सिंघू बॉर्डर पर डेरा डाले इन किसानों की सोच पर जो बात सबसे ज़्यादा हावी है, वह है उनके खेतों में मंडराने वाले कॉर्पोरेटों का डर। वे पारित किये गये इन तीन नये क़ानूनों में से उस एक क़ानून में अनुबंध खेती से सम्बन्धित प्रावधानों को ग्रामीण भारत पर कॉर्पोरेट के प्रभाव को मज़बूत करने के तौर पर देखते हैं।
बड़ी संख्या में विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों की तरह किसानों को भले ही महसूस करा दिया गया हो कि वे सरकार के सामने अहमियत नहीं रखते,लेकिन उन्हें धमिकयों और हिंसा से नहीं डराया जा सका है।किसान लोकतांत्रिक प्रतिरोध के इस अहम विचार को मज़बूती देने की कोशिश कर रहे हैं।
किसान सिंघू स्थित दिल्ली-हरियाणा बॉर्डर पर कंटीले तारों से बने बाड़ों और कंक्रीट के बैरिकेड्स के सामने से गुज़र रहे हैं,वहां जमे हुए पुलिस और अर्धसैनिक बलों की कतारों के बीच से वे आगे बढ़ते हैं। इसके बाद ट्रेक्टर ट्रालियों, बसों की कतारों और दूर-दूर तक फैले निजी कारों के काफ़िले धीरे-धीरे आगे बढ़ रही हैं। पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों से आ रहे वाहनों में किसान लदे हुए है,जिनमें महीनों तक की पर्याप्त खाद्य आपूर्ति लदी हुई है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं, उनसे बातें होती हैं। हम उनसे तीन कृषि बिलों को लेकर अपनी चिंता के बारे में बात करते हैं। आप सोचते होंगे कि वे इस बात पर ज़ोर देंगे कि केंद्र सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य को कभी भी ख़त्म नहीं करने की क़ानूनी गारंटी देनी चाहिए।
वे वास्तव में एमएसपी के बारे में बात करते हैं, इसे वे अपनी जीवन रेखा बताते है और इसके बिना वे किस तरह बर्बाद हो जायेंगे,इस बारे में भी बातें करते हैं।
लेकिन,सिंघू बॉर्डर पर डेरा डाले इन किसानों की सोच पर जो बात सबसे ज़्यादा हावी है, वह है उनके खेतों में मंडराने वाले कॉर्पोरेटों का डर। वे पारित किये गये इन तीन नये क़ानूनों में से उस एक क़ानून में अनुबंध खेती से सम्बन्धित प्रावधानों को ग्रामीण भारत पर कॉर्पोरेट के प्रभाव को मज़बूत करने के तौर पर देखते हैं। वे कहते हैं कि यह क़ानून न तो किसानों और न ही उपभोक्ताओं के लिए फ़ायदेमंद होगा। उनके विचार में एमएसपी को लेकर क़ानूनी गारंटी की यह कमी किसानों और मंडियों को कमज़ोर करने और ग्रामीण भारत के कॉर्पोरेट और निजी अधिग्रहण की संभावना को बढ़ाने वाली एक सरकारी चाल है। यही कारण है कि उन्हें इन तीनों कृषि क़ानूनों के निरस्त किये जाने से कम कुछ भी मंज़ूर नहीं है।
जब से दिल्ली पुलिस ने उन्हें आगे जाने से रोक दिया है,तबसे वे सिंघू सीमा चौकी पर छह दिनों से डेरा जमाये हुए हैं,लेकिन इससे किसानों का विरोध प्रदर्शन कम नहीं हुआ है।उनका कहना है कि वे सरकार के साथ इस बात पर “वार्ता” करने नहीं आये हैं कि इन क़ानूनों के किस पहलू को बने रहना चाहिए और किस पहलू को ख़त्म किया जाना चाहिए। वे तो चाहते हैं कि वे सभी क़ानून वापस ले लिये जायें। पूरी तरह,सारे के सारे। वे ग्रामीण भारत में कॉर्पोरेट का दखल बिल्कुल नहीं चाहते हैं।
किसान इस बात पर ज़ोर देते हैं कि उन्होंने अनुबंध खेती को आगे बढ़ाने वाले किसी भी सरकारी प्रयास का लगातार विरोध किया है। वे कहते हैं कि मौजूदा सरकार ने इन नये क़ानून को पारित करने से पहले उनकी सहमति तक नहीं ली थी, जो किसी निजी इकाई को मंडियों के बाहर कृषि उपज का व्यापार करने की अनुमति देता है,वह भी कर-मुक्त। वे इस बात को लेकर चिंतित हैं कि जब ये तीन क़ानून एक साथ अमल में लाये जायेंगे, तो ग्रामीण भारत तबाह हो जायेगा। सबसे पहले तो वे थोक बाजारों या मंडियों को कमज़ोर कर देंगे, फिर आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के तहत स्टॉकिंग सीमा ख़त्म हो जायेगी, निजी स्वामित्व वाली मंडियों के आने की संभावना होगी, लेकिन उनमें पारदर्शिता की कमी होगी। वे कृषि उपज की जमाखोरी करेंगे और उन्हें उसकी मनमानी क़ीमत तय कर देंगे,किसानों के वश में बहुत कम रह जायेगा,वे क्या उपजायें,यह भी उनके वश में नहीं होगा। इसके अलावा,एक विश्वसनीय मंडी के बिना किसानों के पास स्वतंत्र रूप से फ़सलों की क़ीमतों का आकलन करने का कोई तरीक़ा भी नहीं रह जायेगा।
किसान इस बात से भी स्तब्ध और आहत हैं कि आसानी से समझ में आने वाली उनकी इन मांगों के बावजूद प्रेस उन पर बार-बार “ख़ालिस्तानियों” का लेबल चस्पा कर रहा है या फिर उन्हें ऐसे लोगों के तौर पर दर्शाया जा रहा है, जो “विपक्षी साज़िशों” के शिकार हैं। इस बात ने उन प्रदर्शनकारियों को नाराज़ कर दिया है, जिसे वे ख़ुद को नकारात्मक तौर पर पेश किये जाने को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के “लोकतंत्र विरोधी” तरीक़ों के एक और सबूत के रूप में देखते हैं। इस नज़रिये से किसानों के इस विरोध ने लोकतंत्र समर्थक उस आंदोलन का रूप ले लिया है,जिसमें सभी नागरिकों से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दे उठाये जा रहे हैं।
हरियाणा स्थित हिसार के एक किसान नेता,सुरेश कौथ भी कहते हैं,”इस सरकार ने छात्र प्रदर्शनकारियों पर ‘तुकड़े-तुकड़े गिरोह’, लोकतांत्रिक कार्यकर्ताओं पर ‘राष्ट्र-विरोधी’ ताक़त, बुद्धिजीवियों को ‘शहरी नक्सली’, सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों पर ‘पाकिस्तानी’ होने का लेबल चस्पा कर दिया है और अब हमें ‘ख़ालिस्तानी’ कहा जा रहा है।” वह आगे कहते हैं, ”हमने खेती को अनुबंधित करने को लेकर कभी सहमति नहीं दी थी, फिर भी जब हम इसका विरोध करने के लिए दिल्ली आते हैं,तो रास्ते भर ज़्यादतियों का सामना करते हैं। क्या हम सरकार की नज़र में आतंकवादी हैं ? क्या हमें दिल्ली आने का अधिकार नहीं है ?”
हालांकि जानकार इन तीनों सरकारी क़ानूनों में मौजूद क्लॉज़ और सब-क्लॉज़ का हवाला देते हैं, लेकिन वे इस बात को भूल जाते हैं कि किसानों को सरकार की बातों पर एकदम भरोसा नहीं है। मसलन, वे किसी भी स्थिति में एमएसपी चाहते ही चाहते हैं,और इस समय इसके तहत 23 फसलें शामिल हैं,उस सूची में किसान और और फ़सलों को शामिल करवाना चाहते हैं। हालांकि, इस सिलसिले में उनका अनुभव यही रहा है कि जिस एमसएपी राशि का वादा किया गया है,वास्तव में वह कभी भुगतान हुई ही नहीं है। ऐसे में फिर उन्हें इस बात का भरोसा क्यों होना चाहिए कि कॉर्पोरेट सरकार से ज़्यादा भुगतान करेंगे ? पंजाब स्थित फतेहगढ़ के किसान अवतार सिंह कहते हैं, “ऐसा थोड़े ही है कि कॉरपोरेट हमें अपने पैकेट बंद खाद्य पदार्थों की लागत के अनुपात में भुगतान करते हैं। हम अभी भी अपना आलू 2.5 रुपये किलो बेचते हैं। लेकिन,जैसे ही आलू से चिप्स बनते हैं,तो एक आलू 10 में बिक जाता है।”
यही कारण है कि किसान चाहते हैं कि निजी गोदामों पर कर लगे,और वे अनुबंध खेती का विरोध कर रहे हैं,उन्हें इस बात का डर है कि व्यापारी आपूर्ति और क़ीमतों में हस्तक्षेप करने को लेकर स्वतंत्र होंगे। कौथ कहते हैं,“हमें मालूम है कि सरकार अपनी बात पर क़ायम नहीं रह पाती है, इसलिए हम आश्वासनों पर भरोसा नहीं करते। हम चाहते हैं कि तीनों क़ानून निरस्त हों और वह आश्वासन लिखित रूप में दिया जाये।”। वे कहते हैं,“इस सरकार की मौखिक गारंटी कुछ-कुछ उस नौकरी वाले अनुबंध की तरह होगी, जिस पर दस्तख़त तो करा लिया जाता है, लेकिन जिसमें तनख़्वाह का कोई ज़िक़्र तक नहीं होता।”
नाराज़ किसानों की मांगों में सभी किसानों के क़र्ज़ को रद्द करने, बिजली के बिलों (ख़ास तौर पर पंजाब के किसानों के लिए प्रासंगिक) को माफ़ करने,उस क़ानून को रद्द करने,जो फसल की पराली जलाने को लेकर उन पर अत्यधिक जुर्माना लगाता है,जारी विरोध को रोकने के सिलसिले में गिरफ़्तार किये गये किसान नेताओं को जल्द से जल्द रिहा करने की मांग भी शामिल है।”
उन्हें इस बात का डर है कि कंपनियों और उद्यमियों की अगुवाई में बड़ी-बड़ी और स्वचालित मशीनों से होने वाली खेतीबाड़ी से बेरोज़गारी पैदा होगी और आख़िरकार किसानों को अपनी ज़मीन पर नियंत्रण से हाथ धोना पड़ेगा। हरियाणा के किसान,राजेश दहिया कहते हैं, “ठीक है कि किसानों की इन कंपनियों के साथ अनुबंध करने की कोई मजबूरी तो नहीं है, लेकिन किसान,ख़ासकर छोटे किसान इन सौदों से पैदा होने वाले जटिलताओं को लेकर अवगत नहीं हैं। गांव की छोटी-छोटी दुकानें कारोबार से बाहर इसलिए हो जायेंगी,क्योंकि उपभोक्ताओं की बड़ी तादाद अनाज,सब्ज़ियों और अस्वास्थ्यकर प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों की खरीदारी के लिए मॉल का रुख़ कर लेती है।
जहां तक प्रदर्शनकारियों की बात है,तो वे इस बुनियादी अर्थशास्त्र को अच्छी तरह जानते-समझते हैं कि निजी कंपनियां अनाज और ताज़ा उत्पाद तभी ख़रीदेंगी,जब उन उत्पादों से उन्हें मुनाफ़ा होगा। यानी,औद्योगिकृत खेतों को व्यावसायिक खेती की ज़रूरत होगी। किसानों का कहना है कि शुरू में तो वे इस बात को देखकर हैरान थे कि गेहूं या चावल (यहां तक कि प्राकृतिक रूप से उपलब्ध पानी) जैसी साधारण वस्तुओं को भी कंपनियों ने स्वास्थ्य विज्ञान या सुपर-फूड्स के तौर पर ज़बरदस्त रूप से मार्केटिंग कर ली थी। वे अपना सर पकड़ लेते हैं,जब उन्हें “धूप में पके हुए गेहूं” या “ज़्यादा ऑक्सीजन” होने का दावा करते बोतलबंद पानी, या फिर स्वास्थ्य-बूस्टर के रूप में बेचे जा रहे पशु चारे के साथ मिश्रित बिस्कुट के विज्ञापन दिखते हैं,इन सभी उत्पादों से ज़बरदस्त कमाई की जाती है।
उन्हें इस बात का भी डर है कि इस तरह की बड़े पैमाने की किफ़ायतों को हासिल करने के लिए निजी कंपनियां तकनीक-गहन “प्रयोगात्मक” खेती के लिए गांवों में बड़े-बड़े भू-खंड खरीद लेंगे,जबकि जो लोग इन वस्तुओं को उपजाते हैं,उन्हें इन कंपनियों से ‘पार पाने’ को लेकर किये कोजाने कारोबार को लिहाज़ से इनके पास पैसे तक नहीं होंगे। जैसा कि कौथ कहते हैं,”किसान मज़दूर बन जायेंगे, छोटे किसान ख़त्म हो जायेंगे और ग्रामीण पारिस्थितिकी तंत्र बर्बाद हो जायेगा।”
इसलिए,जब सिंघू बॉर्डर पर जमे प्रदर्शनकारियों का मनोबल बढ़ाने के लिए जो भी वक्ता मंच पर बोलने आते हैं, उनमें से सबके सब इस बात को ज़रूर दोहराते हैं कि कंपनियां “हमारे खेतों और भूमि पर कब्ज़ा कर लेंगी”। उनके आशंकायें बढ़ रही हैं,क्योंकि उन्हें लगता है कि सरकार उनकी आशंकाओं को नज़रअंदाज़ कर रही हैं, मीडिया अनुचित तौर पर आलोचना कर रहा है, और शहरी उपभोक्ताओं उनकी उपेक्षा कर रहे हैं।
पंजाब के कई किसानों की समझ के मुताबिक़ अनुबंध पर उगायी जाने वाली फ़सलों को गुणवत्ता मानदंडों का कड़ाई से पालन करना चाहिए,नहीं तो सीधे-सीधे नामंज़ूर कर देना चाहिए। नये क़ानून के मुताबिक़,जिन किसानों को इन अस्वीकृतियों को लेकर असहमति होगी,उन्हें क़ानूनी अदालतों में नहीं,बल्कि सब-डिवीजनल मजिस्ट्रेट कार्यालय के ज़रिये मामले का निपटान करना होगा। पंजाब स्थित मोहाली के एक किसान,लखविंदर सिंह कहते हैं, ”एसडीएम इतना ताक़तवर नहीं होता है कि वह बड़ी कंपनियों के सामने टिक सके। या फिर एसडीएम को ख़रीदा भी जा सकता है। जैसे ही क़ानूनी अदालतों के पास आने के विकल्प को हटाये जाने की बात होती है, तो इस बात का डर पैदा हो जाता है कि किसानों को निजी व्यापारियों के झांसे में आना ही होगा।”
किसानों की यह आशंका निराधार नहीं है कि जो कॉर्पोरेट या निजी ख़रीदार पहले से ही मंडियों पर निर्भर हैं, वे उन्हें बेहतर आय दे सकते हैं, जबकि सरकारें ऐसा करने में पहले से ही नाकाम रही हैं। पंजाब स्थित अमृतसर के एक किसान,अर्शदीप कहते हैं, “सरकार कहती है कि अढ़तिया (थोक मंडी व्यापारी) बिचौलिये हैं,लेकिन हमारे लिए तो वे महज़ एक ख़रीदार हैं,बिचौलिया नहीं हैं।” हरियाणा स्थित हिसार के किसान,सुरिंदर लितानी कहते हैं, “अब तक तो निजी व्यापारी किसी मंडी में कृषि उत्पादों को सिर्फ़ ख़रीद और बेच सकते थे, लेकिन यह नया क़ानून उनके लिए इस सीमा को भी ख़त्म कर देता है। उन्हें इस सीमा से आज़ाद कर दिया गया है,किसानों को नहीं।“
कुछ प्रदर्शनकारी किसानों को इस अनुबंध खेती में उस ईस्ट इंडिया कंपनी की ज़ोर-ज़बरद्ती की एक अनुगूंज सुनायी देती है,जिसने भारतीय किसानों को विश्व बाज़ारों के लिए अफ़ीम और नील की खेती करने के लिए मजबूर किया था, उनकी निर्भरता कंपनी के ख़रीदारों पर हो गयी थी और मनुष्य और मिट्टी,दोनों की सेहत पर इसका विनाशकारी असर हुआ था। दहिया कहते हैं,“वे हमें फिर से ग़ुलाम बनाना चाहते हैं। अगर कॉर्पोरेट सेक्टर को खेती में प्रवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है,जबकि मंडियां उजाड़ दी जाती हैं, तो वे हमसे खेतों पर काम करवायेंगे,जब वे चाहेंगे,हमसे उपज का भंडारण करवा लेंगे और जब बाज़ार में इन उत्पादों की क़िल्लत होगी,वे इन्हें उच्ची क़ीमतों पर बेच देंगे।”
एमएसपी को लेकर किसान बिहार की मिसाल देते हुए कहते हैं कि वे उस रास्ते पर नहीं जाना चाहते हैं, जिस रास्ते पर इस समय बिहार के किसान हैं। हरियाणा स्थित भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष,सरदार गुरनाम सिंह चारुणी कहते हैं,’बिहार के किसान अपने धान को 1,000 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से बेच रहे हैं। व्यापारी और राजनीति से जुड़े लोग वहां से इसकी ख़रीदारी रहे हैं और दूसरे राज्यों में उसे ऊंची क़ीमतों पर बेच दे रहे हैं। अगर हम एमएसपी और मंडी,दोनों को तबाह होने देते हैं,तो हमारे यहां भी धान की क़ीमतें आधी रह जायेंगी।” चारुनी और दूसरे लोगों के ख़िलाफ़ चार दिन पहले उस समय “हत्या के प्रयास” का मामला दर्ज किया गया था, जब उन्होंने हरियाणा पुलिस द्वारा दिल्ली तक होने वाले मार्च को रोकने के लिए बैरिकेड के सामने हल चलाये थे। वे कहते हैं “जब हम खेतों पर निजी व्यापारियों के दखल का विरोध करते हैं और मंडी का समर्थन करते हैं,तो हम उपभोक्ताओं के लिए भी तो लड़ रहे हैं।क्या व्यापारियों ने हाल ही में उपभोक्ताओं को 60 रुपये में ख़रीदी गयी दाल को 120 रुपये में नहीं बेचा है ?”
किसानों के साथ सरकार की होने वाली वार्ता (मंगलवार दोपहर 3 बजे) के कामयाब होने की संभावना इसलिए नहीं है,क्योंकि किसानों का सरकार पर भरोसा ही नहीं है। सोमवार को मोदी ने कहा था कि ये “ऐतिहासिक” नये क़ानून किसानों के पक्ष में हैं। इसका मतलब तो यही है न कि इन वार्ताओं में कुछ भी ऐसी पेशकश नहीं की जायेगी,जो अहम हो।लेकिन,किसान इस बार महज़ आश्वासनों, समितियों या समझौता करने के मूड में तो कत्तई नहीं हैं।
चारुनी कहते हैं,”मोदी जो कुछ कहते हैं, हमें उन बातों पर भरोसा बिल्कुल नहीं है। यह सरकार तो कहती है कि अढ़तिये ‘बिचौलिये’ हैं, सब्ज़ी बेचने वाले ‘बिचौलिए’ हैं। मगर सचाई यह है कि हमारी सरकार अमेरिका से खाद्य पदार्थ तो आयात कर लेती है, अगर यह सस्ता है, लेकिन यह सरकार इस देश की उस कृषि अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित नहीं करती है, जो हमारे अपने लोगों की आजीविका में मददगार है।”
बड़ी संख्या में विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों की तरह किसानों को भले ही महसूस करा दिया गया हो कि वे सरकार के सामने अहमियत नहीं रखते,लेकिन उन्हें धमिकयों और हिंसा से नहीं डराया जा सका है।किसान लोकतांत्रिक प्रतिरोध के इस अहम विचार को मज़बूती देने की कोशिश कर रहे हैं। राशपाल सिंह कहते हैं, “वे हमें जाति, क्षेत्र और धर्म के आधार पर बांटने की कोशिश कर रहे हैं,लेकिन यह लड़ाई वर्ग बनाम वर्ग- कॉर्पोरेट वर्ग बनाम किसानों और बाकी तमाम लोगों की लड़ाई है।”
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