रामवृक्ष बेनीपुरी, प्रेमचंद की श्रेणी के ही लेखक थे जिनकी रचनाओं में हमारे देश की आत्मा यानी गांवों का इतनी बहुलता से और इतना जीवंत वर्णन मिलता है.यह काफी अफसोस की बात है कि रामवृक्ष बेनीपुरी के जीते-जी और उनके बाद भी इन कहानियों का उस तरह मूल्यांकन नहीं हुआ. समकालीनों द्वारा उनके ऊपर न लिखे जाने की एक दुविधा यह भी रही होगी कि उनके ऊपर लिखना एक सक्रिय राजनेता पर भी लिखना था.
‘पूस की भोर थी. खलिहान में धान के बोझों का अम्बार लगा हुआ था. रखवाली के लिए बनी कुटिया के आगे धूनी जल रही थी. खेत में, खलिहान पर, चारों ओर हल्का कुहासा छाया हुआ था, जिसे छेदकर आने में सूरज की बाल-किरणों को कष्ट हो रहा था. काफी जाड़ा था; धीरे धीरे बहती ठंडी हवा सनककर कलेजे को हिला जाती.’
ऊपर लिखी पंक्तियां रामवृक्ष बेनीपुरी जी की एक कहानी की शुरूआत है. ये उनकी भाषा की सहजता, सुन्दरता और जीवंतता को बताती हैं. अचरज की बात है कि यह भाषा तब की है, जब छायावादी लेखक गोलमोल रचनाओं को उच्चतम साहित्य की श्रेणी में गिनते थे. गद्य की भाषा के रूप में जयशंकर प्रसाद और भारतेंदु हरिश्चंद्र की भाषा जटिल और संस्कृतनिष्ठ थी. उस काल में बेनीपुरी की भाषा सहज सधी और बेहद छोटे-छोटे वाक्यों से बनी सजीली भाषा थी. और इसीलिए लोग उन्हें ‘कलम का जादूगर’ कहते थे.
बेनीपुरी जी की रचनाओं में छोटे वाक्य, दृश्य को नजरों के आगे जीवंत करने की क्षमता तो प्रेमचंद जैसी ही है, वहीं सरसता और सहजता उनसे ज्यादा दिखती है. बेनीपुरी जी की तरह बिहार की पृष्ठभूमि से ही उपजे एक और लेखक शिवपूजन सहाय खुद भी प्रांजल भाषा को चलन में लाने वाले लेखक रहे हैं. वे बेनीपुरी जी के गद्य के लिए कहते थे – ‘बेनीपुरी का लिखा गद्य चपल खंजन की तरह फुदकता हुआ चलता है.’ हालांकि यह तारीफ कुछ अधूरी सी है क्योंकि यह सिर्फ शैली की बात करती है. ऐसा कहने पर भाषा की अन्तर्निहित शक्ति और उसकी विशेषताएं उस तरह उभरकर सामने नहीं आती. अगर हम बेनीपुरी जी के ही शब्दों में कहें तो उनकी भाषा में ‘गेहूं और गुलाब’ का समन्वय था. इसमें यथार्थ की कठोरता भी थी और उसका सौंदर्य भी.
बेनीपुरी जी के गद्य की सबसे खूबसूरत बात यह थी उसकी भाषा परिवेश, विधा और पात्र के अनुसार अपना चेहरा या आकार ले लेती थी
वह बहुमुखी प्रतिभा के लोगों का दौर था. भारतेंदु हरिश्चंद्र हों या फिर जयशंकर प्रसाद, सब अपनी-अपनी तरह से भाषा के लिए बहुत सारे स्तरों पर काम कर रहे थे. इस तरह एक भाषा अपना आकार ले रही थी. बहुमुखी प्रतिभा के लोगों के साथ एक यह दिक्कत हमेशा रहती है कि उन्हें याद कैसे किया जाए? उनकी किस छवि को प्राथमिकता दी जाए? इसकी एक वजह यह भी है कि हमें छवियों को पूजने की आदत है. चौखटे तोड़ती हुई आकृतियां हमें असमंजस और मुश्किल में डालती हैं. जब हम एक ख़ास दायरे और घेरे में किसी को बंद नहीं कर पाते तो फिर उसे स्मृतियों से परे करने लगते हैं. बेनीपुरी जी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. जो लोग उन्हें कलम का जादूगर कहा करते थे, उन्हें पीछे कर आगे निकलते बने, या फिर दाएं-बाएं हो लिए. यह दुखद ही था कि लोग उन्हें बतौर शैलीकार तो याद करते हैं, बतौर रचनाकार उस तरह नहीं. यह किसी साहित्यकार के कद को जबरन बौना किए जाने जैसा है. सिर्फ बेनीपुरी जी के लेखन के संदर्भ में ही नहीं बल्कि पूरे हिंदी साहित्य के लिए यह एक त्रासदी थी और इसे त्रासदी की तरह ही लिया जाना चाहिए.
बेनीपुरी जी के गद्य की सबसे खूबसूरत बात यह थी कि उसकी भाषा परिवेश, विधा और पात्र के अनुसार अपना चेहरा या आकार ले लेती थी. मसलन उनके नाटकों की भाषा उनके निबंध की भाषा नहीं है, निबंध की भाषा कहानियों की भाषा नहीं है, कहानियों और शब्द चित्र की भाषा में भी एक महीन-सा किन्तु साफ़ दिखता अंतर है. और चिठ्ठियों की भाषा उससे भी कहीं बहुत अलग, बहुत नई. किसी लेखक के लिए यह आसान नहीं होता. हम अपनी पूरी जिंदगी लगाकर एक भाषा सीखते हैं, और फिर अपने हिसाब से उसमें रचते हैं. उस भाषा में बहुत तोड़फोड़ और नयापन असंभव न भी हो तो बेहद मुश्किल जरूर होता है. इस मुश्किल को बेनीपुरी जी ने बड़ी सरलता से साधा था.
किसी भी लेखक के लिए इससे बड़ी बात और क्या होगी कि उसकी भाषा अपना रंग बदल सकने का कमाल रखती हो. रामवृक्ष बेनीपुरी अपनी इसी जादूगरी के बल पर ही कलम के जादूगर थे. उनकी शैली इतनी रोचक है कि उसकी छाप दिमाग से हटाए नहीं हटती. सिर्फ यह समझने के लिए कोई उनके ललित निबंध ‘गेहूं और गुलाब’, या ‘मशाल’ को पढ़ सकता है. ये तो निबंध थे, लेकिन जब हम उनकी ‘शब्दचित्र’ – अपने संस्मरण यानी रेखाचित्रों की किताब ‘माटी की मूरतें’ की रचनाओं को उन्होंने यही नाम दिया था – की रचनाओं को पढ़ते हैं तो यह कमाल हर वाक्य में दिखता है. यहां उन्होंने गांव की जमीन से उठाए गए कुछ अनगढ़ चरित्रों को न सिर्फ रंगत दी, बल्कि उनमें नए प्राण भी फूंक डाले. शायद इसीलिये इस विधा में लिखने के बाद उनका कहानीकार थम जाता है या कि लेखक की गति सुस्त होती दिखती है. हां राजनीतिकार बस अपनी गति से आगे बढ़ता जाता है.
रामवृक्ष बेनीपुरी जी राजनीति में थे लेकिन उनके साथ यह बड़ी महत्वपूर्ण बात रही कि उनके भीतर का राजनीतिक कहानीकार को राह नहीं बताता, हां कहानीकार हौले से राजनीतिकार को कुछ सलाह जरूर दे देता था
रामवृक्ष बेनीपुरी जी राजनीति में थे लेकिन उनके साथ यह बड़ी महत्वपूर्ण बात रही कि उनके भीतर का राजनीतिज्ञ कहानीकार को राह नहीं बताता, हां कहानीकार हौले से राजनीतिकार को कुछ सलाह जरूर दे देता था. राजनीति की गलियां जितनी संकरी होती हैं उसके उलट लेखन का आंगन उतना ही विस्तृत. यह भला था कि उन्हें सलाह के लिए कहीं और जाने की जरूरत नहीं थी. अपने सचिव के रूप में उनका लेखक मन ही पर्याप्त था. वे अपनी रचनाओं में कभी भी नेता के रूप में प्रकट नहीं होते. सूत्रधार की तरह अपना मंतव्य प्रकट करने को भी आगे नहीं आते थे . यह कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने दोनों किरदारों के बीच एक विभाजक रेखा का ख्याल रखा था.
बेनीपुरी जी की कहानियां भी अपनी तमाम संभावनाओं, व्यंग्य और कथ्य की गहनता लिए हुए होने के बावजूद उस तरह से प्रसिद्ध नहीं हो सकीं . ‘चिता के फूल’ नाम से उनका एक ही कहानी संग्रह उपलब्ध है, जिसमें उनकी कुल सात कहानियां हैं. इनमें स्वतंत्रता पूर्व का देश, उसकी त्रासदियों, अंदरूनी हालात, कशमकश और द्वेष, सब आकार लेते मिल जाते हैं . ये कहानियां वर्गीय खाइयों और उससे उपजी विषमताओं को खूब गहरे से दिखाती हैं. ‘चिता के फूल’ और ‘उस दिन झोपड़ी रोई’ इसी श्रृंखला की कहानियां हैं, जिसमें वर्ग विशेष के लिए स्वतंत्रता के मायने, उसकी परिणति और लड़ाइयां, सबके अर्थ बिलकुल अलग जान पड़ते हैं.
इन दोनों कहानियों में उन्होंने 1930 और 1940 के दशक के दौरान कांग्रेस और अमीरों और गरीबों के बीच की उस गहरी फांक को कहीं गहरे धंसकर रेखांकित किया है. कहने की बात नहीं कि तब उनका झुकाव कांग्रेस के लिए ही था, वे बाद में कहीं जाकर राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के मुरीद होते हैं. यह बहुत मुश्किल होता है कि हम जिसके प्रभाव में हों, उसकी खामियां भी हमें पता हों, और पता हों तो हम उन्हें सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर पाएं. पर बेनीपुरी जी के भीतर का लेखक किसी विचारधारा के प्रभाव में होने और वस्तुस्थिति की गंभीरता, दोनों को अलग-अलग करके देखता था. बतौर कथाकार और राजनेता, यह बात उन्हें बहुत खास बनाती थी.
‘चिता के फूल’ और ‘उस दिन झोपड़ी रोई’ बेनीपुरी जी की वे कहानियां हैं, जिनमें वर्ग विशेष के लिए स्वतंत्रता के मायने, उसकी परिणति और लड़ाइयां, सबके अर्थ बिलकुल अलग जान पड़ते हैं
यदि हम यहां ‘चिता के फूल’ कहानी को ही लें तो उसमें रैली देखने गए एक युवक का जेल में ठूंस दिया जाना, गोली लगने से उसके पांव का सड़ना और जेल में ही उसकी मृत्यु और उसे वहीं दफन कर दिया जाना एक बड़ा रूपक है. दरअसल यह कहानी स्वतंत्रता संग्राम में बेनाम ख़त्म होनेवाले अनगिनत गरीबों की कथा है. इस संग्रह की सातों कहानियां अगर गौर से पढ़ी जाएं तो किसी भी बड़े लेखक की सत्तर कहानियों से कहीं ज्यादा मायने रखती हैं. ये अनगिनत अनाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के मूक बलिदान का दस्तावेज हैं. खुद बेनीपुरी जी ने भी कहानी संग्रह की भूमिका में कहा है – ‘अपनी इन कहानियों में देश और समाज की विषम परिस्थितियों से उत्पन्न मृत्यु और संहार की विभीषिकाओं को ही मैंने कलात्मक रूप देने की चेष्टा की है. इनमें ढंकने की कोशिश नहीं की गई, बल्कि उभारने का ही प्रयास है… कि हम इन विभीषिकाओं को देखें समझें …कि हमें ऐसा दृश्य न देखना पड़े.’
यह काफी अफसोस की बात है कि रामवृक्ष बेनीपुरी के जीते-जी और उनके बाद भी इन कहानियों का उस तरह मूल्यांकन नहीं हुआ. समकालीनों द्वारा उनके ऊपर न लिखे जाने की एक दुविधा यह भी रही होगी कि उनके ऊपर लिखना एक सक्रिय राजनेता पर भी लिखना था. और ऐसे में साहित्यकार की तमाम सकारात्मकता पर राजनेता की नकारात्मकता हावी हुई होगी. लेकिन ऐसा होने के बावजूद आज हम उन्हें पढ़ें तो वे प्रेमचंद के बाद ऐसे दूसरे लेखक लगते हैं जिनकी रचनाओं में हमारे देश की आत्मा – हमारे गांवों का इतनी बहुलता से और जीवंत वर्णन मिलता है.
सौज- सत्याग्रह – लिंक नीचे दी गई है-
https://satyagrah.scroll.in/article/102191/rambriksh-benipuri-life-work-profile
मेरी भी कुछ ऐसी ही सोच है कि बेनीपुरी जी के लेखन को उचित सम्मान नहीं मिल पाया . कारण बहुत से हैं जो प्रकाश में लाए जाने चाहिए . उनकी रचनाओं का पाठ बार बार होना चाहिए .
मेरी भी कुछ ऐसी ही सोच है कि बेनीपुरी जी के लेखन को उचित सम्मान नहीं मिल पाया . कारण बहुत से हैं जो प्रकाश में लाए जाने चाहिए . उनकी रचनाओं का पाठ बार बार होना चाहिए .