शहादत दिवस : कैसा था भगत सिंह के सपनों का भारत?

रविकान्त

 ‘मुझे फाँसी हो जाने के बाद मेरे क्रांतिकारी विचारों की सुगंध हमारे इस मनोहर देश के वातावरण में व्याप्त हो जाएगी। वह नौजवानों को मदहोश करेगी और वे आज़ादी और क्रांति के लिए पागल हो उठेंगे। नौजवानों का यह पागलपन ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को विनाश के कगार पर पहुँचा देगा। यह मेरा दृढ़ विश्वास है। मैं बेसब्री के साथ उस दिन का इंतज़ार कर रहा हूँ जब मुझे देश के लिए मेरी सेवाओं और जनता के लिए मेरे प्रेम का सर्वोच्च पुरस्कार मिलेगा।’

जुलाई 1930 के अंतिम रविवार को बोर्स्टल जेल में अपने तमाम कैदी साथियों से आपसी बातचीत में भगत सिंह ने ये शब्द कहे थे। एक साल के भीतर 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को अंग्रेज़ सरकार ने फांसी दे दी। तीनों वीर देशभक्त हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को चूमकर ‘भारतमाता की जय’ कहते हुए आज़ादी की बलिवेदी पर क़ुर्बान हो गये।

भगत सिंह के विचार

आज शहीदों को याद करने का दिन है। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत को नब्बे साल हो गये हैं। इन अमर शहीदों को नमन! आज का दिन केवल उनकी शहादत, स्मृति और जीवन को ही याद करने का दिन नहीं है, बल्कि उनके विचारों और उनके सपनों को भी याद करने का दिन है।

भगत सिंह पूछते हैं कि क्या फर्क पड़ेगा कि गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेज़ सत्ता में आ जाएंगे। लार्ड इर्विन की जगह अगर सर तेज बहादुर सप्रू आ जाएंगे तो क्या फ़र्क पड़ेगा? इसलिए राजनीतिक आज़ादी के साथ साथ आर्थिक और सामाजिक आज़ादी भी ज़रूरी है।

केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन की ज़रूरत है। असमानता और भेदभाव से मुक्ति ज़रूरी है।राष्ट्रमुक्ति का उद्देश्य जनमुक्ति है। देश के लाखों-करोड़ों ग़रीब, किसान, मज़दूर, दलित, सभी कमज़ोर तबक़ों की मुक्ति ही असली आज़ादी होगी।

गवर्नर को भगत सिंह की चिट्ठी

फाँसी से तीन दिन पहले पंजाब के गवर्नर को लिखे एक पत्र में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने उन्हें फाँसी के बजाय युद्धबंदी की तरह बंदूक़ से उड़ाए जाने की माँग करते हुए लिखा था : 

यह युद्ध तब तक चलता रहेगा, जब तक कि शक्तिशाली व्यक्ति भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार जमाए रखेंगे, चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज़ पूँजीपति, अंग्रेज़ शासक अथवा सर्वथा भारतीय हों।

भगत सिंह ने इसके आगे कहा, ‘इन लोगों ने आपस में मिलकर लूट जारी कर रखी है। यदि शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का ख़ून चूसा जा रहा हो तब भी इस स्थिति में कोई फ़र्क नहीं पड़ता।’

पत्र के अंत में वह विश्वासपूर्वक एलान करते हैं कि ‘निकट भविष्य में यह युद्ध अंतिम रूप से लड़ा जाएगा और तब यह निर्णायक युद्ध होगा। साम्राज्यवाद और पूँजीवाद कुछ समय के मेहमान हैं।’

सवाल यह है कि क्या आज़ाद भारत में क्रांतिकारियों के सपने को पूरा करने का प्रयत्न किया गया है। उनके समाजवादी भारत बनाने के विचार को सरकारों ने कितना आगे बढ़ाया है?

ख़ूनी संघर्ष

भगत सिंह और उनके साथी चाहते थे कि मुक़दमे की सुनवाई के दौरान उनके विचार जनमानस तक पहुँचें। अदालत में जब भगत सिंह से पूछा गया कि क्रांति शब्द का उनके लिए क्या मतलब है। उनका जवाब था : 

क्रांति के लिए ख़ूनी संघर्ष अनिवार्य नहीं है, और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा का कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है।

भगत सिंह ने कहा, ‘क्रांति से हमारा अभिप्राय यह है कि वर्तमान व्यवस्था, जो खुले तौर पर अन्याय पर टिकी हुई है, बदलनी चाहिए।…क्रांति से हमारा अभिप्राय अन्ततः एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना से है जिसको इस प्रकार के घातक ख़तरों का सामना न करना पड़े और जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता को मान्यता हो तथा एक विश्वसंघ मानवजाति को पूँजीवाद के बंधन से और साम्राज्यवादी युद्धों से उत्पन्न होने वाली बरबादी और मुसीबतों से बचा सके।’

दरअसल भगत सिंह एक ऐसी दुनिया का सपना देखते थे जो शोषण, अन्याय, असमानता, अंधविश्वास और अज्ञानता से मुक्त हो। उसमें समता, न्याय और भाईचारा हो।

नास्तिक भगत सिंह

‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ लेख में भगत सिंह लिखते हैं,  ‘ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने जब अपनी कमियों और कमजोरियों पर विचार करते हुए अपनी सीमाओं का अहसास किया तो मनुष्य को तमाम कठिन परिस्थितियों का साहसपूर्वक सामना करने और तमाम ख़तरों के साथ वीरतापूर्वक जूझने की प्रेरणा देने वाली तथा सुख समृद्धि के दिनों में उसे उच्छृंखल हो जाने से रोकने और नियंत्रित करने वाली सत्ता के रूप, ईश्वर की कल्पना की।’

भगत सिंह दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि ‘निरा विश्वास और अन्धविश्वास ख़तरनाक है, इससे मस्तिष्क कुण्ठित होता है और आदमी प्रतिक्रियावादी हो जाता है।’

धर्म की संकीर्णता और कट्टरता को भगत सिंह बारीकी से देख रहे थे। अंग्रेज़ों ने भारत में धर्म को राजनैतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। इसके नतीजे में कई बार हिन्दू, मुसलिम और सिखों के बीच ख़ूनी दंगे हुए।

सांप्रदायिक दंगे

भगत सिंह ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ लेख में कहते हैं कि ‘ऐसी स्थिति ( दंगों ) में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अंधकारमय नज़र आता है। इन धर्मों ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है, और अभी पता नहीं कि ये धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे।’

क्या भगत सिंह की चिंता और आशंका आज भी सच साबित नहीं हो रही है? आज़ादी के आंदोलन में हिन्दू महासभा और मुसलिम लीग की सांप्रदायिक राजनीति ने देश का बँटवारा करा दिया। लाखों लोगों की जानें गयीं। करोड़ों बेघर हो गये। हिन्दुस्तान विभाजित हुआ तो दो दुश्मन देश भारत और पाकिस्तान बने।

इसके अलावा भारत और पाकिस्तान में रह रहे अल्पसंख्यकों को तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। स्वतंत्र भारत में भी सांप्रदायिक दंगों का सिलसिला रुका नहीं है। विभाजन को लेकर कई तरह के विचार हैं। लेकिन यह बात ग़ौरतलब है कि अगर भगत सिंह जीवित रहते तो देश का बंटवारा हरगिज नहीं होता। आज भी भगत सिंह एकमात्र ऐसे आंदोलनकारी हैं जिन्हें भारत और पाकिस्तान दोनों मुल्कों में बराबर का सम्मान हासिल है।

लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं।ये उनके निजी विचार हैं। सौज- सत्यहिन्दी

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