उस मुलाकात के वक्त सैयद हैदर रज़ा साहब की सेहत बेहद नासाज थी, लेकिन चित्रकारी और उसके बहाने खुद को अभिव्यक्त करने को लेकर उनका उत्साह तब भी चरम पर था
जो सैयद हैदर रज़ा के काम में गहरी दिलचस्पी रखते आए हैं उन्होंने एक बात पर गौर किया होगा. वह बात यह कि ‘जो दिखता है वही समझ आता है’ के प्रिज्म से ही पेंटर और उसकी अभिव्यक्तियों को समझने वाले हमारे समाज में रज़ा ने अपनी एब्सट्रेक्ट आर्ट के जरिए एक नयी लीक गढ़ी थी. बिंदु, त्रिकोण, पंचतत्व और पुरुष-प्रकृति जैसे हिंदुस्तानी दर्शन को सैयद हैदर रज़ा ने न सिर्फ नयी-अनोखी अभिव्यक्ति दी थी, बल्कि हिंदुस्तानी मॉडर्न आर्ट को भी अपने नाम के एक पुरोधा से नवाजा था.
मध्य प्रदेश के एक छोटे-से जिले मंडला से अपने जीवन की शुरुआत करने वाले एसएच रज़ा अपनी जवानी के दिनों में ही फ्रांस जाकर बस गए, और उनसे मेरी वह यादगार मुलाकात तब की बात है जब 60 साल बाद वापस हिंदुस्तान आकर बसने का फैसला करने के बाद वे दिल्ली के सफदरजंग डेवलपमेंट एरिया के एक दो-मंजिला फ्लैट में अकेले रहने लगे थे. अपनी तस्वीरों के साये और कुछ सहायकों के सहारे, क्योंकि दिल्ली में यार-दोस्तों का सहारा तो था लेकिन पत्नी का साथ न था.
उनकी पत्नी जेनिन एक फ्रेंच चित्रकार थीं जिनके निधन के बाद ही रज़ा फ्रांस को अलविदा कहकर भारत आए और उस दिन भी यह बताते हुए शून्य में खो गए कि कैसे वे और जेनिन जवानी के दिनों में फ्रांस में एक प्रोफेसर के स्टूडियो में साथ ही पेंटिंग सीखा करते थे और पांच-छह साल तक जेनिन से दूर रहने की कोशिशों के बाद आखिरकार दोनों ने शादी कर ली थी. रज़ा-जेनिन का प्रेम किस्से-कहानियों से वंचित एक कहानी है – उनकी व्यक्तिगत जिंदगी के कई अनसुने किस्सों की तरह, क्योंकि रजा जितना खुलकर अपनी पेंटिंग्स पर बात किया करते थे उतना ही कम निजी जिंदगी पर – लेकिन आग्रह करके पूछने पर उन्होंने मुस्कुराकर जेनिन के बारे में इतना जरूर कहा था, ‘काजल की कोठरी में कैसो ही सुहानो जाए, एक लकीर काजल की लागे है सो लागे है’.
उस वक्त उनकी उम्र 89 थी और साल 2011 था. एक इंटरव्यू के सिलसिले में हुई उस मुलाकात के वक्त उनकी सेहत बेहद नासाज थी और बेहद धीमे-धीमे बोलने के अलावा वे सहारे से ही चल-बैठ पाते थे. लेकिन चित्रकारी को लेकर और खुद को उसके बहाने अभिव्यक्त करने को लेकर उनका उत्साह तब भी चरम पर था. सफेद रंग से पुती दीवारों वाले कमरे में कुछ दिनों पहले ही उनके द्वारा पूरा किया एक विशाल बिंदु सजा था और वे उसके व बिंदु पीताम्बर के साथ ऐसे उत्साह में तस्वीरें खिंचवा रहे थे जैसे कोई नौजवान चित्रकार पहली दफा मनमाफिक पेंटिंग बन जाने पर उत्साही हुआ जा रहा हो. हर तरफ रंग और ब्रश बिखरे हुए थे और उनके बनाए चित्र टिके हुए थे. लेकिन सिर्फ दीवारों पर फ्रेम के अंदर नहीं, जमीन और दीवार की मिलीजुली टेक लेकर ताजे रंगों की खुशबू बिखेरते पिछले ही दिनों-महीनों में तैयार हुए कुछ पूरे तो कुछ अधूरे चित्र. सनद रहे, यह एक 89 वर्षीय बुजुर्ग और शारीरिक रूप से थक चुके चित्रकार का कमरा था, जिसमें रंगों को रखने के काम आने वाला लकड़ी का स्टूल भी इतना रंग-बिरंगा था कि लगता था जैसे रजा ने मस्ती के किन्हीं अनमोल क्षणों में उसे जिंदगी की सबसे चटख रंगीनियत का तोहफा दे दिया हो.
‘लोगों को यह भी समझना चाहिए कि जो पेंटिंग मैं अपने स्टूडियो में बेचता हूं वो करोड़ों में नहीं बिकती. कुछ हजार या लाख में बिकती है और लंदन या न्यूयॉर्क के अंतर्राष्ट्रीय नीलामघरों में करोड़ों में बिकने वाले मेरे ही चित्रों से मुझे करोड़ों नहीं मिलते!’
यह उन दिनों की भी बात है जब उनकी 1983 में बनी सात फीट लंबी पेंटिंग ‘सौराष्ट्र’ को क्रिस्टी नीलामघर में 16 करोड़ से ज्यादा में खरीदा गया था, 2010 में, और हर तरफ एक भारतीय चित्रकार के महंगे-मूल्यवान चित्रकार होने के चर्चे हो रहे थे. लेकिन रज़ा (जिनकी 1973 में बनी एक दूसरी पेंटिंग साल 2014 में 18 करोड़ से ज्यादा में बिकी) इस उपलब्धि से ज्यादा अभिभूत नहीं थे. बिना गुस्से का इजहार किए उन्होंने कहा था, ‘बेकार की बातों को लोग ज्यादा वक्त देते हैं. कोई चित्रकार के काम की बात नहीं करता. वह पेंटिंग सौराष्ट्र को देखने का मेरा नजरिया था जिसमें मैंने राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश के रंग भरे थे. वो एक अच्छी पेंटिंग है, लेकिन मेरी अब तक की बनाई सबसे अच्छी पेंटिंग नहीं. दूसरे, लोगों को यह भी समझना चाहिए कि जो पेंटिंग मैं अपने स्टूडियो में बेचता हूं वो करोड़ों में नहीं बिकती. कुछ हजार या लाख में बिकती है और लंदन या न्यूयॉर्क के अंतर्राष्ट्रीय नीलामघरों में करोड़ों में बिकने वाले मेरे ही चित्रों से मुझे करोड़ों नहीं मिलते!’
रज़ा और उनका सबसे मशहूर और पसंद किया काम बिंदु आधारित रहा है. दोनों एक-दूसरे के उसी तरह पर्याय रहे हैं जैसे राजा रवि वर्मा के लिए उनके देवी-देवताओं वाले चित्र. लेकिन एक बड़े से कैनवास पर अनेकों रंगबिरंगी गोलाकार धारियों के बीच बने काले शून्य का क्या अर्थ है, यह आम आदमी के लिए समझना आसान नहीं होता और इसीलिए उस दिन भी हमने उनके चित्रों को समझने के लिए उनकी ही मदद ली थी. आखिर क्या है बिंदु? रज़ा के शब्दों में, ‘बिंदु एक केंद्र है जिसके ऊपर मानसिक शक्तियों को केंद्रित किया जाता है. बिंदु से ही टाइम निकलता है और स्पेस भी. पंचतत्व निकलते हैं और अलग-अलग रंग भी. साथ ही भटकाव से बचने के लिए बिंदु के माध्यम से मन को एक ही दिशा में केंद्रित करके ईश्वर और पवित्र विचार की तरफ जाया जा सकता है. 1970 के दौर में जब मैं बहुत बेचैन था, तब बिंदु के करीब आया. अजंता-एलोरा, बनारस, गुजरात, राजस्थान घूमा और इसकी खोज मैंने स्वयं की. यह मेरी खुद की यात्रा थी और उस दौरान मुझे आश्चर्य भी हुआ कि बिंदु, पंचतत्व और पुरुष प्रकृति जैसे अद्धुत विचारों को अभी तक किसी ने चित्रों में क्यों नहीं उतारा.’
रज़ा के चित्रों में इसी तरह भारतीय दर्शन की झलक दिखाने के लिए त्रिकोण भी आया जो स्त्री और पुरुष को परिभाषित करता है. बकौल रजा, ‘मेरे चित्रों में अकसर दो त्रिभुज एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं जो कि स्त्री और पुरुष को दर्शाते हैं. पचास स्त्रियों और पुरुषों को प्रेम करते हुए दिखाने के बजाय मैं एब्सट्रेक्ट जियोमैट्री के माध्यम से उन्हें त्रिभुज के तौर पर दर्शाता हूं.’ यह पूछने पर कि उन्होंने अपने करियर की शुरुआत में हिंदुस्तान के बंटवारे का दर्द बयां करतीं ‘सिटीस्केप’ (1946) और ‘बारामूला इन रूइन्स’ (1948) जैसी कई यथार्थवादी पेंटिंग बनाईं लेकिन अब क्यों नहीं, का जवाब भी रजा ने बड़े ही रोचक अंदाज में दिया था, ‘अब जो व्यक्तिगत पीड़ाएं हैं उनको मैं अपनी कला में ला ही नहीं सकता. सभी मनुष्यों के सामूहिक विचार और पीड़ा को अपनी पेंटिंग में कैद कर सकता हूं लेकिन किसी एक के विचार या पीड़ा को कैनवास पर उभारना अब मेरे लिए मुश्किल है.’
असली और नकली पेंटिंग के बीच फर्क करने में नाकाम रहने वाले कला-प्रेमियों के बारे में भी रज़ा ने एक दिलचस्प वाकया साझा किया था. ‘भारत लौटने के बाद मैं एक बार अपने चित्रों की एक प्रदर्शनी में गया. 24 चित्र थे मेरे वहां, और सभी नकली! मेरे बताने से पहले न तो गैलरी मालिक को इसका पता था और न ही वहां आकर तस्वीरों को निहार रहे कला-प्रेमियों को इसकी जरा सी भी भनक.’
‘मेरे चित्रों में अकसर दो त्रिभुज एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं जो कि स्त्री और पुरुष को दर्शाते हैं. पचास स्त्रियों और पुरुषों को प्रेम करते हुए दिखाने के बजाय मैं एब्सट्रेक्ट जियोमैट्री के माध्यम से उन्हें त्रिभुज के तौर पर दर्शाता हूं’
रजा ने इस व्यक्तिगत सवाल का जवाब भी बहुत खूब दिया कि कई दूसरे प्रसिद्ध हिंदुस्तानी चित्रकारों की तरह (एमएफ हुसैन, राजा रवि वर्मा, अमृता शेरगिल), उन्होंने पेंटिंग की उन विधाओं को क्यों नहीं अपनाया जिसमें बनी आकृतियों के सहारे आम जनता के लिए चित्रों को समझना और उनसे तुरंत जुड़ाव महसूस करना आसान होता है. ‘हम भारतीयों का जो देखने का तरीका होता है, वो सिर्फ आंखों से देखना नहीं होता. आंखों से देखना, हृदय में उतारना और बुद्धि का उपयोग करके उसे कैनवास पर उकेरना. जब हृदय और बुद्धि का संगम होता है न, तब वह रियलिज्म से हटकर कुछ और हो जाता है. आजादी के बाद हमारे यहां अंग्रेजों की वजह से चित्रकारों ने यूरोपियन रियलिज्म को जरूरत से ज्यादा हाथों-हाथ लिया था. वो विधा कहती है कि जो कुछ भी आंखों से दिख सके उसे ही कैनवास पर उतारने का नाम कला है. लेकिन भारतीय चित्रकार का ध्येय यह नहीं है. उसका लक्ष्य तो यह है कि आंखों से देखो, मन से सोचो और दोनों को मिलाकर जो बाहर निकले उसे चित्र में सामने लाओ. आप अजंता-एलोरा देखिए, आदिवासी चित्रकला देखिए, गांवों की कला देखिए, उसमें यूरोपियन रियलिज्म नहीं होता. और इसी वजह से वह इतनी खूबसूरत होती है.’
यकीनन, इसीलिए सैयद हैदर रजा के चित्र भी समय के अंधड़ में कभी धूल नहीं खाने वाले. और जब तक हम यह जानने-समझने की कोशिश करते रहेंगे कि एक बेहद लंबे करियर में रजा ने क्या-क्या उकेरा, और उनके चित्रों में क्या-कितना भारतीय था और क्यों था, तब तक यह भारतीय चित्रकार अपने चित्रों द्वारा हमेशा अमर बना रहेगा. आमीन!
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