल्टे पैर वापस लौट गए और अगले दिन टिकट लेकर तय वक्त पर आए.’

प्रेमिकाओं के पत्र पत्नी की ड्रेसिंग टेबल रख आते थे

कारंत बड़े साफ दिल इंसान थे. कितने? इसकी एक मिसाल कारंत की जीवनी, ‘हेयर आई कान्ट स्टे, देयर आई कान्ट गो’ (यहां मैं रह नहीं सकता, वहां जा नहीं सकता) में मिलती है. इसमें कारंत की पत्नी प्रेमा बताती हैं, ‘कारंत के कई प्रेम संबंध रहे. हर संबंध के बारे में इन्होंने मुझे खुद बताया. ये इतने भोले हैं कि अपनी प्रेमिकाओं के लिखे प्रेम पत्रों को मेरी ड्रेसिंग टेबल पर खुद छोड़कर चले जाते हैं. जैसे छुपाने के लिए इनके पास कुछ हो ही न.’

भरोसा सब पर, ख्याल सबका

आलोक बताते हैं, ‘बाबा सबका ख्याल रखते थे. जब वे एनएसडी (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) के डायरेक्टर थे, तो उन्होंने साक्षात्कार दिया. तब देश की आबादी करीब 100 करोड़ थी. उस साक्षात्कार में उन्होंने कहा था – देश की 100 करोड़ की आबादी में 20 सीटों वाला एनएसडी ऐसा लगता है, जैसे सरकार ने कुत्ते के सामने हड्‌डी का टुकड़ा फेंका हो. फिर वे लड़कों से बोले कि हड़ताल करो. सीट बढ़ाना है, सुविधाएं बेहतर करनी है, ऐसी मांग करो. संसद में जाकर प्रदर्शन करो. क्यों? क्योंकि वे हर किसी के भले का सोचते थे.’ अपनी बात आगे बढ़ाते हुए आलोक कहते हैं, ‘ऐसे ही एक आदमी था, उसके बारे में बाबा को यकीन था कि ये उनके ग्रुप में गलत आ गया है. इसका यह फील्ड नहीं है, लेकिन आदमी अच्छा है, ईमानदार है. इसलिए वापस भेज नहीं सकते. लिहाजा, उन्होंने उससे कह दिया कि आने-जाने वालों की उपस्थिति का रजिस्टर देखा करो. क्योंकि इससे बेहतर तुम कर नहीं पाओगे.’

एनएसडी के मौजूदा डायरेक्टर वामन केन्द्रे के मुताबिक, ‘बाबा सहज भाव से सब पर भरोसा कर लेते थे. ऐसे ही एक बार जब वे एनएसडी के डायरेक्टर थे, तो अकाउंट विभाग के एक कर्मचारी से बोले- जाओ, वो लाल किताब (हिसाब-किताब वाली) ले आओ. जब वह उस किताब को लेकर उनके पास पहुंचा तो उन्होंने उसके कोरे पन्नों पर दस्तखत करके उसे वापस थमा दी. कहने लगे – हिसाब-किताब पर दस्तखत कराने के लिए अब रोज-रोज इसे लाने की जरूरत नहीं.’

आखिर तक रही टीस – फिर बेकसूर मेरे हाथ बांधे

कारंत के जीवन पर वह शायद अकेला बदनुमा दाग था, जब मध्य प्रदेश पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया था. उन पर अपनी अभिनेत्री विभा मिश्रा के यौन उत्पीड़न का आरोप लगा था. विभा ने आग लगाकर खुदकुशी की कोशिश की थी. और उसे बचाने की कोशिश में कारंत इस मामले में उलझ गए. कारंत के दोस्त और जाने-माने फिल्म अभिनेता अमोल पालेकर कहते हैं, ‘हम सबको यकीन था कि कारंत ऐसा नहीं कर सकते. और बाद में जब मामले की जांच आगे बढ़ी तो हमारा यह यकीन सोलह आने सच साबित हुआ. विभा ने खुद उनके निर्दोष होने का बयान दिया और कारंत बरी कर दिए गए.’ लेकिन आलोक इससे आगे का वाकया बताते हैं, ‘कानूनन तो जरूर बाबा बरी हो गए, मगर उस हादसे की याद से बरी नहीं हो पाए. आखिरी वक्त में अक्सर उनकी यह टीस उभर आया करती थी. कोमा में जाने से कुछ दिन पहले अस्पताल के पलंग से उठ-उठकर वे बच्चों सी जिद करते थे- मुझे जाने दो, थिएटर करना है. तब डॉक्टर और नर्स उन्हें संभालने के लिए उनके हाथ बांध देते, तो कहने लगते- फिर बेकसूर मेरे हाथ बांधे, फिर बेकसूर मेरे हाथ बांधे.’

कारंत के नजदीकी लोग, वे चाहे अमोल पालेकर हों, आलोक चटर्जी या वामन केन्द्रे. सब मानते हैं कि बी.वी. कारंत सिर्फ थिएटर से बंधे थे और उसी से उनकी आजादी थी. इसलिए रंगमंच के लिए जो, जहां, जिस स्तर पर, जितना योगदान कर सके, करना चाहिए. यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

सौज- सत्याग्रह



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