स्मिता पाटिल : एक ऐसी अभिनेत्री जिसे लेकर सभी ने जिंदगी सोची, व्यर्थ के दिवास्वप्न नहीं जिए

स्मिता पाटिल पर यह लेख दिग्गज साहित्यकार शरद जोशी ने 1986 में नवभारत टाइम्स के लिए लिखा था

 स्मिता अभिनय में अपनी उम्र से बड़ी हो जाती थी. वह केवल गहरे अहसास की मदद से अपनी अनुभव-सीमा को लांघ जाती थी. इस मामले में वह अपनी समकालीन भारतीय अभिनेत्रियों से बड़ी थी 

स्मिता समझदार अभिनेत्री थी. समझदारी एक ऐसा गुण है जो अभिनेत्रियों में प्राय: जरूरत-भर नहीं होता. और बंबइया व्यावसायिक अर्थों में स्मिता वैसी अभिनेत्री थी भी नहीं. उसे चाहने वालों की संख्या वही थी, जो अच्छे अभिनय को चाहने वालों की रही है. उसका सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि उसने सिनेमा के प्रति हमारे मन में नई आकांक्षाएं जाग्रत कर दी थीं. कल तक उसकी उपस्थिति हम मानकर चल रहे थे. आज उसकी अनुपस्थिति पर हमें विश्वास नहीं होता.

यथार्थ उसके लिए यथार्थ के अतिरिक्त कुछ नहीं था. उसे हम दर्शकों ने भी कभी अपनी कल्पनाओं से नहीं जोड़ा. उसे लेकर सभी ने जिंदगी सोची, व्यर्थ के दिवास्वप्न नहीं जिए. एक खरा और पवित्र सा रिश्ता उसने अपने दर्शकों से कायम किया. किसी कलाकार की यह सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जानी चाहिए. यह सब उसके व्यक्तित्व से निसृत था. मिलने पर स्मिता की ओर देख ऐसा लगता था, मानो आपकी शरारती छोटी बहन आपकी ओर देख रही हो. इसीलिए इतनी फिल्मों में काम करने के बावजूद वह पेशेवर अभिनेत्रियों की श्रेणी में नहीं गिनी जाती थी. मुंबई के भ्रष्ट फिल्मी व्यवसाय में, जहां अभिनेत्री के उभरे स्तन और उभरे कूल्हे ही उसका सबसे बड़ा गुण हों, स्मिता इस भ्रष्ट मानसिकता के विरुद्ध एक चुनौती थी. आप स्मिता पर गर्व कर सकते हैं.

बहुत वर्ष पहले अमृत पटेल, अमर कक्कड़ आदि मित्र एक फिल्म बनाने के चक्कर में थे. तब सस्ती, सार्थक फिल्म बनाने की एक हवा सी चली थी. मुझे याद है, स्पोर्ट्स क्लब के किसी आयोजन में, उस होने वाली फिल्म की, जिसका मैं होने वाला लेखक था, होने वाली अभिनेत्री के रूप में मेरा स्मिता से परिचय कराया गया था. एक दुबली-पतली, सांवली लंबी और बड़ी-बड़ी आंखों वाली लड़की. ‘निशांत’ से पहले की बात है. पर चार-छह वाक्यों के आदान-प्रदान से ही लग गया कि यदि भविष्य की कोई अभिनेत्री होगी तो यही होगी. ‘मंथन’ में मन ही मन मैंने उसकी प्रतिभा और मेहनत को प्रणाम कर लिया. जब भूमिका देखने हॉल में घुसा था, मुझे लगता था कि स्मिता ने अपनी कूवत से ज्यादा जिम्मेदारी उठा ली है. पर देखा कि मैं गलत था.

स्मिता अभिनय में अपनी उम्र से बड़ी हो जाती थी. वह केवल गहरे अहसास की मदद से अपनी अनुभव-सीमा को लांघ जाती थी. इस मामले में वह अपनी समकालीन भारतीय अभिनेत्रियों से बड़ी थी. वह शबाना जैसी चतुर नहीं थी. उसके लिए यह जरूरी भी नहीं था कि वह उन मोर्चों पर तनाव झेले जिनका जीवन और अभिनय से ताल्लुक नहीं. बंबई की फिल्मी गुटबंदी में शबाना से टक्कर लेने के लिए उसे जिन ताकतों को एकत्र करना होता, उसे करना उसके कलाकार व्यक्तित्व के अनुरूप न होता. अपने में रमी रहकर उसने शबाना को न पराजित किया और न उसे विजता होने का सुख दिया. आज एकाएक सारी बातें व्यर्थ हो गईं. कितना अच्छा किया न स्मिता ने कि अपने छोटे से जीवन को अधिक सार्थक बनाने पर ध्यान दिया. लोग लंबे जीवन को भी निरर्थक कर देते हैं.

जब पृथ्वी थियेटर पर मेरा नाटक अंधों का हाथी खेला जा रहा था, तब स्मिता उसे देखने एक बार, दो बार और तीसरी बार अपने अम्मा-पिता को खींचकर लाई थी. मुझसे कहने लगी, ‘मेरे फादर नेता हैं ना, उन्हें अपने पर यह व्यंग्य देखना चाहिए.’ यह उसके सेंस ऑफ ह्यूमर का प्यारा नमूना था, मेरे लिए थोड़ा आश्चर्य से भरा सम्मान भी, क्योंकि पसंद करने के बावजूद प्रशंसा कर देने की निश्छलता आधुनिक जीवन में गायब हो गई है. लोग अपनी प्रशंसा को दूसरे की रचना से अधिक मूल्यवान मानते हैं. पर हमारी स्मिता एक लोक कलाकार की तरह कलुषहीन थी. कई कारणों से हम उसे भुला नहीं सकेंगे.

सत्याग्रह ब्यूरो

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