निरक्षर और पागल तक कहे जाने वाले रामकृष्ण परमहंस ने अपने जीवन से दिखाया था कि धर्म किसी मंदिर, गिरजा, विचारधारा, ग्रंथ या पंथ का बंधक नहीं है
भारत और दुनियाभर में आध्यात्मिक परंपरा की एक खासियत रही है कि गुरुओं की महानता को दुनिया के सामने लाने का कार्य उनके शिष्यों और बाद के साधकों ने ही किया. जैसे रामानंद के लिए कबीर ने किया. असम में शंकरदेव के लिए माधवदेव ने किया. जैसे यूनान में सुकरात के लिए प्लेटो और ज़ेनोफन ने किया. कुछ-कुछ वैसा ही रामकृष्ण परमहंस के बारे में भी हुआ. आज हम रामकृष्ण परमहंस को जिस रूप में जानते हैं, वह शायद वैसा नहीं होता, यदि केशवचंद्र सेन और विवेकानंद ने दुनिया को उनके जीवन और विचारों के बारे में इस रूप में बताया न होता.
लेकिन असली गुरुओं की यही सहजता, सरलता और गुमनामी ही उनकी महानता होती है. आत्मप्रचार से दूर वे अपनी साधना और मानव सेवा में लगे रहते हैं. रामकृष्ण परमहंस के जीवन को यदि तीन शब्दों में व्यक्त करना हो, तो वे होंगे- त्याग, सेवा और साधना. और यदि दो शब्द और जोड़ने हों तो वे शब्द होंगे- प्रयोग और समन्वय.
यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि उनका जीवन और व्यक्तित्व रहस्यमयी रहा. उनकी जीवन-शैली और उनका व्यवहार अच्छे-अच्छों की भी समझ से बाहर का था. इतना अजीब था कि ज्यादातर लोग उन्हें पागल तक समझते थे. कुछ ने तो उनके दिमाग का इलाज कराने तक की कोशिश की. लेकिन ढाका के एक मानसिक चिकित्सक ने उनकी युवावस्था में ही एक बार कहा था कि असल में यह आदमी एक महान योगी और तपस्वी है, जिसे दुनिया अभी समझ नहीं पा रही है. और यह भी कि किसी चिकित्सकीय ज्ञान से उसका इलाज नहीं किया जा सकता था.
उस वैद्य ने सच ही कहा होगा. जिस तरह कबीर की धुन, रैदास की भक्ति और मीरा की लगन को मनोवैज्ञानिक तरीके से समझना संभव नहीं था, ठीक उसी तरह रामकृष्ण के कथित पागलपन को भी पांडित्य बुद्धि से समझना असंभव था. लेकिन इसके प्रयास होते रहते थे. और जो कोई भी ऐसा प्रयास करने जाता, वह रामकृष्ण की सरलता, निश्छलता, शुद्धता-पवित्रता, बालसुलभ भोलेपन, निःस्वार्थता और त्याग से इतना अभिभूत हो जाता कि अपना सारा पांडित्य भूलकर उनके पैरों पर गिर पड़ता. गहन से गहन दार्शनिक सवालों के जवाब भी वे अपनी पांडित्यविहीन और सरल भाषा में इस तरह देते कि सुनने वाला तत्काल ही उनका मुरीद हो जाता. इसलिए दुनियाभर की तमाम आधुनिक विद्या, विज्ञान और दर्शनशास्त्र पढ़े महान लोग भी जब दक्षिणेश्वर के इस निरक्षर परमहंस के पास आते, तो अपनी सारी विद्वता भूलकर उसे अपना गुरु मान लेते थे.
रामकृष्ण बहुत छोटे ही थे जब उनके पिता का देहांत हो गया. जीविकोपार्जन के लिए पुरोहिती के अलावा कोई चारा न था, सो बालपन में ही किसी मंदिर में इसी काम में लगा दिए गए. लेकिन कथित धर्म-विषयक बातों को लेकर पुरोहितों का आपसी मतभेद और टकराव उन्हें अच्छा नहीं लगता था. पुराणों की कपोल कथाएं भी उन्हें प्रभावित नहीं करती थीं. उन्हें लगने लगा था कि यदि धर्म और ईश्वर जैसी कोई चीज है, तो उसे मनुष्य की अनुभूति पर भी खरा उतरना चाहिए. उन्हें लगा कि ईश्वर यदि है तो उसे वे अपनी आंखों से देखकर रहेंगे.
ईश्वर को देखने का यह विचार पहले तो एक जिद की शक्ल में आया, लेकिन वह बाद में एक भक्तिपूर्ण खोज में बदल गया. वे ईश्वर को ढूढ़ने लगे और उसके लिए तड़पने लगे. उसकी खोज में मंदिर की पुरोहिती छोड़कर पास के एक निर्जन जंगल में जाकर रहने लगे. ईश्वर-दर्शन की बेचैनी और अधीरता बढ़ने लगी थी और उनका व्यवहार असामान्य होने लगा था. इसी असामान्य व्यवहार को किसी ने धर्मोन्माद का नाम दिया, तो किसी ने पागलपन का.
रामकृष्ण के भोलेपन की एक और खासियत थी कि वे जीवन को बिना किसी तनाव के बिल्कुल हल्के-फुल्के और मज़ेदार अंदाज में जीते थे. जब जो धुन सवार हो जाती थी, उसे प्रायोगिक तौर पर करके देख लेने का प्रयास करते थे. ऐसी बालसुलभ जिज्ञासा थी जैसे कोई बच्चा आग की चमक से आकर्षित होकर उसे छूने से भी परहेज न करे. बचपन से उन्होंने एक कहावत सुनी थी- लोहार कहते हैं कि ब्राह्मणों को स्वादिष्ट खाना पकाना नहीं आता. प्रायोगिक तौर पर इसका परीक्षण करने के लिए उन्होंने एक लोहार के घर जाकर खाना मांगकर खाया. बाद में रामकृष्ण ने ठठाकर हंसते हुए बताया कि दाल तो अच्छी थी, लेकिन उसमें लोहार की धौंकनी की गंध थी.
धर्म और ईश्वर संबंधी अपनी जिज्ञासाओं को लेकर भी रामकृष्ण पर यही प्रायोगिकता सवार थी. उनके मन में आया कि यदि इस संसार को चलाने वाली सत्ता एक ही है, तो फिर ये वैदिक, इस्लाम और ईसाइयत जैसे अलग-अलग रास्ते क्यों बने हैं. और यदि ये सभी मार्ग सच्चे हैं तो ईश्वर-दर्शन के लिए इनमें से जो रास्ता सबसे आसान है, वही क्यों न लिया जाए. निश्छलता और भोलापन तो उनमें था ही. ऐसे लोगों में जब जिस समय जिस चीज के लिए श्रद्धा उत्पन्न होती है, तो वह भी उतनी ही शुद्ध होती है. इसलिए वे अपनी आध्यात्मिक खोजयात्रा में जब जिसके सान्निध्य में आए, पूरी श्रद्धा और समर्पण भाव से उसके बताए रास्ते पर चल दिए.
इसी क्रम में गोविंद राय नाम के एक सूफी साधक ने उन्हें इस्लाम की ओर प्रेरित किया. वे अन्य मुसलमान साधुओं के संपर्क में भी आए. अल्लाह का नाम उनकी जुबां पर ऐसा चढ़ा कि उन्होंने इस्लाम को आत्मसात कर लिया. वे बाकी सब कुछ भूल गए. उनका बोल-चाल, वेश-भूषा और रहन-सहन पूरी तरह मुसलमानों का सा हो गया. पांचों वक़्त की नमाज और बाकी समय अल्लाह की रटन. इस तरह उन्हें ईश्वर के प्रति एकत्व-बोध की आनंदमय अनुभूति हुई.
इसी तरह मणि मल्लिक नाम के अपने एक भक्त के घर बाइबिल का पाठ सुनकर रामकृष्ण को ईसा मसीह के व्यक्तित्व ने आकर्षित किया. ईसा के त्याग और प्रेम के संदेश ने भी उन्हें बहुत अधिक प्रभावित किया. इसके बाद वे संभवतः कुछ ईसाइयों के संपर्क में भी आए और उनका रवैया बिल्कुल ईसा मसीह की तरह का होने लगा. ईसा के संदेशों को उन्होंने अपने जीवन में इस हद तक आत्मसात कर लिया था कि रोम्या रोलां ने उन्हें ‘ईसा मसीह के छोटे भाई’ की संज्ञा दी.
एक बार तो उन्होंने जन्म से ब्राह्मण होने के अपने अहंकार को नष्ट करने के लिए भी प्रयोग किया. वे तत्कालीन समाज में कथित अछूत माने जानेवाले एक परिवार में पहुंचे और उनके घर दासों की तरह सारा काम करने की आज्ञा मांगने लगे. उस परिवार ने भारी पाप लगने के डर से उन्हें ऐसा करने नहीं दिया. लेकिन जब उस परिवार के लोग रात को सो जाते, तो रामकृष्ण उनके घर में घुस जाते और अपने बड़े-बड़े बालों से ही सारा घर झाड़-बुहार डालते.
इसी तरह रामकृष्ण को वेदांत के माध्यम से यह समझ में आया कि सारे जीव आत्मतत्व हैं और आत्मा के बीच लिंग का कोई भेद नहीं है. अब यह बात उनके मन में समा गई कि स्त्री-पुरुष का भेद तो केवल शरीर के स्तर पर ही है, आत्मा के स्तर पर नहीं. और यदि सचमुच ऐसा है तो मैं ऐसी साधना क्यों न करूं जिससे स्त्री-पुरुष का भेद-भाव ही पूरी तरह से नष्ट हो जाए. फिर क्या था. उन्होंने इसकी प्रायोगिक साधना शुरू कर दी. इसके लिए सबसे पहले उन्होंने अपने आपको पुरुषत्व से उबारना चाहा. रामकृष्ण यह सोचने लगे कि वे स्वयं पुरुष नहीं, बल्कि स्त्री हैं. वे महिलाओं के जैसे ही कप़ड़े पहनने लगे, उन्हीं की तरह बोलने लगे. पुरुषों की तरह का सारा काम छोड़ दिया और महिलाओं के बीच ही जाकर रहने लगे. एक समय ऐसा भी आया जब वे स्त्री-पुरुष का भेद पूरी तरह से भूल गए. लेकिन यह भी एक विचित्र बात थी कि ईश्वर की कल्पना और बाद में उसकी अनुभूति रामकृष्ण ने महिला के रूप में ही की. उनके मुंह से जगदम्बा और मां जैसे संबोधन ही निकलते थे.
अपनी पत्नी सारदामणि को भी वे मां ही कहा करते थे. जब दोनों का विवाह हुआ था तो रामकृष्ण 22 साल के थे और सारदामणि पांच साल कीं. यानी रामकृष्ण से 17 वर्ष की छोटी. सारदामणि को अपने विवाह के बारे में कुछ भी याद न था. हां, इतना जरूर याद था कि विवाह जब हुआ था तब खजूर के फल पकते हैं, क्योंकि विवाह के दस दिनों के भीतर ही वे खजूर के पेड़ों से पके फल चुनने जाया करती थीं. यहां पाठकों को भ्रमित नहीं होना चाहिए कि वह आजकल की तरह का विवाह था. वह उस समय की प्रचलित बाल-विवाह प्रथा के हिसाब से एक संस्कार मात्र था. और स्वयं रामकृष्ण जैसे भोले के लिए तो वह एक खेल के जैसा ही था. और इसमें उन्होंने बच्चों की तरह ही भरपूर दिलचस्पी भी ली थी.
वर्षों बाद जब सारदामणि उनके साथ रहने आईं, तो उनका पति आध्यात्मिक साधना की गहराइयों और ऊंचाइयों को छू रहा था. उसे अपनी पत्नी में भी जगदम्बा के ही दर्शन होते थे. रामकृष्ण सारदामणि को भी मां कहकर ही संबोधित करते थे. सारदामणि को उनका यह व्यवहार एकदम अटपटा लगा, और वे समझ गईं कि लोग ठीक ही कहते हैं कि रामकृष्ण की दिमागी स्थिति सामान्य नहीं है. लेकिन तभी एक बार सारदामणि बीमार पड़ीं और रामकृष्ण ने जिस तरह से उनकी सेवा-सुश्रूषा करके उन्हें स्वस्थ किया उससे सारदामणि को विश्वास हो चला कि रामकृष्ण एक विलक्षण प्रकार के व्यक्ति हैं जिन्हें समझने के लिए स्वयं उनको आध्यात्मिक साधना में उतरना पड़ेगा. फिर उन्होंने पति को ही अपना गुरु मान लिया और वे भी उसी साधना में उतर गईं.
इस तरह रामकृष्ण का सारा जीवन अध्यात्म-साधना के प्रयोगों में बीता. और इसी प्रक्रिया में उन्हें उस सत्य का साक्षात्कार भी हो गया जिसे वे ढूंढ़ते फिर रहे थे. इस बात को वे उतनी ही सरलता और आत्मविश्वास के साथ बताया भी करते थे. वे लगातार कई घंटों तक समाधि में लीन हो जाते थे. चौबीस घंटे में बीस-बीस घंटों तक वे उनसे मिलनेवाले लोगों का दुख-दर्द सुनते और उसका समाधान भी बताते. यही सेवा उनके जीवन का उद्देश्य बन गया था. संग्रह के नाम पर उनके पास कुछ भी न था. अपने शरीर तक से वितृष्णा हो चुकी थी.
रामकृष्ण के सबसे प्रिय शिष्य विवेकानंद ने न्यूयॉर्क की एक सभा में अपने गुरु के बारे में एक ओजपूर्ण व्याख्यान दिया था, जो बाद में ‘मेरे गुरुदेव’ के नाम से प्रकाशित भी हुआ. विवेकानंद ने इसमें कहा था- ‘एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण और आश्चर्यजनक सत्य जो मैंने अपने गुरुदेव से सीखा, वह यह है कि संसार में जितने भी धर्म हैं वे कोई परस्परविरोधी और वैरभावात्मक नहीं हैं- वे केवल एक ही चिरन्तन शाश्वत धर्म के भिन्न-भिन्न भाव मात्र हैं. …इसलिए हमें सभी धर्मों को मान देना चाहिए और जहां तक हो उनके तत्वों में अपना विश्वास रखना चाहिए.’
इसी सभा में विवेकानंद ने आगे कहा- ‘श्रीरामकृष्ण का संदेश आधुनिक संसार को यही है— मतवादों, आचारों, पंथों तथा गिरजाघरों और मंदिरों की अपेक्षा ही मत करो. प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो सार वस्तु अर्थात् ‘धर्म’ विद्यमान है इसकी तुलना में ये सब तुच्छ हैं. पहले इस धर्मधन का उपार्जन करो, किसी में दोष मत ढूंढ़ो, क्योंकि सभी मत, सभी पंथ अच्छे हैं. अपने जीवन के द्वारा यह दिखा दो कि धर्म का अर्थ न तो शब्द होता है, न नाम, न संप्रदाय, बल्कि इसका अर्थ होता है आध्यात्मिक अनुभूति. …जब तुम दुनिया के सभी धर्मों में सामंजस्य देख पाओगे, तब तुम्हें प्रतीत होगा कि आपस में झगड़े की कोई आवश्यकता नहीं है और तभी तुम समग्र मानवजाति की सेवा के लिए तैयार हो सकोगे. इस बात को स्पष्ट कर देने के लिए कि सब धर्मों में मूल तत्व एक ही है, मेरे गुरुदेव का अवतार हुआ था.’
वास्तव में, रामकृष्ण की जीवन-यात्रा और जीवन-संदेशों का इससे सुंदर निचोड़ कुछ भी नहीं निकाला जा सकता, जैसा विवेकानंद ने निकाला है. आज तरह-तरह की हिंसक संघर्षों में फंसी दुनिया को उबारने की ताकत शायद ऐसे ही विचारों में है. लेकिन यह केवल लिखने या बोलने के स्तर भर पर ही कारगर नहीं हो सकता. स्वयं रामकृष्ण ने एक बार कहा था- ‘सांप्रदायिक भ्रातृप्रेम के बारे में बातचीत बिल्कुल न करो, बल्कि अपने शब्दों को सिद्ध करके दिखाओ.’
सौज- सत्याग्रहः लिंक नीचे दी गई है-
https://satyagrah.scroll.in/article/104983/ramakrishna-paramahamsa-life-work-profile