राकेश वेदा
नए कृषि कानून वापस होने की उम्मीद के साथ इप्टा और प्रलेस के कलाकारों और लेखकों ने वहां अपनी कला,गीत और कविताओं से जितना दिया उससे ज्यादा लिया।वहां से लिया लड़ने का हौसला,आंदोलन को उत्सव में बदलने का सलीका।दिल्ली की सीमाओं पर किसान इंसानियत की पाठशाला चला रहे हैं,संविधान का पुनर्पाठ कर रहे हैं,बिना राजनैतिक नारों के संघर्ष की नई इबारत लिख रहे हैं।लौटने पर एक लेखक मित्र ने पूछा”इस आंदोलन की परिणति क्या होगी?”मैं ने वही दोहरा दिया जो 1857 में ग़ालिब ने कहा था”आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक।
इप्टा, प्रलेस और केंद्रीय पंजाबी लेखक सभाकी राष्ट्रीय समितियों ने आह्वान किया था कि लेखक और कलाकार नया साल 1जनवरी 2021 को सिंघु बॉर्डर दिल्ली पर आंदोलनरत किसानों के साथ मनाएं।प्रलेस और केंद्रीय पंजाबी लेखक सभा के राष्ट्रीय महासचिव सुखदेव सिंह सिरसा,इप्टा पंजाब के अद्यक्ष और महासचिव साथी संजीवन और साथी इंद्रजीत सिंह रूपोवाली,इप्टा चंडीगढ़ के अद्यक्ष और महामंत्री साथी बलकार सिद्धू और साथी के एन एस सेखों के साथ तमाम कलाकार लेखक 31 दिसंबर 2020 को ही सिंघु बॉर्डर पहुंच चुके हैं।
कड़ाके की ठंड में अलाव के आस पास पूरी रात कार्यक्रम चले हैं।2021 के नए साल के दिन यह सभी साथी देश भर से आने वाले लेखकों और कलाकारों के स्वागत के लिए तैयार हैं।आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के राष्ट्रीय महासचिव,इप्टा की राष्ट्रीय समिति के सदस्य युवा साथी यहां आंदोलन के पहले दिन से डटे हैं,वे अपने तमाम साथियों के साथ मोंगा से तमाम बाधाओं को पार करके ट्रैक्टर से किसानो के साथ यहां पहुंचे हैं।
1 जनवरी 2021 को सुवह 11 बजे हिंदी के जाने माने कथाकार शिवमूर्ति,इप्टा लखनऊ के अद्यक्ष,ट्रेड यूनियन नेता और रंगकर्मी राजेश श्रीवास्तव,इप्टा की राष्ट्रीय समिति के सदस्य विनोद कोष्टी,दिल्ली इप्टा के पदाधिकारी,युवा रंगकर्मी,रजनीश और वर्षा के साथ हम सिंघु बॉर्डर पर चल रहे लाखों किसानों के धरने में पहुंचे हैं।
जिस सड़क पर लगभग 15 किलोमीटर तक किसानों का नया बसेरा है,कहीं टेंट लगे हैं,कहीं ट्रेक्टर ट्रालियों को बांसों के सहारे त्रिपालों से ढक कर शयन कक्ष बना लिए गए हैं।घुसते ही एक बड़ा सा मंच बना है,मंच पर दिए जाने वाले भाषण या कार्यक्रम पूरे धरना स्थल पर सुने जा सकते हैं।लगभग 10 किलोमीटर तक लाउडस्पीकर का संजाल बिछा है।दूर तक देखने के लिए मंच पर बड़ी स्क्रीन की भी व्यवस्था है।
हर थोड़ी थोड़ी दूरी पर लंगर की,चायपान और जलपान की व्यवस्था है।आंदोलन को उत्सव में बदलने का एक नया मुहावरा गढ़ लिया गया है।किसान अपने हल से बड़े बड़े हर्फ़ों में इतिहास की एक नई इबारत लिख रहा है।घुसते ही एक बुजुर्ग से पूछता हूँ,”आप यहां किसलिए आये हैं?पंजाबी में जबाब मिलता है”खेतां दी मिट्टी को दिल्ली के माथे पे लगान वास्ते”यह किसान की शायरी है वे उद्घोष कर रहे हैं”खेतों की मिट्टी को दिल्ली के मस्तक पर लगाएं गे/मरम्मत करेंगे हम देश के बिगड़े मुक़द्दर की।” किसने देश का मुक़द्दर बिगाड़ा है?मै पूछता हूँ।जबाब दूसरा नौजवान देता है।”अरे आपको दिखता नही,देश का भाग्य विधाता विकास के ख़्याली रथ पर सवार है,उसके एक हाथ मे धर्म का चाबुक हैऔर दूसरे में पूंजी की तलवार है। इस रथ को खींच कौन रहा है?मैं फिर पूछता हूं।”बदकिस्मती तो यही है कि इस ख़्याली रथ को देश का किसान और मजदूर खींच रहा है,लेकिन अब और नही,अब किसान जाग गया है,मजदूरों,आदिवासियों,छात्र,बेरोजगार नौजवानों,महिलाओं और इस रथ को खींचने में जुटे
सभी लोगों के जागने का वक़्त है।मेरे आमीन कहने से पहले फोन की घंटी बज गई है,प्रगतिशील लेखक संघ और पंजाबी के सबसे बड़े अंतरराष्ट्रीय लेखक संगठन केंद्रीय पंजाबी लेखक सभा के राष्ट्रीय महासचिव सुखदेव सिंह सिरसा पूछ रहे हैं”आप लोग कहाँ पहुंचे हैं?सीधे मुख्य मंच पर आइये।मुख्य मंच तक पहुंचने के रास्ते को सिर्फ एक नौजवान साथी ने एक डंडे से रोक रखा है,11.30 बजे से शहीद किसानों को श्रद्धांजलि का कार्यक्रम चल रहा है।
12 बजे से 2 बजे तक इसी मंच पर इप्टा,प्रलेस और केंद्रीय पंजाबी लेखक सभा का कार्यक्रम है। 12 बजते ही सिरसा जी के साथ मैं मंच पर पहुंच गया हूँ,बाकी लोगों को नीचे रोक दिया गया है।मैं बार बार कहता हूँ,हिंन्दी के जाने माने कथाकार शिवमूर्ति हमारे साथ हैं,उन्हें बुलाइये।मंच संचालक की ओर से बहुत विनम्रता से समझाया जाता है”मंच कमजोर है,एक एक कर के आते जाइये और बोल कर नीचे उतर जाइये।मंच से सुखदेव सिंह सिरसा,प्रो दीपक मलिक, संजीवन, शिवमूर्ति के अलावा पंजाबी के कई लेखकों ने संबोधित किया है,कई ने कविताएं सुनाई हैं,इस बीच सतीश कुमार और धर्मानंद लखेड़ा के नेतृत्व में उत्तराखंड इप्टा का दल आ पहुंचा है। वे कल मसूरी से पानीपत पहुंचे और रास्ते भर किसानों के बीच कार्यक्रम पेश करते आये हैं।यहां उन्होंने शलभ श्रीराम सिंह का सदाबहार इंकलाबी गीत”नफ़स नफ़स कदम कदम” पेश किया है,इप्टा के सारे कलाकार और श्रोता भी उनके साथ गा रहे हैं”घिरे हैं हम सवाल से हमे जबाब चाहिए”।उनके कार्यक्रम की समाप्ति के साथ दिलीप रघुवंशी के नेतृत्व में आगरा इप्टा की टीम भी पहुंच गई है, साज मिलाने का भी समय नही है,आनन फानन में वे राजेन्द रघुवंशी के भगतसिंह को समर्पित गीत को प्रस्तुत करते हैं”फांसी का फंदा चूम कर मरना सिखा दिया,मरना सिखा दिया अरे जीना सिखा दिया।
“किसान की त्रासदी पर इप्टा के गीतकार और गायक भगवान स्वरूप योगेंद्र ने एक मार्मिक गीत प्रस्तुत किया है”चली है आंधी खुदगार्जियों की गजब का तूफान आ रहा है/बुरा हाल है किसानों का अब जो सबकी भूख मिटा रहा है”।वे आगे और गाना चाहते हैं लेकिन समय का दबाव है,मंच पर मिनेट मिनेट के कार्यक्रम निर्धारित हैं।दिल्ली इप्टा की वर्षा और विनोद के व्यंग्य गीत”बाबा तेरी बातें सब समझे है जनता।”के साथ मुख्य मंच का कार्यक्रम समाप्त हो गया है। इस बीच साथी पीयूष सिंह के नेतृत्व में पटना इप्टा के साथी भी आ पहुंचे हैं।सारे लेखक कलाकार जुलूस ले कर एक साथ उस ओर बढ़ रहे हैं जहां आल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन और इप्टा मोगा का टेंट है,जाहिर है अब भोजन का वक्त है।इस बीच कई पंजाबी चैनल्स और सोशल मीडिया चैनल्स के लोग कलाकारों और लेखकों का इंटरव्यू ले रहे हैं,छोटे बच्चों नौजवानों में इप्टा के झंडों और पोस्टर्स के साथ फोटो खिंचाने की होड़ है।
इस आपाधापी में सब तितर बितर हो गए हैं।अलग अलग लंगरों में लोगों ने खाना खा लिया है,हमे पंगत में बैठ कर खाना खिलाया गया और पत्तल उठाने पर देर तक मीठी तकरार होती रही।उनकी परंपरा के अनुसार झूठी पत्तल वे ही उठाएंगे और इप्टा की परंपरा के अनुसार हमारी ज़िद कि खाने वाले ही उठाएंगे,आखिर हमारा अनुरोध मान लिया गया।सिख धर्म इस बात में अनूठा है कि पंगत में बैठने, लंगर में खाने में कोई भेदभाव नही है हालांकि हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था का सामाजिक स्तर पर प्रभाव वहां भी पड़ा है।यहां इस बीच खेत मजदूर यूनियन के कुछ साथियों के साथ इप्टा की राष्ट्रीय समिति के सदस्य,राज्य सभा सांसद बिनोय विश्वम भी आ पहुंचे हैं। इस कैम्प के सामने ही आगरा, पटना,दिल्ली और पंजाब इप्टा ने जनगीत प्रस्तुत करने शुरू कर दिए हैं।आगरा इप्टा के ब्रज भाषा के गीत “लूलू तोहि पांच बरस नही भूलूँ।”पर तो सैकड़ों लोग नाचने लगे हैं। दिलीप रघुवंशी ने जोगीरा शुरू किया तो पटना के साथियों ने पीयूष द्वारा समसामयिक विषयों पर लिखित जोगीरा का गायन अपने ही अंदाज़ में किया। जैसे- बनारस के घाट पर मिला एक इंसान , मैंने पूछा नाम तो बोला, मोदी हूँ महान, झोला लिए खड़ा था, बेचने देश चला था …
सिंघु बॉर्डर के अलग अलग कैम्प में जाकर रात्रि 12 बजे तक गीतों का गायन चलता रहा।
दूसरे दिन यानी 2 जनवरी को सुवह 10 बजे रिमझिम बरसात के बीच दिल्ली इप्टा के साथी विनोद कोष्टी,वर्षा और रजनीश,प्रख्यात लेखक शिवमूर्ति और राजेश श्रीवास्तव के साथ हम टिकरी बॉर्डर पर थे।बरसात के कारण यहां संयुक्त मंच से कार्यक्रम रुके हुए थे लेकिन हम जैसे ही वहां पहुंचे,पंजाब इप्टा के नौजवानों का एक दल वहां आ पहुंचा। एक ओर गीतों का सिलसिला शुरू हुआ तो दूसरी ओर कई स्थानीय चैनल्स पर इंटरव्यू का भी।शिवमूर्ति जी के एक पुराने मित्र भी यहां आ पहुंचे थे।
दोपहर 1 बजे आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के महासचिव,गायक,रंगकर्मी साथी विक्की माहेश्वरी के साथ पटना इप्टा की टीम भी यहां आ पहुंची।बिहार इप्टा के गीत”हल ही है औज़ार हमारा,हल से ही हल निकलेगा” के साथ यहां मुख्य मंच का कार्यक्रम शुरू हुआ। जीवन यदु के लिखे इस गीत को बेहद सराहा गया। गौहर रज़ा की नज़्म किसान ( तुम किसानों को सड़कों पे ले आए हो, अब ये सैलाब है, और सैलाब तिनकों से रुकते नही…), गोरख पाण्डे की रचना पर आधारित गीत, किसानों की आवे पालतानिया, हिले रे झकझोर दुनिया, पंजाब से उठल है तुफनियाँ, हरियाणा से उठल है लहरिया , झकझोर दुनिया, ये वक़्त की आवाज़ है, मिल के चलो, जब तक रोटी के प्रश्नों पर पड़ा रहेगा भारी पत्थर, तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत पर यकीन कर जैसे कई गीत गाये गए।
पुनः रात्रि में सिंघु बॉर्डर पर विभिन्न कैम्प में घूम घूम कर मध्य रात्रि तक अपने गीतों दे किसानों का हौसला अफजाई की । किसान साथियों में भगतसिंह के प्रति जज़्बे को देखते हुए फाँसी का झूला झूल गया, मस्ताना भगतसिंह… , सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल मे है के साथ साथ “लंगर के पिज़्ज़े तो दिख गए, दिसम्बर की ठंड तुम्हे दिखे नही” जैसे अन्य गीतों का भी गायन किया गया,।
तीसरे दिन यानि 3 जनवरी को भी पटना इप्टा के साथियों ने सिंघु बॉर्डर पर सुबह से ही दिन भर गीतों की प्रस्तुतियों से किसान आंदोलन में अपना समर्थन व्यक्त किया। नए कृषि कानून वापस होने की उम्मीद के साथ इप्टा और प्रलेस के कलाकारों और लेखकों ने वहां अपनी कला,गीत और कविताओं से जितना दिया उससे ज्यादा लिया।वहां से लिया लड़ने का हौसला,आंदोलन को उत्सव में बदलने का सलीका।दिल्ली की सीमाओं पर किसान इंसानियत की पाठशाला चला रहे हैं,संविधान का पुनर्पाठ कर रहे हैं,बिना राजनैतिक नारों के संघर्ष की नई इबारत लिख रहे हैं।लौटने पर एक लेखक मित्र ने पूछा”इस आंदोलन की परिणति क्या होगी?”मैं ने वही दोहरा दिया जो 1857 में ग़ालिब ने कहा था”आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक।