हरिवंश कितने नैतिक हैं इसका अंदाजा आप इससे भी लगा सकते हैं कि वर्ष 2014 में वह राज्यसभा में मनोनीत होते हैं, लेकिन आने वाले तीन वर्षों तक प्रभात खबर से 60 लाख रुपये से अधिक की राशि लगातार ले रहे हैं, जिसका जिक्र वह अपने आयकर रिटर्न में करते हैं। कायदे से यह नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि वह लाभ का पद है। इसी लाभ के पद के कारण सोनिया गांधी ने लोकसभा से इस्तीफा दिया था और उन्हें फिर से चुनाव लड़ना पड़ा था।
पिछले तीन दिनों से राज्यसभा सांसद व प्रभात खबर अखबार के पूर्व प्रधान संपादक बहुत ही अलग कारण से चर्चा में हैं। वैसे, चर्चा में तो वह लगातार ही रहे हैं। पिछले दिनों भी वह चर्चा में रहे जब दोबारा राज्यसभा के उपसभापति बने, लेकिन इस बात की कहीं चर्चा नहीं हुई कि उपसभापति तो छोड़िए, राज्यसभा में उन्हें दोबारा मनोनीत किये जाने का ‘सुझाव’ प्रधानमंत्री मोदी का ही था। और उसी सुझाव का परिणाम था कि हरिवंश फिर से राज्यसभा के उपसभापति चुने गए। कहा जाता है कि प्रधानमंत्री की तरफ से यह स्पष्ट सुझाव था कि अगर हरिवंश नहीं होगें तो यह पद किसी और दल को दे दिया जाएगा।
खैर, यह राजनीति है जहां इस तरह की सौदेबाजी होती रहती है। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि पिछले तीन दिनों से हमारे हिन्दीभाषी ‘बौद्धिकों’ को लगने लगा है कि हरिवंश ने जो यश कमाए थे उसे गंवा दिया है।
स्वराज इंडिया के अध्यक्ष व हरिवंश के पुराने प्रशंसक योगेन्द्र यादव ने ट्वीट करके कहा: “पिछले 25 वर्ष से हरिवंश जी का प्रशंसक, मित्र और शुभचिंतक होने के नाते आज राज्यसभा में उनके पीठासीन होते वक्त हुए कांड के बारे में मेरी एक व्यक्तिगत अपील: सार्वजनिक जीवन में अपने समस्त पुण्य को धूल में मिटने से पहले आप उपसभापति के पद से इस्तीफा दे दीजिए।”
यह सिर्फ योगेन्द्र यादव की कहानी नहीं है, बल्कि सार्वजनिक जीवन में बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें हरिवंश के इस पतन पर गहरी निराशा हुई है।
सवाल उठता है कि क्या सचमुच वे सारे के सारे बुद्धिजीवी व सामाजिक कार्यकर्ता इतने भोले थे/हैं कि उन्हें संपादक हरिवंश की कमी नजर नहीं आयी? और तो और, जब उन्हें नीतीश कुमार ने राज्यसभा में मनोनीत किया तब भी इन समझदार लोगों को समझ में नहीं आया कि हरिवंश कितने शातिर खिलाड़ी रहे हैं?
चलिए मान लीजिए, कि तब भी बात समझ में नहीं आयी, लेकिन जब पहली बार उन्हें राज्यसभा में उपसभापति बनाया गया तब तो समझ में आ जाना चाहिए था। फिर भी समझ ने नहीं आया।
इसका जवाब यह नहीं है कि उन लोगों को यह बात इसलिए नहीं समझ में आयी क्योंकि उनसे सब कुछ छुपा था। इसमें सबसे अधिक मार्के की बात यह है कि आज भी छवि निर्माण का काम प्रायः वामपंथी व प्रगतिशील तबका ही करता है (और छवि निर्माण अनिवार्यतः सवर्णों का ही किया जाता है)। चूंकि उसने खुद ही किसी की छवि बनायी है, तो उसे खंडित करना बुरा लगता है।
छवि निर्माताओं द्वारा प्रभात खबर के संपादक हरिवंश को गरीब व आदिवासी हितैषी के रूप में पेश किया गया। प्रभात खबर ने थोड़ी बहुत वैसी खबरें छापी भी जो आदिवासियों के हित में थीं, लेकिन प्रभात खबर की पूरी पत्रकारिता को देख लीजिए तो आपको एक भी वैसी खबर नहीं मिलेगी जिसमें भूमि अधिग्रहण का पूरी तरह विरोध किया गया हो। हां, यदा-कदा एक-आध आदिवासियों की ज़मीन पर राज्य सरकार द्वारा किये गये कब्ज़े का विरोध जरूर दिख जाएगा।
प्रभात खबर की यह पोजीशन नैतिक पोजीशन नहीं थी। जल, जंगल व ज़मीन की सुरक्षा पर अखबार की कोई स्पष्ट नीति कभी नहीं थी। मोटे तौर पर हरिवंश के संपादन में निकलने वाले अखबार में कुछ खबर भले ही कुछ आदिवासियों से जुड़ी रहती हों, लेकिन यह आदिवासी समर्थक अखबार नहीं था। इस अखबार का चरित्र गहरे रूप में वहां के व्यवसायियों के हितों को लाभ पहुंचाने वाला था। फिर भी छवि निर्माण करने वाला वर्ग हरिवंश को ‘कलम का सिपाही’ साबित करने में लगा हुआ था।
लगभग पच्चीस वर्षों से अधिक समय तक हरिवंश प्रभात खबर के प्रधान संपादक रहे, लेकिन उस अखबार में काम करने वाले पत्रकारों की जो आर्थिक हैसियत है उसकी तुलना यदि हरिवंश की आर्थिक हैसियत से कर लें तो हरिवंश की नैतिकता का जाला साफ दिखायी देने लगता है। प्रभात खबर के आठ संस्करण हैं, लेकिन किसी भी संस्करण के स्थानीय संपादक की तनख्वाह 70 हजार रुपये भी नहीं है। अर्थात्, अगर किसी एक स्थानीय संपादक की तनख्वाह 70 हजार है तो उस हिसाब से अखबार उस पत्रकार पर सालाना साढ़े आठ लाख रुपये खर्च करता है जबकि हरिवंश वर्ष 2014 में उस अखबार से 60 लाख रुपये सालाना लेते थे। आखिर दो संपादकों के बीच तनख्वाह में इतना अंतर कैसे हो सकता था?
इसकी वजह यह थी कि संपादक हरिवंश तब भी लिबरल छवि निर्माताओं की आंखों के तारे थे! इसी तरह प्रभात खबर के पास 400 के करीब स्ट्रिंगर होंगे जिनकी तनख्वाह 1500 रुपये से लेकर 7000 रुपये के बीच है। उन सभी स्ट्रिंगरों को यह निर्देश देकर रखा गया है कि वे विज्ञापन लाएं और उसमें से कमीशन लें। झारखंड में इस अखबार की वैसी हैसियत है कि जब कोई स्ट्रिंगर किसी नेता से मिलना चाहता है, तो नेता कन्नी काटने लगता है कि वह विज्ञापन के लिए पैसे ही मांगने मिलना चाह रहा होगा!
जब तक हरिवंश प्रभात खबर के संपादक रहे, हर साल इंक्रीमेंट के समय बड़ा सा ज्ञान देते थे कि पूरी दुनिया में अखबार सिमट रहा है। कुछ अखबारों का नाम लेकर वे बताते थे कि देखिए, फलाना अखबार इतना बड़ा था लेकिन बंद हो गया। प्रभात खबर की यह हैसियत नहीं है कि लोगों की तनख्वाह बढ़ाए! सारे पत्रकार खुशी से नाच उठते थे कि भले ही तनख्वाह न बढ़े, कम से कम उनकी नौकरी तो बच गयी, जबकि हर साल हरिवंश के भत्ते बढ़ जाते थे!
सारा काम तब हो रहा था जब प्रभात खबर की टैगलाइन थी- ‘अखबार नहीं आंदोलन!’, जिसे खुद हरिवंश ने तैयार करवाया था। इसलिए जब लोग उनके नाम की डुगडुगी बजा रहे हैं तो यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि हरिवंश हमेशा से ही ऐसे ही थे।
अपने जीवन में तीस वर्षों से अधिक की पत्रकारिता में हरिवंश का एकमात्र सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने चारा घोटाले को उजागर किया, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चारा घोटाला में वह लालू यादव शामिल था जिससे बिहार ही नहीं बल्कि पूरा भारतीय सवर्ण चिढ़ा हुआ था। शायद यह भी कारण हो कि हरिवंश ने इसमें अतिरिक्त दिलचस्पी ली अन्यथा यह बिना किसी कारण के नहीं है।
उसके बाद एक भी खबर हरिवंश के अखबार ने झारखंड या बिहार के मुख्यमंत्री के खिलाफ नहीं लिखी या लिखवायी! क्या यह बिना कारण हुआ कि लालू यादव के खिलाफ खोले गये मोर्चे का इस्तेमाल नीतीश कुमार ने बखूबी किया? मतलब यह कि लालू यादव के खिलाफ प्रभात खबर नीतीश कुमार के साथ पार्टी बन गया?
पिछले दिनों उमेश राय ने फेसबुक पर हरिवंश से जुड़ी एक फेक न्यूज़ का जिक्र किया था। उस खबर को हरिवंश ने टाइम मैगज़ीन का हवाला देकर छाप दिया जिसमें कहा गया था कि नीतीश को मशहूर टाइम पत्रिका ने कवर पेज पर जगह दी है।
हरिवंश ने टाइम मैगजीन के नाम पर फेक स्टोरी को एंकर बनाकर सारे एडिशन में छपवा दिया जो इस अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में कहीं छपी ही नहीं थी। यही वह खबर थी जिसके जरिये हरिवंश ने अपने लिए राज्यसभा की सीट सुनिश्चित की थी। मतलब यह, कि जो खबर ही नहीं थी उसे खबर बनाकर अदभुत नैतिकता का परिचय दिया था हरिवंश ने!
हरिवंश राज्यसभा की सीट सुनिश्चित करने के लिए घूम-घूम कर बाबाओं के दो-दो पेज का इंटरव्यू करते रहे, जिसमें वैराग्य, संचय की प्रवृत्ति की आलोचना, पद-संपत्ति से दूरी आदि की बातें होती रही। इसके उलट, पिछली बार जब उन्होंने राज्यसभा के लिए नामांकन भरा था तो उनकी कुल घोषित संपत्ति तकरीबन 20 करोड़ थी। आखिर त्याग-वैराग्य की बातें किसके लिए कर रहे थे वह?
हरिवंश कितने नैतिक हैं इसका अंदाजा आप इससे भी लगा सकते हैं कि वर्ष 2014 में वह राज्यसभा में मनोनीत होते हैं, लेकिन आने वाले तीन वर्षों तक प्रभात खबर से 60 लाख रुपये से अधिक की राशि लगातार ले रहे हैं, जिसका जिक्र वह अपने आयकर रिटर्न में करते हैं। कायदे से यह नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि वह लाभ का पद है। इसी लाभ के पद के कारण सोनिया गांधी ने लोकसभा से इस्तीफा दिया था और उन्हें फिर से चुनाव लड़ना पड़ा था।
इतना ही नहीं, ज़ी टीवी के मालिक सुभाष चंद्रा ने भी राज्यसभा के लिए नामांकन करने से पहले सभी पदों से इस्तीफा दे दिया था, लेकिन हरिवंश उस अखबार से सारी सुविधाएं लेते रहे।
हरिवंश ने अखबार से महिन्द्रा XUV एक रुपये में गिफ्ट में लिया, जिसकी कीमत खुले बाजार में 13.57 से 17.03 लाख के बीच कुछ भी हो सकती है। उन्होंने रेनॉ डस्टर भी एक रुपया ले ली जबकि उसकी कीमत भी 8.59 से 13.59 लाख रुपये के बीच है। इस सब के बावजूद छवि निर्माताओं को लगता है कि यह आदमी इतने वर्षों से कितनी ईमानदारी से पत्रकारिता करता आ रहा है!
आज हरिवंश ने एक बहुत ही ‘मार्मिक’ चिट्ठी राष्ट्रपति को लिखी है। इस पत्र में उन्होंने देश के बहुत से महान लोगों का जिक्र किया है कि किस तरह उन्होंने अपनी जिंदगी में उनसे प्रेरणा ली है या थोड़ा-बहुत कुछ सीखा भी है। दो महापुरुषों का नाम उन्होंने बड़ी चालाकी से छोड़ दिया है।
एक पंडित जवाहरलाल नेहरू का- यह नाम छोड़ने का बहुत ही स्वाभाविक कारण है- कहीं मोदीजी नाराज न हो जाएं। अंततः सारा खेल तो उन्हीं के इशारे पर हो रहा है और असली खिलाड़ी वही हैं। इसलिए हरिवंश जैसे महान नैतिकतावादी और ‘सादा जीवन उच्च विचार’ वालों के लिए इस पर बहुत सवाल क्या ही करें!
दूसरा नाम जिसे छोड़ दिया गया, ज्यादा चौंकाता है। जिस संसद और संसदीय परंपरा की दुहाई हरिवंश दे रहे हैं, उस परंपरा में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का जिक्र न किया जाए, तो यह कितनी बेहयाई होगी। क्या इस पर हरिवंश से सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए?
डॉक्टर अंबेडकर का जिक्र अपने पत्र में ठाकुर हरिवंश नारायण सिंह ने इसलिए नहीं किया है क्योंकि वह दलित थे। और हां, हरिवंश आरक्षण विरोधी भी रहे हैं। यह उनका जातिवादी व सांप्रदायिक चरित्र है, जो आज सबके सामने खुलकर आया है।
सौजः जनपथ- लिंक नीचे दी गई है-
https://junputh.com/column/raag-darbari-on-harivansh-narain-singh-from-editor-to-rajyasabha-speaker/