क्यों सरकार झूठ बोल रही है कि खेती-किसानी को बाज़ार के हवाले कर देने पर किसानों को फ़ायदा होगा?

अजय कुमार

बहुत पहले से कृषि मंडियों के बाहर प्राइवेट बाजार में कृषि उपज की खरीद बिक्री हो रही है लेकिन फिर भी अभी तक सही तरीके से प्राइवेट बाजार संचालित नहीं होता है और न ही इन बाजारों में सरकारी एमएसपी से अधिक क़ीमत पर अनाज खरीदा जाता है।

 पंजाब के किसान नेताओं ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि मोदी सरकार कहती है कि यह कानून हम किसान के भले के लिए लाए आए हैं। लेकिन मोदी सरकार से सवाल है कि किस किसान या किस किसान संगठन ने आप से यह भला करने की मांग की थी। मोदी सरकार कहती है कि नए किसान कानून से बिचौलिए खत्म हो जाएंगे और किसानों को फायदा पहुंचेगा। लेकिन मोदी सरकार से सवाल है कि ‘ हू इज बिचौलिया, डिफाइन बिचौलिया’ आढ़तियां बिचौलिया नहीं होते हैं। यह सर्विस प्रोवाइडर हैं। किसान ट्रॉली लाता है तो आढ़ती उसे खाली कराता है। सफाई कराता है। अनाज को बोरों में भरता है। खरीद एजेंसियों से रेट लगवा कर उसे ट्रांसफर करता है। और पैसे लेकर किसान को देता है। अगर आढ़ती 1500 रुपये क्विंटल खरीदें और 1925 रुपये क्विंटल का बिल बनावे फिर तो वह बिचौलिया हुआ। वह ऐसा नहीं करता है। केवल कमीशन लेता है। वह बिचौलिया नहीं है। वह सर्विस प्रोवाइडर है। सरकार अपनी खरीद बिक्री बिचौलियों के जरिए करती है। इसलिए उसे हर कोई बिचौलिया ही नजर आता है।

 मोटे तौर पर अगर देखा जाए तो किसानों का कहना है कि नए कानून की वजह से कृषि बाजार में कॉरपोरेट की मौजूदगी बढ़ेगी। उनकी उपज पहले से भी कम दाम पर खरीदी जाएगी। जबकि सरकार का कहना है कि नए कानून से बिचौलिए खत्म होंगे और किसानों को फायदा पहुंचेगा। चलिए सरकार और किसानों की इन दावों से समझने की कोशिश करते हैं कि किसकी बात में दम है और कौन बरगलाने की कोशिश कर रहा है?

 आजादी के समय अनाज को लेकर हिंदुस्तान में काफी किल्लत थी। कहा जाता है कि नेहरू अपने तीन मूर्ति हाउस के किचन गार्डन में आलू उपजाया करते थे। यह वह जमाना था जब जमींदारी प्रथा अपने पूरे उफान पर थी। जमींदारों की जमीनों पर खेती होती थी। अनाज के बिना लोग मरते थे। जमींदार सस्ते में कृषि उपज खरीदते थे और उसे महंगे में बेचा करते थे।

 इसी पृष्ठभूमि में भारतीय राज्य ने अनाज और खाद्य पदार्थों को नियंत्रित करने का फैसला किया। अगले दो दशकों में एग्रीकल्चर मार्केट प्रोड्यूस के जरिए रेगुलेट होने वाली एपीएमसी मंडिया बन गई। पहले मौजूद बड़ी-बड़ी थोक मंडिया ही एपीएमसी मंडियों में तब्दील हुईं। सरकार ने ऐसा इसलिए किया ताकि किसानों को वाजिब दाम मिल सके, सरकार को पता चल सके कि कितने अनाज का उत्पादन हो रहा है और सरकार उन लोगों तक भी अनाज पहुंचा सके जो अनाज की वजह से मर रहे हैं। आप कह सकते हैं कि राज्य ने समाजवादी विचारधारा को अपनाते हुए एक बेहतरीन योजना की बुनियाद रखी।

 किसानों को वाजिब दाम मिले इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी मिनिमम सपोर्ट प्राइस (एमएसपी) का विचार सामने आया। मिनिमम सपोर्ट प्राइस का कहीं से भी यह मतलब नहीं है कि किसानों को अपनी उपज का वह दाम मिल रहा है जो उन्हें मिलना चाहिए। बल्कि मिनिमम सपोर्ट प्राइस का बेसिक मतलब यह है कि किसानों को अगर खुले बाजार में सही कीमत ना मिले तो सरकार इस न्यूनतम कीमत पर किसानों की उपज खरीद लेगी। और एपीएमसी मंडियां वह जगह होंगी जहां पर सरकार पहले से ऐलान किए मिनिमम सपोर्ट प्राइस के जरिए अनाज खरीदेगी।

 सरकार द्वारा लाए गए तीनों कानूनों का सबसे गहरा सार यही होगा कि आने वाले कुछ सालों में एपीएमसी की सरकारी मंडिया खत्म हो जाएंगी। यानी वो व्यवस्था खत्म हो जाएगी जो अभी तक किसानों को अपनी कृषि उपज का एक ठीक-ठाक दाम दिलवा पाती थी।

लेकिन यहीं पर यह भी समझने की जरूरत है की एपीएमसी मंडिया काम कैसे करती हैं? मौजूदा समय में भारत में एपीएमसी मंडियों की क्या स्थिति है? आढ़ती या कमीशन एजेंट या किसान की नजर में सर्विस प्रोवाइडर या सरकार की नजर में बिचौलियों का क्या मतलब है? इनका क्या रोल है?

 मौजूदा समय में एपीएमसी की मंडियों तक धान का 29% और गेहूं का तकरीबन 44% हिस्सा ही बिकता है। जबकि धान का 49% और गेहूं का 36% हिस्सा मंडियों से बाहर यानी कि स्थानीय बाजार में या स्थानीय विक्रेताओं के जरिए खरीदा जाता है। यानी धान और गेहूं का बहुत बड़ा हिस्सा सरकारी मंडियों तक नहीं पहुंचता है। सरकारी मंडियों से अलग ही रह जाता है।

 किसान ऐसा जानबूझकर नहीं करते हैं बल्कि उन्हें अपनी उपज को मजबूरी में सरकारी मंडियों से अलग जगहों पर बेचना पड़ता है। इसके पीछे दो वजहें है। पहला सरकारी एपीएमसी की मंडियां औसतन 463 वर्ग किलोमीटर की दूरी पर केवल 6000 के आसपास हैं। जबकि शांताकुमार कमेटी के रिपोर्ट के अनुसार 80 किलोमीटर की दूरी पर पूरे हिंदुस्तान में तकरीबन 41 हजार एपीएमसी की मंडियां होनी चाहिए। सबसे अधिक चौंकाने वाली बात तो यह है कि साल 1976 में एपीएमसी की तकरीबन 4 हजार मंडियां थी। उसके बाद से लेकर साल 2019 तक केवल 2 हजार मंडियों का इजाफा हुआ है। यानी अगर सरकारी मंडियों के लिहाज से देखा जाए तो बहुत पहले से ही सरकार ने एपीएमसी की मंडियों से अपना पिंड छुड़ा लिया है।

दूसरा यह की मंडियों की बहुत अधिक दूरी होने की वजह से तकरीबन 2 हेक्टेयर से कम की जमीन रखने वाले 86 फ़ीसदी किसानों का बहुत बड़ा हिस्सा मंडियों में जाकर अपनी उपज नहीं बेचता है। उसे साफ दिखता है की जितनी कि उसकी कमाई नहीं होगी उतना तो उसका किराया लग जाएगा। इस वजह से छोटे किसान मंडियों से दूर स्थानीय बाजारों में या स्थानीय विक्रेताओं को अपनी उपज बेच देते हैं। अगर मंडियां बहुत दूर हैं तो मंडियों तक वही किसान जाते हैं जिनके पास बहुत बड़ी जोत है। जिनकी पैदावार बहुत अच्छा होती है। यानी वही किसान जिन्हें मंडियों तक अपने उपज ले जाने के बाद किराए देने में बहुत ज्यादा  बोझ का एहसास ना हो।

 इन दो कारणों के अंदर कानूनी वजह यह है कि तकरीबन 18 राज्यों ने इस कानून से पहले ही एपीएमसी की मंडियों के बाहर कृषि उपज की खरीद बिक्री की इजाजत दी हुई है। 19 राज्यों में किसानों से कोई भी सीधे उनकी उपज खरीद सकता है।

 कहने का मतलब यह है कि बहुत पहले से कृषि मंडियों के बाहर प्राइवेट बाजार में कृषि उपज की खरीद बिक्री हो रही है लेकिन फिर भी अभी तक सही तरीके से प्राइवेट बाजार फल फूल नहीं सका है। ना ही इन बाजारों में सरकारी एमएसपी से अधिक कीमत पर अनाज खरीदा जाता है। तो यह कैसे मान लिया जाए कि इस कानून के बाद किसानों को कम कीमत में अपनी उपज नहीं बेचनी पड़ेगी।

 टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के प्रोफेसर आर कुमार द हिंदू अखबार में सरकारी मंडियों से बाहर प्राइवेट मंडियों का विकास क्यों नहीं हो पाया से जुड़े सवालों का जवाब देते हुए लिखते हैं कि मंडिया बनाना आसान काम नहीं है। इसकी बुनियादी संरचना पर पैसा लगता है? यहां काम करने वाले लोगों को सैलरी देनी पड़ती है? अलग-अलग अनाजों की अलग-अलग गुणवत्ता के आधार पर स्टोरेज सिस्टम बनाना पड़ता है? इन सब की वजह से लागत बहुत अधिक बढ़ जाती है। इस लागत को पूरा कर पाना सबके बस की बात नहीं। प्राइवेट विक्रेताओं के तो बिल्कुल भी नहीं। और वैसे माहौल में तो बिल्कुल भी नहीं जहां पर छोटी जोत वाले किसानों की संख्या बहुत अधिक है। ऐसे में अगर कॉरपोरेट मंडियां बनती भी हैं तो इन सभी खर्चों को किसानों की उपज की कीमत कम करके ही वसूलेंगी। इसलिए इसका अंदाजा भी साफ दिखता है की कॉरपोरेट् से किसानों को अपनी उपज का कम कीमत मिले। 

 सरकारी मंडियां टैक्स वसूल करती हैं। इन्हीं टैक्स से मंडियों के बुनियादी संरचना से लेकर रखरखाव तक के काम के खर्चे को पूरा किया जाता है। पंजाब में तो एपीएमसी की समितियां रूरल डेवलपमेंट फी तक वसूलती हैं। पंजाब मंडी बोर्ड इन पैसों को ग्रामीण विकास पर खर्च करता है। सड़क बनाने से लेकर डिस्पेंसरी खोलने, मेडिकल मदद पहुंचाने, साफ सफाई रखने जैसे कई तरह के कामों में मदद करता है. इसलिए अगर मंडी सिस्टम खत्म होता है तो इस पर भी गंभीर असर पड़ेगा।

 अब आते हैं अढ़तिया, सर्विस प्रोवाइडर या बिचौलिए के सवाल पर। भारत में खेती किसानी करने के लिए किसान को बीज से लेकर खाद तक सिंचाई से लेकर मजदूरी तक सभी की व्यवस्था करनी होती है। इस पर पैसा खर्च होता है। छोटे किसानों से भरा हुआ भारतीय कृषक समाज तक बैंकों की बहुत कम पहुंच है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का अध्ययन कहता है कि अभी भी तकरीबन 60% छोटे किसानों की बैंक तक पहुंच नहीं है। तकरीबन 28% किसान साहूकारों, जमीदारों और अपने रिश्तेदारों से कर्ज लेते ही लेते हैं। यहीं पर आढ़तियों सिस्टम की एंट्री होती है। पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर सुखपाल सिंह 2014 के अपने अध्ययन में बताते हैं कि आढ़तिया और स्थानीय व्यापारी बिना किसी को संपत्ति को गिरवी रखे छोटे किसानों को आसानी से कर्जा दे देते हैं। लेकिन उनकी ब्याज की दरें भी अधिक होती हैं और वह किसानों को कई तरह के  शर्तों से बांध देते हैं। आढ़तियो और उनके सहायक किसानों को उनकी अपनी जगह से बीज खाद पशुचारा जैसे खेती किसानी से जुड़े लागत को लेने की शर्त रखते हैं। खेती किसानी से जुड़ा तकरीबन 70 फ़ीसदी इनपुट आढ़तियों  द्वारा उपलब्ध कराया जाता है।

 आढ़तियों के कर्ज देने के एग्रीमेंट में यह भी शर्त लिखी होती है कि किसान उनकी दुकानों से ही घर के सामान खरीदेंगे। सुखपाल सिंह का अध्ययन है कि तकरीबन 31 फ़ीसदी घर का सामान आढ़तियों के दुकान से आता है।

 इसके बाद अंत में जाकर किसान अपनी उपज आढ़ती को बेचता है और आढ़ती फसल की उपज से मिले पैसे से अपनी कर्ज और ब्याज का पैसा लेकर बाकी पैसा किसान को लौटा देता है।

 यहां पर दिख रहा होगा की आढ़ती समस्या है। लेकिन ऐसा नहीं है। आढ़ती और किसानों के बीच पैसे के लेनदेन का एक अच्छा सिस्टम फला फूला है। केवल अंतर इतना है कि इसे सरकार की मान्यता नहीं हासिल है। और परेशानी यह है कि सरकार के बैंक  किसानों तक सहज तरीके से उपलब्ध नहीं हो पाए हैं।

 अब कोई कह सकता है कि इसमें क्या बड़ी बात है सरकार के बैंक दूरदराज के इलाकों तक जाएं, किसानों से जुड़े, आढ़तिया सिस्टम अपने आप खत्म हो जाएगा। लेकिन नरेंद्र मोदी जैसे नेता इस बात को ना जानते हो ऐसा कैसे मान लिया जाए? मोदी जी को यह बात अच्छे तरीके से पता है। बार-बार किसानों को बैंक से कर्ज के ब्याज को कम करने वाली योजना का ऐलान करके उन्होंने यह काम किया भी है। लेकिन किसान और आढ़तियां  या सर्विस प्रोवाइडर या बिचौलिया या जो मर्जी सो कह लीजिए, उनकी असली परेशानी यह है कि उनकी उपज का कम कीमत पर खरीदारी की जा रही है। उन्हें एमएसपी नहीं मिल रही है। और सरकार है कि इसे देना नहीं चाहती है। एमएसपी और सरकार का रिश्ता ऐसा है कि तकरीबन 23 फसलों पर एमएसपी देने का फैसला किया जाता है लेकिन धान और गेहूं के अलावा बहुत कम फसलों को सरकार एमएसपी पर खरीदती है।

 शांता कुमार कमिटी की रिपोर्ट है कि धान और गेहूं में भी केवल 14 फ़ीसदी हिस्सा एमएसपी पर खरीदा जाता है। और जिन किसानों की एमएसपी तक पहुंच होती है उनकी उपज का भी केवल 26 से 27% हिस्सा ही एमएसपी पर बिक पाता है। और सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जाकर यह कह दिया है कि वह किसानों को लागत का डेढ़ गुना एमएसपी नहीं दे सकती है। कुल मिलाकर सरकार की मंशा यह है कि वह कृषि क्षेत्र को बाजार के हवाले करके भागना चाहती हैं। और हम सभी जानते हैं कि सूट बूट पहन कर हमारे सामने चमकदार कपड़ों में खड़ा बाजार हमें किस तरीके से लूटता है।

ये लेखक के निजि विचार हैं। सौज- न्यूजक्लिकः लिंक नीचे दी गई है-

https://hindi.newsclick.in/apmc-adhtiya-corportisation-of-agriculture

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