फिल्म संगीत को अगर दो युगों में बांटा जाए तो एक पंचम दा के पहले का होगा और दूसरा उनके बाद का

शुभम उपाध्याय

आरडी बर्मन यानी पंचम दा को ऐसा संगीतकार कहा जा सकता है जिन्होंने फिल्म संगीत के मिजाज और व्याकरण को बदलकर एक नया दौर शुरू किया था राहुल देव बर्मन को आप संगीतकारों की दुनिया का गुलजार भी कह सकते हैं.

राहुल देव बर्मन को आप संगीतकारों की दुनिया का गुलजार भी कह सकते हैं. इसलिए नहीं कि विशाल भारद्वाज से कई जमाने पहले एक सार्थक गीतकार और प्रयोगधर्मी संगीतकार की सर्वश्रेष्ठ जुगलबंदी का उदाहरण पंचम और गुलजार ही हुआ करते थे, बल्कि इसलिए क्योंकि पंचम में बतौर संगीतज्ञ एक गुलजार भी रहा करता था.

गुलजार ने जिस तरह फिल्मी गीतों के व्याकरण को बदला, गीतों में नये बिम्बों का अस्तित्व तलाशा और दर्शकों के मिजाज को अपनी लिखाई से बदला, ठीक उसी तरह आरडी बर्मन ने भी हिंदी फिल्म संगीत का चेहरा बदला. वे न सिर्फ अपने पिता एसडी बर्मन की छाया से बाहर निकले बल्कि सलिल चौधरी, नौशाद, कल्याणजी-आनंदजी और शंकर-जयकिशन जैसे पुराने स्थापित संगीतकारों के बनाए रास्ते पर न चलकर प्रयोगधर्मिता के एक नये और उन्मुक्त रास्ते की खोज में भी निकले.

पंचम के संगीत की सफलता का श्रेय उस वक्त के सुपरस्टार राजेश खन्ना को भी दिया जाता है जिन्होंने उनके गानों पर लिपसिंक और अभिनय कर उन्हें लोकप्रिय बनाया, लेकिन अपने लंबे करियर में कमर्शियल सफलता की लत से बचते हुए पंचम ने न सिर्फ हिंदी फिल्म संगीत का मिजाज बदला, बल्कि उसका व्याकरण भी बदलकर दर्शकों को हरदम नये स्वाद का संगीत परोसा.

उनके बाद आए संगीत निर्देशकों ने अगर अपने म्यूजिक में वेस्टर्न प्रभाव का प्रयोग अति की मात्रा में किया तो पंचम वह अलहदा संगीतकार रहे जिन्हें भारतीयों की पसंदीदा मेलोडी और पश्चिमी प्रभाव का संतुलन बनाए रखना बखूबी आया. आप हिंदी फिल्म संगीत का विभाजन आरडी से पहले और आरडी के बाद वाले दौर में आसानी से कर सकते हैं, और दोनों ही दौर के कुछ गीत सुनने पर गानों के स्ट्रक्चर से लेकर धुनों तक में आए बदलाव को आसानी से पकड़ सकते हैं.

संगीत में पंचम की शुरुआती ट्रेनिंग अपने पिता एसडी की देखरेख में ही हुई और इसीलिए सीनियर बर्मन के मिजाज के हिंदुस्तानी क्लासिकल संगीत में हुई. लेकिन पंचम का झुकाव हमेशा से वेस्टर्न म्यूजिक की तरफ रहा और उन्होंने अपने समय के उन विदेशी संगीतज्ञों को खूब सुना जो वेस्टर्न संगीत के विभिन्न फॉर्म्स में माहिर माने जाते थे. रॉक बैंड्स से लेकर जैज, लैटिन, स्पेनिश और हर उस धरती का संगीत जो हिंदुस्तान पहुंच सकता था, उसका पंचम ने गहराई से अध्ययन किया.

राहुल देव बर्मन का नाम पंचम कैसे पड़ा इस बारे में भी कई किस्से प्रचलित हैं. कुछ का मानना है कि बचपन में वे पांच अलग-अलग नोट्स में रोते थे इसलिए घर वालों ने उनका नाम पंचम रख दिया! कुछ कहते हैं कि जब बचपन में अशोक कुमार ने उन्हें बार-बार ‘पा’ कहते हुए सुना तो नामकरण पंचम कर दिया. लेकिन मन्ना डे कहते थे कि जब उन्होंने आरडी के पिता एसडी बर्मन से पूछा कि आपने पंचम नाम क्यूं रखा, तो वे बोले, ‘अपनी पैदाइश के वक्त वो जब रो रहा था तो पांचवे (पंचम) सुर में रो रहा था, यानी कि पा, इसलिए मैंने उसका नाम पंचम रख दिया.’

पंचम को माउथऑर्गन बजाना पसंद था और अपने पिता की संगीतबद्ध रचना है अपना दिल तो आवारामें सुनाई देने वाला माउथऑर्गन पीस भी उनका ही बजाया हुआ है

पंचम ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत पिता एसडी के सहायक के तौर पर ही की. तबला और आवाज का रियाज पंडित ब्रजेन बिश्वास संग किया और उस्ताद अली अकबर खान से सरोद सीखा. इसके अलावा वे माउथऑर्गन भी बेहद उम्दा बजाते थे और अपने पिता का स्थायी सहायक बनने से पहले देव आनंद पर फिल्माया गया और हेमंत कुमार का गाया ‘है अपना दिल तो आवारा’ में सुनाई देने वाला माउथऑर्गन पीस भी उनका ही बजाया हुआ था. पिता एसडी ने न सिर्फ उनके संगीत को आधारशिला दी बल्कि उनके निजी जीवन की नींव भी एसडी के स्टूडियो में ही पड़ी. अपनी दूसरी पत्नी आशा भोंसले से पंचम की पहली मुलाकात एसडी की एक म्यूजिक सिटिंग में हुई जब 1953 में ‘अरमान’ फिल्म के लिए आशा भोंसले गीत गाने स्टूडियो आईं. वहीं पहली बार एसडी ने आशा को मैट्रिक में पढ़ रहे बेहद दुबले-पतले पंचम से मिलवाया.

पंचम मैट्रिक पास नहीं कर पाए और फिर पढ़ाई छोड़कर हमेशा के लिए संगीत में रम गए. आशा से उनकी दूसरी मुलाकात 1957 में एसडी के ही संगीत से सजी ‘नौ दो ग्यारह’ के वक्त हुई, जब आशा गाने का अभ्यास करने स्टूडियो आईं और वहीं उन्होंने जमीन पर बैठकर वाद्य यंत्र बजाते पंचम को दूसरी बार देखा. कुछ सालों बाद 1966 में पंचम ने रीता पटेल से शादी कर ली और यह विवाह सिर्फ 1971 तक चला. कारण फिल्मों में पंचम की अति व्यस्तता रही और पंचम के संगीत की मुरीद बनकर जिस लड़की ने उनसे शादी की थी वह उसी संगीत की आसक्ति की वजह से पंचम को छोड़ कर चली गई.

कुछ सालों की नजदीकियों के बाद 1980 में पंचम और आशा भोंसले ने एक-दूसरे को अपना जीवनसाथी चुन लिया. भले ही दोनों की जुगलबंदी निजी जीवन में आखिरी वक्त तक एक-दूसरे का साथ न दे पाई हो लेकिन संगीत के क्षेत्र में यह जुगलबंदी न सिर्फ अमर रही, बल्कि दोनों एक-दूसरे के कुछ यूं पूरक बने कि आशा ने पंचम के लिए 800 से ज्यादा फिल्मी गीत गाए.

मेहमूद अपनी फिल्म छोटे नवाबके लिए एसडी को लेने उनके स्टूडियो गए थे लेकिन पंचम को तबला बजाते देखने के बाद (और एसडी के संगीत देने से इंकार करने के बाद) मेहमूद ने वहीं के वहीं पंचम को साइन कर लिया

पिता के संगीत सहायक से स्वतंत्र संगीत निर्देशक बनने का इत्तेफाक भी पंचम के पास खुद ही चलकर एसडी के स्टूडियो में आया. मेहमूद अपनी फिल्म ‘छोटे नवाब’ के लिए एसडी को लेने उनके स्टूडियो गए थे लेकिन पंचम को तबला बजाते देखने के बाद (और एसडी के संगीत देने से इंकार करने के बाद) मेहमूद ने वहीं के वहीं पंचम को साइन कर लिया. ‘छोटे नवाब’ (1961) पंचम की बतौर संगीतकार पहली रिलीज हुई फिल्म कहलाई और अपनी पहली ही फिल्म के ‘मतवाली आंखों’ नाम के गाने से उन्होंने वेस्टर्न प्रभाव वाले संगीत का जलवा बिखेरना शुरू कर दिया. इसी फिल्म में लता मंगेशकर की आवाज में मेलोडी की कड़क पकड़ रखने वाला शुद्ध हिंदुस्तानी ‘घर आजा घिर आए बदरा’ भी था जिसे आज भी सुनकर यह समझा जा सकता है कि बाद के सालों में कमाल संगीत देने वाला यह संगीतकार अपनी पहली फिल्म में भी संगीत की कितनी गहरी समझ रखता था.

इसपर भी हमेशा विवाद रहा है कि एसडी पंचम के लिए गीत बनाकर दिया करते थे या पंचम एसडी के अस्वस्थ होने पर उनके गीतों को पूरा किया करते थे. इंडस्ट्री में कुछ लोग मानते हैं कि कई गीत ऐसे रहे जिसमें मुखड़ा पंचम ने तैयार किया तो बाकी का गीत एसडी ने और इसका उल्टा भी हुआ. कई किस्से यह भी साफ कहते हैं कि पंचम ही एसडी का स्वास्थ्य खराब होने पर अपने पिता की मदद किया करते थे और एसडी के कई हिट गीतों को मूल रूप से पंचम ने ही तैयार किया लेकिन क्रेडिट सहायक का लिया. गाइड का ‘गाता रहे मेरा दिल’ और आराधना का ‘कोरा कागज’ ऐसे ही कुछ गीत हैं जिसमें संगीत तो एसडी बर्मन का था लेकिन उन्हें बनाया पंचम ने था.

पंचम को अनेकों बार गुलजार के लिखे शब्दों को सुर देने में भी कठिनाई का सामना करना पड़ता था. गुलजार की लिखाई पारंपरिक संगीत के मानकों पर खरी नहीं उतरती थी और पंचम के सहयोगियों के किस्से बताते हैं कि गुलजार के गीतों को संगीतबद्ध करने में वे हमेशा ही अतिरिक्त मेहनत किया करते थे. ‘मेरा कुछ सामान’ गीत से जुड़ा वह किस्सा तो अब जगजाहिर है ही जिसमें गुलजार जब अपना लिखा यह गीत उनके पास लेकर गए और कहा कि इस पर गाना बनाना है, तो पंचम ने नाराज होकर पन्ना वापस गुलजार की तरफ सरकाते हुआ कहा कि कल को टाइम्स आफ इंडिया भी लेकर आएगा, और कहेगा कि इसकी भी ट्यून बना दो, तो क्या मैं वो भी बना दूंगा! बाद में आशा भोंसले के साथ संगत बिठाकर पंचम ने सिर्फ दस-पंद्रह मिनिट में यह अमर गीत तैयार कर दिया और मीटर पर न चढ़ सकने वाले गाने को इतना खूब चढ़ाया कि वह आज भी करोड़ों लोगों के सर चढ़कर बोलता है.

इस पर हमेशा विवाद रहा है कि एसडी पंचम के लिए गीत बनाकर दिया करते थे या पंचम एसडी के अस्वस्थ होने पर उनके गीतों को पूरा किया करते थे

‘इजाजत’ हो या ‘आंधी’ या फिर ‘परिचय’, ‘किताब’, ‘किनारा’, ‘मासूम’ और ‘दिल पड़ोसी है’, गुलजार और पंचम की जुगलबंदी वाले गीत हमेशा अजर-अमर तो रहेंगे ही, वे एक गीतकार और संगीतकार की मरते दम तक साधी गई दोस्ती के गवाह भी रहेंगे. यह बात आप पंचम पर लिखी गुलजार की नज्में पढ़कर भी समझ सकते हैं और तब भी जब हर बार पंचम पर बात करते हुए गुलजार की आंखें नम हो जाया करती हैं. आप क्या समझते हैं कि साथ काम करने वाले उस दौर में आरडी की तरह ही काले मोटे फ्रेम का चश्मा पहनने वाले गुलजार यह सिर्फ इत्तेफाकन ही किया करते थे!

पंचम कई लोगों के लिए नालंदा भी थे. आईआईटी और आईआईएम भी. वे संगीत का एक ऐसा विद्यालय रहे हैं जिनसे न सिर्फ उनके तुरंत बाद वाली पीढ़ी (बप्पी लहरी, अनु मलिक) ने सीखा बल्कि विशाल-शेखर, शंकर-एहसान-लॉय, शांतनु मोइत्रा, विशाल भारद्वाज जैसे बेहद सफल संगीतकारों का संगीत भी अभी तक उनके गीतों से शिक्षा लेता आया है और अमित त्रिवेदी के गीत-संगीत में भी पंचम की छाप साफ नजर आती है. सुजॉय घोष की शुरुआती और एकदम धमाल फिल्म ‘झंकार बीट्स’ संगीत के इसी ‘बॉस’ को ट्रिब्यूट दे चुकी है, जिसमें पंचम से मिलकर आज भी दिल खुश हो जाता है – ‘बॉस कौन था, मालूम है क्या?’

पंचम ने अपनी खुद की आवाज और वाद्य यंत्रों के साथ भी कई प्रयोग किए. ऐसे प्रयोग जो वह अलहदा साउंड पैदा करते थे जो उस वक्त तक हिंदी फिल्मों में कभी सुने नहीं गए थे. राजेश खन्ना की ‘अपना देश’ का ‘दुनिया में लोगों को’ गीत में सांसों पर गजब कंट्रोल करके ‘हाहा..हा..हाहाहा’ की साउंड निकालना हो या फिर ऊंची खराश आवाज के साथ ‘तरतरतरारा’ बोलना. जिस तरह हमारी पीढ़ी रहमान के शुरुआती गीतों के आने पर भौचक्की रह गई थी, उसी तरह उस दौर के श्रोता पंचम की यह स्टाइल सुनकर अविश्वास से भर गए थे. कि कोई संगीतकार इस तरह भी गीत बना सकता है, जिसमें गायकी और वाद्य यंत्रों से ज्यादा आवाज और सांसों के अजब खेल से गीत में निखर आता है.

नयी-नयी आवाजों को साउंड ट्रिपिंगमें ढूंढकर स्नेहा खनवालकर ने तो हमें बहुत बाद में खुश किया, यह काम पंचम बहुत पहले से किया करते थे

इस तरह के अनूठे प्रयोग पंचम के कई गीतों में देखने को मिलते हैं. गरारे करती फीमेल आवाज को उन्होंने मशीन में ऐसा मथा कि ‘सत्ते पे सत्ता’ के दूसरे वाले अमिताभ की एंट्री ट्यून बना दी. कभी दो रेगमाल को आपस में घिसकर साउंड निकाला तो कभी छोटी कंधी को किसी सतह पर चलयमान बनाकर. नयी-नयी आवाजों को ‘साउंड ट्रिपिंग’ में ढूंढकर स्नेहा खनवालकर ने तो हमें बहुत बाद में खुश किया, यह काम पंचम बहुत पहले से किया करते थे. कभी रातभर बैठकर बरसते पानी की आवाज को रिकार्ड करते तो कभी झींगुरों की आवाज को. कभी कांच की बोतल में फूंक मार-मारकर शोले के ‘महबूबा-महबूबा’ के लिए साउंड तैयार करते तो कभी ढोलक से नयी साउंड निकालने के लिए किसी सहायक की नंगी पीठ पर ही हाथ चलवा देते.

लेकिन संगीत के प्रति इस कदर जुनूनी यह संगीतकार भी असफलता के भंवर में फंसने से खुद को रोक नहीं सका. 1985 के बाद उनके जीवन में वह दौर शुरू हुआ जो किसी की जिंदगी में नहीं आना चाहिए लेकिन उगते सूरज को उचक-उचक कर सलाम करने वाली हमारी फिल्म इंडस्ट्री में हर किसी का आता है. वह लंबा वक्त जब आपका काम हिट नहीं होता और ढलता सूरज अकेला रह जाता है. आरडी भी लंबे वक्त तक अकेले रहे और यार-दोस्त व इंडस्ट्री के शुभचिंतक उनकी असफलताओं की आड़ लेकर उनसे दूर होते गए.

1985 तक सुपरहिट कहलाए जाने वाले इस कंपोजर की अगली 27 फिल्मों का संगीत नाकामयाब रहा और इस असफलता ने उन्हें बुरी तरह तोड़ा. भले ही इस दौरान आई ‘इजाजत’, ‘परिंदा’, ‘गर्दिश’, ‘लिबास’ जैसी फिल्मों के गीत बाद के सालों में महान से लेकर बेहद उम्दा की श्रेणी में गिने गए, लेकिन आज के समय में जिस संगीतकार को हर कोई जीनियस कहता है वह आरडी बर्मन अपने आखिरी दिनों में असफल होने के साथ-साथ बेइज्जत भी खूब हुआ. सुभाष घई ने ‘राम-लखन’ (1989) के लिए उन्हें साइन करने के बाद एक दिन अचानक लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को अपनी फिल्म में ले लिया और पंचम को स्वयं यह जानकारी देना जरूरी भी नहीं समझा. इससे पहले 1988 में पंचम एक हृदयाघात बर्दाश्त कर चुके थे और कहते हैं कि राम-लखन की घटना के बाद कहा करते थे, ‘मैं बायपास के लिए क्या गया, उसने मुझे ही बायपास कर दिया’.

आरडी बर्मन कभी कांच की बोतल में फूंक मार-मारकर शोले के महबूबा-महबूबाके लिए साउंड तैयार करते तो कभी ढोलक से नयी साउंड निकालने के लिए किसी सहायक की नंगी पीठ पर ही हाथ चलवा देते

इस बेइज्जती का सदमा पंचम को गहरे लगा. वे न तो इसे बर्दाश्त कर पाए और न ही अपने एक करीबी सहायक की धोखेबाजी को. कई फिल्मी हस्तियां उन्हें उनके आखिरी दिनों में एक उदास और बेहद अकेले आदमी के तौर पर याद करती हैं और कुछ तो हृदयाघात से हुई उनकी मृत्यु का कारण उनके इसी अकेलेपन और अवसाद को मानती हैं.

मगर कुछ बिरले होते हैं जो सारी असफलताओं और बेइज्जतियों का जवाब अपने काम से ही देते हैं. आरडी बर्मन ने भी अपने आखिरी फिल्मी एलबम से ऐसा ही करारा जवाब दुनिया को दिया और उनकी आखिरी संगीत-रचना ‘1942 अ लव स्टोरी’ का संगीत दुनिया को यह याद दिला गया कि अवसरवादी दुनिया में रचा गया अमर संगीत भी अपने संगीतकार को हमेशा के लिए अमर कर देता है.

कहानी है कि निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा 1994 में रिलीज हुई अपनी इस फिल्म के लिए थके-हारे और हाशिए पर पड़े आरडी बर्मन को ही लेना चाहते थे लेकिन वह म्यूजिक कंपनी जिसने उनकी फिल्म का म्यूजिक खरीदा था, नहीं चाहती थी कि आरडी जैसा बुझ चुका सितारा उनकी इस फिल्म को संगीत दे. विधु नहीं माने – जैसे कि वे कभी नहीं मानते हैं- और ‘1942 अ लव स्टोरी’ ने न सिर्फ श्रोताओं को जावेद अख्तर के लिखे रुमानियत में डूबे अजर-अमर गीत दिए बल्कि 1960 से लेकर 1980 के दशक तक फैले अपने लंबे फिल्मी करियर में सिर्फ दो बार फिल्मफेयर जीतने वाले आरडी बर्मन को भी सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक का तीसरा फिल्मफेयर पुरस्कार इसी फिल्म के लिए मिला. मरणोपरांत.

पंचम के लिए नहीं लिखा जावेद अख्तर का एक गीत कहता है, ‘जाते जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया, उम्र भर दोहराऊंगा ऐसी कहानी दे गया’.

सौज- सत्याग्रहः लिंक नीचे दी गई है-

https://satyagrah.scroll.in/article/101165/there-are-two-eras-in-hindi-film-music-one-before-r-d-burman-and-one-after-him

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