ढोला-मारू की प्रेम कहानी से जुड़ा यह लोकगीत सदियों से राजस्थान की मिट्टी में बसा है, लेकिन इसे सम्मान के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचाया अल्लाह जिलाई बाई ने । सुनिए नग्मा-
आसमान तक ऊंचे रेत के धोरे और रेत की ही सुनहरी चादर में लिपटी जमीन. दूर-दूर तक दिखता रेत का अनंत सैलाब या फिर नीला सूना अंबर जिसके दामन में अक्सर बादल का एक टुकड़ा भी नहीं होता. राजस्थान कहते ही इसके अलावा याद आता है बलिदान, शौर्य और अदम्य साहस. साथ ही याद आती है रंग-रंगीली संस्कृति.
हो सकता है कि आप कभी राजस्थान न गए हों. लेकिन यह तय है कि राजस्थान आप तक कभी न कभी जरूर आया होगा. कभी गले में गोरबंद लटकाए ऊंट पर सवार होकर, कभी दाल-बाटी-चूरमा के साथ थाल में सजकर और कभी ‘केसरिया बालम’ का सुर बनकर. केसरिया बालम यानी एक मीठी सी मनुहार जिसे गाकर पावणों को अपने ‘देस’ में न्यौता जाता है. शायद इस मनुहार की मिठास का ही असर है जो राजस्थान की सूखी धरती की तरफ देशी-विदेशी मेहमान अनायास ही खिंचते चले आते हैं.
केसरिया बालम अब राजस्थान की संस्कृति का अभिन्न प्रतीक बन चुका है. ढोला-मारू की प्रेम कहानी से जुड़ा यह लोकगीत न जाने कितनी सदियों से राजस्थान की मिट्टी में रज-बस रहा है. लेकिन माटी के इस गीत को सम्मान के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचाने वाली महिला का नाम था अल्लाह जिलाई बाई जिन्हें पूरी दुनिया में मरू कोकिला और बाई जी के नाम से जाना जाता है. अल्लाह जिलाई बाई के भीने-भीने स्वर रेतीले राजस्थान में बारिश की कमी को पूरा कर देते थे. कहते हैं कि मरूस्थल की इस बेटी की मखमली आवाज जब बियाबान रेगिस्तान में गूंजा करती थी तो जैसे यहां की बंजर धरती की आत्मा भी तृप्त हो जाती थी.
अल्लाह जिला बाई ने सबसे पहले केसरिया बालम बीकानेर महाराजा गंगासिंह के दरबार में गाया था. ये वही गंगासिंह थे जिन्होंने पहले विश्वयुद्ध में युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से भाग लिया और ‘गंगा रिसाला’ नाम से ऊंटों की एक सेना बनाई थी जिसके पराक्रम को (पहले और दूसरे विश्वयुद्ध में) देखते हुए बाद में इसे बीएसएफ में शामिल कर लिया गया.
महाराज गंगासिंह ने अपने जीवन और शासनकाल में लोककल्याण के लिए कई काम किए थे. लेकिन उनके दो अविस्मरणीय योगदान ऐसे थे जिनके लिए कहा जाता है कि मरूभूमि सदैव उनकी ऋणी रहेगी. 1927 में महाराज गंगासिंह ने अपने नाम को सार्थक करते हुए पंजाब से राजस्थान तक ‘गंगनहर’ का निर्माण करवाया और मरूस्थल के भागीरथ के नाम से जाने गए. गंगनहर के अलावा महाराज ने प्रदेश को जो दूसरा बेशकीमती तोहफा दिया वे थीं खुद अल्लाह जिलाई बाई.
बाई जी के हुनर को महाराज ने तब परख लिया था जब वे 10 साल की छोटी बच्ची थीं. उन्होंने बाई जी की तालीम के लिए दरबार के मेहनताने पर पहले उस्ताद हुसैन बख्श और बाद में अच्छन महाराज को मुकर्रर किया था. जल्द ही अल्लाह जिलाई बाई अपने फन में माहिर हो गईं. अपने उस्तादों से उन्होंने मांड, ठुमरी, ख्याल और दादरा जैसी सभी शैलियों में गाना सीखा था.
वैसे तो अपनी जीवन यात्रा के दौरान अलग-अलग पड़ावों पर बाई जी ने कई बेहतरीन नगमे गुनगुनाए थे लेकिन मांड शैली में गाए उनके केसरिया बालम को श्रोताओं का सबसे ज्यादा प्यार नसीब हुआ. और होता भी क्यूं नहीं! राजस्थान की इस बेटी ने इस गीत को गाया ही इस अंदाज से था कि वीरता और पराक्रम का प्रतीक केसरिया भी मानो बाई जी के स्वर पाकर पहले से कहीं ज्यादा उज्जवल हो गया था.
केसरिया हो या मूमल या पणिहारिन या फिर गोरबंद, बाई जी ने राजस्थान की उस साझी लोक विरासत को प्रस्तुत किया जो भक्ति-सूफी काल से यहां चली आ रही थी. कहना गलत नहीं होगा कि बाई जी उसी मिली-जुली संस्कृति की वारिस थीं जिसे मीरा, दादू और मोइन्नुद्दीन चिश्ती जैसे संत-फकीरों ने मिलकर सींचा था. यह शायद उसी गंगा-जमुनी तहजीब का कमाल था जो इस्लाम से ताल्लुक रखने वाली बाई जी के स्वर पाकर ‘हिंदू केसरिया’ निखर गया था.
राजस्थान की इस मिली-जुली तहजीब को हमेशा अपने दिल में संजोए बाई जी और उनकी आवाज बीकानेर राजपरिवार में नई किलकारी गूंजने से लेकर शाही बारात के स्वागत तक तमाम हिंदू रस्मों से कभी न अलग होने के लिए जुड़ चुकी थीं.
महाराज गंगासिंह के स्वर्गवास के बाद अल्लाह जिलाई बाई पूरे देश के लिए ऑल इंडिया रेडियो के माध्यम से अपनी प्रस्तुति देने लगीं. राजस्थान की रंगीली संस्कृति का चेहरा बन चुकी इस कलाकार को संगीत के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान के लिए भारत सरकार ने 1982 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान में से एक पद्मश्री से नवाजने का फैसला किया.
राजस्थान के लोकसंगीत को देश-विदेश में एक नया आयाम दिलाने वाले जाने-माने कलाकार मामे खान सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘केसरिया बालम को बाई सा ने मांड शैली में गाया था. मांड लोकजीवन से जुड़ी हुई वह शैली है जिसके अलाप से अपने देस और अपनी मिट्टी की महक आती है.’
केसरी चंद मालू उस वीणा म्यूजिक कंपनी के मालिक हैं जिसने बाई जी के लुप्तप्राय हो चुके गीतों को जुटाकर फिर से दुनिया के सामने पेश किया है. उन्होंने पद्मश्री से सम्मानित होने के मौके पर अल्लाह जिलाई बाई के साथ राजस्थान से दिल्ली तक का सफर तय किया था. बीते दिनों को याद करते हुए वे बताते हैं, ‘उन दिनों कला का राजनीतिकरण नहीं किया जाता था, संगीत को ईश्वर की आराधना समझा जाता था. उस जमाने में अधिकतर कलाकार मुस्लिम ही हुआ करते थे जो शिव से लेकर कृष्ण तक की प्रशंसा में अपनी आवाज से श्रद्धासुमन अर्पित करते थे. चाहे गणगौर हो या तीज, ये मुस्लिम कलाकार हमारे त्यौहारों को अपना समझ कर ही मनाते थे.’
केसरी चंद मालू आगे बताते हैं कि अल्लाह जिलाई बाई बीकानेर राजदरबार का अभिन्न अंग थीं. चाहे किसी कुंवर के जन्म पर हालरिया (स्थानीय लोरी गीत) गाने हों या शाही बारात का डेरा (गांव के बाहर बारात आकर रुक जाती थी) देखने जाते समय ‘जल्ला’, अल्लाह जिलाई बाई अपनी जादुई आवाज से इन मौकों को बहुत खास बना देती थीं. वे कहते हैं, ‘बाई जी ने जितनी भी बार केसरिया बालम गाया वे उसे हर बार अलग अंदाज से गाती थीं.’ वे यह भी बताते हैं कि बाई जी द्वारा तकरीबन दसियों तरह से गाया केसरिया बालम का संग्रह उनके पास मौजूद है.
बाई जी के गीतों के संग्रह को लेकर भी बेहद दिलचस्प किस्सा जुड़ा हुआ है. केसरी चंद मालू बताते हैं, ‘‘उस दौर में तकनीकें इतनी विकसित नहीं थीं और न मैं खुद को इस लायक समझता था कि बाई सा से हमारे लिए रिकॉर्डिंग के लिए कह सकूं. लेकिन बाई जी के जाने के बाद अहसास हुआ कि हमने क्या खोया है. हमेशा फिक्र सताती थी कि कैसे आने वाली पीढ़ियों को बाई जी और राजस्थान की संस्कृति के बारे में बताया जाएगा क्योंकि अल्लाह जिला बाई ने ‘केसरिया बालम’ अधिकतर रेडियो के लिए ही गाया था और उसकी रिकॉर्डिंग बहुत अच्छी गुणवत्ता में उपलब्ध नहीं थी.’
फिर एक दिन केसरी चंद मालू को किसी सज्जन ने बताया कि भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के एक अधिकारी भीमसिंह जी के पास बाई सा के पुराने बिरले गीतों का कलेक्शन मौजूद है. वे भीमसिंह जी के घर पहुंच गए. लेकिन तमाम मिन्नतों के बाद भी भीमसिंह ने उन्हें यह संग्रह देने से इनकार कर दिया.
लेकिन मालू साहब भी बाई सा के गीतों को पाने की ठान चुके थे. इसी बीच भीमसिंह जी का स्वर्गवास हो गया और उनके बाद उनके बेटों ने बाई जी और राजस्थान की संस्कृति के प्रति केसी मालू का अटूट प्रेम और समर्पण देखकर उन्हें भीमसिंह जी का अद्भुत संग्रह दे दिया. वे बताते हैं कि उस संग्रह के खास गीतों की साउंड क्वालिटी सुधारने की लंबी प्रक्रिया के बाद उनका डिजिटाइजेशन किया गया और फिर सीडी के जरिए श्रोताओं के लिए उपलब्ध करवाया गया.
एक फरवरी 1902 को पैदा हुई अल्लाह जिलाई बाई तीन नवंबर 1992 को दुनिया से रूखसत हुई थीं. इस दौरान उन्होंने न जाने कितने उतार-चढ़ाव देखे लेकिन संगीत का दामन हमेशा थामे रखा. बाई जी तो अब हमारे बीच मौजूद नहीं हैं, लेकिन उनकी आवाज ‘पधारो म्हारे देश जी’ की तान के रूप में दुनिया को हमेशा राजस्थान आने का न्योता देती रहेगी.
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