लगातार घातक बनते जा रहे वायरस को नोवल कोरोना वायरस नाम दिया गया है जो पशुओं में आम है। यह एक ‘जूनोटिक’ वायरस है। यानी यह जानवर से मनुष्य में फैलता है। वायरस पर एंटीबॉयोटिक दवाइयों का असर नहीं होता, इसलिए चिकित्सकों को नहीं पता कि इससे कैसे निपटा जाए। यह सच है कि कोरोनो वायरस बेहद घातक है। यह एक नया वायरस है, इसका अर्थ है कि लोगों में इस वायरस के लिए जन्मजात प्रतिरोधक क्षमता नहीं है। इसके लक्षण पता चलने से पहले ही कई बार यह फैल जाता है। कोई व्यक्ति यह अनुमान नहीं लगा सकता है कि उसके बगल में बैठा व्यक्ति संक्रमित है। भारत जैसे देश में एंटी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस भी गंभीर समस्या है, क्योंकि यहां ‘अंतिम उपाय’ यानी एंटीबायोटिक दवाइयों का बहुतायत में और गैर जरूरी इस्तेमाल होता है।
देश में हेल्थकेयर का खस्ताहाल ढांचा समस्या को और गंभीर बना रहा है। नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2018 के आंकड़ों के मुताबिक देश में केवल 23,582 सरकारी अस्पताल है जिनमें लगभग 7,10,761 बेड हैं, जिनमें ग्रामीण क्षेत्रों के 2,79,588 बेड वाले 19,810 अस्पताल शामिल हैं। वहीं, शहरी क्षेत्रों में 4,31,173 बेड वाले 3,772 अस्पताल हैं। इसके अलावा 2,900 ब्लड बैंक है। हालत यह है कि देश में 10 लाख की आबादी पर मुश्किल से तीन ब्लड बैंक हैं। आंकड़ों के मुताबिक, भारत की 70 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। ऐसे में अगर वायरस देश में फैलता है तो स्वास्थ्य सेवाएं बेहद कठिन होंगी। कोराना वायरस का कोई इलाज न होने और फैलने पर अनियंत्रित होने की आशंका को देखते हुए डॉक्टर रोकथाम पर जोर दे रहे हैं। स्थिति बेहद नाजुक दिखाई देती है। महामारी की रोकथाम, जांच और इलाज पर ग्लोबल स्वास्थ्य सुरक्षा सूचकांक 2019 में कोई भी पूरी तरह तैयार नहीं मिला। 140 मानदंडों के आधार पर तैयार रिपोर्ट में 100 अंकों में ग्लोबल हेल्थ सिक्योरिटी स्कोर औसतन 40.2 पर रहा। भारत 46.5 अंकों के साथ 57वें स्थान पर रहा। वहीं, दक्षिण-पूर्व एशिया में थाईलैंड और इंडोनेशिया की स्थिति काफी बेहतर है। थाईलैंड ने 73.2 अंक हासिल किए जबकि इंडोनेशिया को 56.6 अंक मिले। यह जमीनी सच्चाई है। हमें स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में लगातार निवेश, स्वास्थ्य सेवा तंत्र में सुधार को प्राथमिकता और विश्वास बहाली के लिए सामुदायिक भागीदारी पर जोर देना होगा। भारत ने इस दिशा में जो प्रदर्शन किया है, वह सकारात्मक रहा है। मई 2018 में स्वास्थ्य प्रणाली में सुधार के कारण निपाह वायरस की रोकथाम में सफलता मिली। इसी तरह से युगांडा में भी इबोला वायरस को रोकने में सफलता मिली। यह वायरस कांगो से फैला था। लेकिन बड़ी आबादी में फैलने से पहले इस पर अंकुश लगा लिया गया। ऐसी कुछ सफलताओं के बावजूद दुनिया पर स्वास्थ्य को बर्बाद करने, राष्ट्रीय सुरक्षा को अस्थिर करने और अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाली महामारी का खतरा मंडरा रहा है। अगर महामारी भारत में फैलती है तो अर्थव्यवस्था को सबसे बड़ा नुकसान होगा। महामारी से निपटने की बात आती है तो ग्लोबलाइज्ड वर्ल्ड की हकीकत यह है कि उसकी मजबूती ही सबसे कमजोर कड़ी है। इसलिए हमें सभी देशों के साथ मिलकर लड़ने की आवश्यकता है। हेल्थ, फाइनेंस और सिक्योरिटी क्षेत्र के विशेषज्ञों के एक स्वतंत्र समूह ग्लोबल प्रिपेयर्डनेस मॉनिटरिंग बोर्ड (जीपीएमबी) ने दुनिया के सभी नेताओं से स्वास्थ्य की इस आपात स्थित से निपटने के लिए उचित उपाय करने की अपील की है। इनमें मजबूत तंत्र के अलावा राष्ट्रीय स्तर के समन्वयक के साथ जिम्मेदारी तय करनी है। इसके लिए समूचे समाज को लेकर तैयारियां करनी होंगी।
भविष्य में स्वास्थ्य की आपात स्थिति से निपटना सभी का काम होगा। इस बात को समझना जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदाएं और वैश्विक प्रवास भविष्य की महामारी का आधार बनेगा। तैयारी के लिए सहयोग में वित्त और सुरक्षा से लेकर मानवीय राहत और संघर्ष समाधान तक सभी क्षेत्र अहम होंगे। इसी वजह से जी20 जैसे संगठनों जिनमें भारत अहम सदस्य है, को तैयारियों और आपसी सहयोग के लिए वचनबद्ध होना होगा। संक्रामक बीमारियों के लिए नए वैक्सीन के विकास की फंडिंग के लिए एक संगठन कोलीशन फॉर एपिडेमिक प्रिपेयर्डनेस इनीशिएटिव्स (सीईपीआइ) के संस्थापक सदस्यों में जर्मनी, जापान और नॉर्वे के साथ भारत भी है। हमें यह काम करना होगा ताकि भारत जीपीएमबी की रिपोर्ट में तय संकेतकों को हासिल कर सके। दुनिया की आबादी का बड़ा हिस्सा होने के कारण भारत के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है। सुरक्षा सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। इसमें स्वास्थ्य सुरक्षा भी शामिल है। इसलिए अगली महामारी का इंतजार करने के बजाए अभी कदम उठाना होगा, तभी इसके खतरे को कम किया जा सकेगा।
इन परिस्थितियों के बीच भी भारत का सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च जीडीपी के मुकाबले अभी भी एक फीसदी के आसपास है। दूसरे विकसशील देशों की बराबरी के लिए हमें काफी कुछ करना होगा, जहां औसत खर्च लगभग दो से ढाई फीसदी है। 1990 के दशक की शुरुआत से ही राजकोषीय प्रबंधन के तहत खर्च कटौती के चलते स्वास्थ्य के लिए पैसे की तंगी बनी हुई है। स्वास्थ्य क्षेत्र में फंड की कमी को दूर करने का एक तरीका स्वास्थ्य बीमा के विकास को प्रोत्साहन हो सकता है। महंगे हो रहे स्वास्थ्य खर्च के मद्देनजर सरकार को लोगों तक आसानी से सुविधा को पहुंचाने की जरूरत है। इसके लिए निम्न आय वर्ग से लेकर अच्छी स्वास्थ्य सेवा के लिए बीमा जरूरी है। स्वास्थ्य सेवाओं की लागत बढ़ना, इलाज के भारी खर्च से गरीबों की आर्थिक स्थिति और खराब होना, एकल परिवारों के कारण वरिष्ठ नागरिकों की देखरेख और नई बीमारियों और नए खतरे बड़ी चुनौतियां हैं। जबकि भारत में स्वास्थ्य पर कम खर्च के कारण रोकथाम और प्राथमिक स्वास्थ्य व सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्थाएं उपेक्षित हो गईं। ऐसे में स्वास्थ्य बीमा समस्याओं को कम कर सकता है। जबकि भारत की सिर्फ 15 फीसदी आबादी स्वास्थ्य बीमा के दायरे में है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के आंकड़ों के मुताबिक शहरी आबादी के 31 फीसदी लोग और ग्रामीण आबादी के 47 फीसदी लोग अपने उपचार के लिए कर्ज लेते हैं या फिर अपनी संपत्ति बेचते है। बीमारी होने पर 70 प्रतिशत भारतीय अपनी पूरी आय इलाज पर खर्च कर देते हैं। इस वजह से 3.2% भारतीय गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। बड़ी आबादी स्वास्थ्य बीमा योजना से अनजान है। वे नहीं जानते कि बीमा किस तरह से काम करता है। जिसकी वजह से उन्हें इलाज पर बचत खर्च करनी पड़ती है और यहां तक कि उन्हें संपत्ति बेचनी पड़ती है। लोगों को स्वास्थ्य बीमा सुरक्षा देने में निजी कंपनियां मदद कर सकती हैं। ‘आयुष्मान भारत’ योजना स्वास्थ्य सेवा के लिए एक परिवर्तनकारी पहल है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दिसंबर 2019 में 6.9 करोड़ से अधिक बीमा कार्ड जारी किए गए। हालांकि, यूनिवर्सल हेल्थकेयर कवरेज के लिए इस योजना में और विस्तार करने की जरूरत है। अभी सिर्फ 11 फीसदी लोगों को बीमा सुरक्षा प्राप्त है। बाकी लोगों को इलाज का खर्च अपनी जेब से करना होता है। स्वास्थ्य सेवाओं के लिए समान मूल्य व्यवस्था लागू करने की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार के हस्तक्षेप के साथ-साथ पारदर्शिता सुनिश्चित करनी होगी। जिला अस्पतालों को स्वास्थ्य केंद्रों और समुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों के साथ जोड़ना चाहिए। उन्हें यह भी सुनिश्चित करने की जरूरत है कि स्वास्थ्य केंद्र और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, समाज की आवश्यकताओं के प्रति उत्तरदायी हैं। ‘आयुष्मान भारत’ के लिए यह सफल, प्रभावी कार्यान्वयन की कुंजी है।
2020-21 के बजट में स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार के कई उपाय बहुत सकारात्मक हैं। इसकी मद में 69,000 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं। जिसमें प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के लिए 6,000 करोड़ रुपए दिए गए है। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल के तहत 112 अस्पतालों को इच्छुक जिलों में स्थापित किया जाएगा। डॉक्टरों की कमी पूरी करने के लिए सरकार मेडिकल कॉलेज को जिला अस्पताल के साथ जोड़ने की तैयारी में है। चिकित्सा उपकरणों के टैक्स से टियर 2 और टियर 3 शहरों में सरकारी अस्पतालों की फंडिंग की जाएगी। सभी जिलों में जन औषधि केंद्र स्थापित किए जाएंगे।
डिजिटल हेल्थकेयर इन्फ्रास्ट्रक्चर को बढ़ावा देने को लेकर कदम उठाने की जरूरत थी क्योंकि टेली-मेडिसिन से इलाज कहीं भी किया जा सकता है। मैं इस बात को महसूस करता हूं कि भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी के मुकाबले खर्च बढ़ा रहा है। सरकार की योजना है कि 2025 तक खर्च को बढ़ाकर कम से कम 2.5 प्रतिशत किया जाए।
(लेखक मेदांता के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर हैं) सौ आउटलुक