2021-22 के बजट में स्वास्थ्य के क्षेत्र में 137 फीसद बढ़ोतरी का बहुत लंबा-चौड़ा दावा किया गया है। जबकि वास्तव में 2021-22 के बजट में स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण विभाग के लिए बजट प्रावधान में, 2020-21 के वास्तविक खर्च के मुकाबले, 9.6 फीसद की कटौती ही हुई है।
कोविड-19 के संक्रमणों की दूसरी लहर के सामने आने के साथ, भारत के सामने बहुत ही खतरनाक स्थिति आ खड़ी हुई है। 4 अप्रैल को नये संक्रमणों का आंकड़ा एक लाख से ऊपर निकल गया और एक दिन में दर्ज हुए नये केसों की संख्या 1,03,709 पर पहुंच गयी। इसके दो दिन बाद, 6 अप्रैल को यह आंकड़ा अब तक के अपने सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गया और 1,15,232 नये केस दर्ज हुए। यह दुनिया भर में एक दिन के केसों की सबसे बड़ी संख्या है। मृत्यु दर भी बढ़ रही है।
यह कहना कि सरकार संक्रमणों में इस उछाल के लिए तैयार नहीं थी, स्थिति की भयावहता तो बहुत कम कर के बताना होगा। तैयार होना तो दूर रहा उल्टे मोदी सरकार तो इस तरह से आचरण कर रही थी जैसे जनवरी से ही भारत इस महामारी से उबर चला हो और आर्थिक बहाली के तेजी से बहाली का भरोसा जताया जा रहा था।
बहरहाल, स्वास्थ्य के मोर्चे पर भी और आर्थिक संकट के दौरान जनता को राहत मुहैया कराने के मोर्चे पर भी, मोदी सरकार पूरी तरह से लापरवाह साबित हुई है। 2021-22 का बजट भी इसी को अभिव्यक्त करता है। इस बजट में स्वास्थ्य के क्षेत्र के लिए आवंटन में 137 फीसद बढ़ोतरी का बहुत ही लंबा-चौड़ा दावा किया गया है जबकि वास्तव में 2021-22 के बजट में स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण विभाग के लिए बजट प्रावधान में, 2020-21 के वास्तविक खर्च के मुकाबले, 9.6 फीसद की कटौती ही हुई है।
सरकार ने टीकाकरण की जिस तरह की नीति बनायी है, वह भी परस्परविरोधी तथा चकराने वाली है। अब तक देश में आपातकालीन उपयोग के लिए दो ही टीकों का अनुमोदन किया गया है–आस्ट्राजेनेका का कोवीशील्ड और भारत बायोटेक का कोवैक्सीन। जहां बाद वाले टीके को तीसरे चरण के ट्राइल के हिस्से के तौर पर उपयोग की इजाजत दी गयी थी, नियमनकारी निकाय ने अब तक रूसी टीके, स्पूतनिक के लिए मंजूरी नहीं दी है। इस टीके का दुनिया में 35 देशों में इस्तेमाल किया जा रहा है, लेकिन उसके भारतीय कंपनी द्वारा निर्माण की इजाजत ही नहीं दी गयी है।
टीकों की आपूर्ति पहले ही कम पड़नी शुरू हो गयी है। जिन राज्यों में इस समय संक्रमणों में सबसे ज्यादा तेजी नजर आ रही है, वहां टीके के भंडार तेजी से खाली होते जा रहे हैं। यह तब है जबकि 1 अप्रैल से 45 वर्ष से ऊपर के सभी लोगों को टीका लगाना शुरू हो चुका है। बढ़ती रफ्तार के साथ टीकाकरण की तैयारी करने तथा उसे अंजाम देने में नाकामी आंखें चौंधियाने वाली है।
सरकार को न सिर्फ फौरन स्पूतनिक का उपयोग सुनिश्चित करना चाहिए बल्कि जान्सन एंड जान्सन के जैसे टीकों के उत्पादन के लिए लाइसेंस भी हासिल करना चाहिए, जो एक ही खुराक में लगने हैं। कोवोवैक्स की ही तरह, सीरम इंस्टीट्यूट द्वारा बनाए जाने वाले नोवावैक्स टीके के मामले में भी तेजी लायी जानी चाहिए। केंद्र सरकार को केंद्र-प्रायोजित योजना–आत्मनिर्भर स्वस्थ भारत योजना–के लिए फौरन पैसा भी मुहैया कराना चाहिए। यह योजना प्राइमरी, सेकेंडरी तथा टर्शियरी स्वास्थ्य रक्षा प्रणालियों तथा अन्य सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में क्षमताओं के विकास के लिए तैयार की गयी है। हालांकि, इस योजना पर छ: वर्ष की अवधि में 64,180 करोड़ रु खर्च किए जाने का एलान किया गया है। इसके लिए बजट में कोई आवंटन ही नहीं किया गया है। इस योजना को फौरन अमल में लाया जाना चाहिए क्योंकि सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करने को प्राथमिकता देना जरूरी है।
सरकार द्वारा वी अक्षर के आकार की आर्थिक बहाली की जो चमकीली तस्वीर पेश की जा रही है, उसके विपरीत यह स्वत:स्पष्ट है कि आर्थिक वृद्धि रुक-रुक कर हो रही है और वह अटक भी सकती है। अर्थव्यवस्था के कोर सेक्टर में, जिसमें आठ प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र आते हैं, छ: महीनों में सबसे भारी संकुचन दर्ज हुआ है। कोविड-19 की दूसरी लहर आने से पहले ही विनिर्माण उत्पाद सात महीने के अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुका था। अब जबकि संक्रमणों में तेजी के चलते रात के कर्फ्यू, सप्ताहांत पर लॉकडाउन तथा आवाजाही पर रोकटोक जैसी पाबंदियां दोबारा लगायी जा रही हैं, आर्थिक गतिविधियों पर ठंडा पानी पडना तय है। हालांकि, पूर्ण लॉकडाउन से अभी तक बचा जा रहा है फिर भी महाराष्ट्र जैसे राज्यों में संक्रमणों की बढ़ती संख्या और अब तक लगायी गयी सीमित पाबंदियों का भी असर खुदरा व्यापार, रेस्टोरेंटों तथा होटलों आदि पर दिखाई भी देने लगा है। सेवाओं के क्षेत्र मेें रोजगार पर कुल्हाड़ा चलने से मजदूरों का अपने गांवों की ओर पलायन भी दोबारा शुरू हो गया है।
मोदी सरकार महामारी की पहली लहर के दौरान ही संकट की मारी जनता की जरूरतों का ख्याल रखने के मामले में पूरी तरह से लापरवाह साबित हुई थी। उसने जिन राजकोषीय उत्प्रेरण पैकेजों की घोषणा की है, अतिरिक्त खर्च के पहलू से जीडीपी के 1.5 फीसद के बराबर भी मुश्किल से ही बैठते हैं। अमरीका, यूके तथा योरपीय यूनियन के देशों के विपरीत जहां नागरिकों को खासे बड़े पैमाने पर नकद सब्सिडियां दी गयी हैं, मोदी सरकार की नकद सहायता तो नगण्य रही ही है। उसने छोटे कारोबारियों तथा लघु उत्पादकों को कोई सहायता ही नहीं दी है। भूखे पेट और सिर पर छत से महरूम, लाखों प्रवासी मजदूर–स्त्री-पुरुष-बच्चों–के राजमार्गों पर पैदल सैकड़ों किलोमीटर घिसटते चले जाने का दु:स्वप्न, महामारी पर इस सरकार के प्रत्युत्तर की निर्ममता तथा अमानवीयता की तस्वीर बनकर लोगों के मन-मष्तिष्क में छप गया है।
सिर पर मंडराते संकट का मुकाबला करने के लिए अब सरकार को ठोस कदम उठाने होंगे। पहला कदम तो यही सुनिश्चित करना है कि हरेक परिवार को हर महीने 35 किलोग्राम अनाज मुहैया कराया जाए और इसमें 10 किलोग्राम मुफ्त हो। पहले सरकार ने इसका एलान किया था कि खाद्य सुरक्षा कानून के दायरे में आने वाले 80 करोड़ लोगों को 5 किलोग्राम चावल/ गेहूं और एक किलोग्राम दाल, मुफ्त दिए जाएंगे। बहरहाल, इसे 2020 के नवंबर तक ही जारी रखा गया।
1 मार्च 2021 को भारत के पास 9.2 करोड़ टन अनाज का (जिसमें बिना कुटा धान भी शामिल है) विशाल बफर स्टॉक जमा था। यह जरूरी बफर स्टॉक से तीन गुना ज्यादा है। सरकार को कम से कम अगले छ: महीने के लिए मुफ्त खाद्यान्न का कोटा बढ़ाकर प्रति परिवार 10 किलोग्राम कर देना चाहिए।
सभी विपक्षी पार्टियों ने 2020 के सितंबर में मांग की थी कि आयकर की रेखा से नीचे के सभी परिवारों को 7,500 रु0 प्रति माह की नकद सहायता दी जाए। लेकिन, सरकार ने महिला जनधन खाता धारकों को तीन मासिक किश्तों में सिर्फ 1,500 रु दिए थे। महामारी के लंबा खिंचने को देखते हुए, केंद्र सरकार को सभी परिवारों को नकद सब्सिडी मुहैया करानी चाहिए।
अब जबकि रोजगार का संकट लगातार बढ़ रहा है, मनरेगा योजना का विस्तार कर, बढ़ी हुई मजदूरी के साथ, साल में कम से कम 200 दिन का रोजगार सुनिश्चित किया जाना चाहिए। जब तक यह नहीं किया जाता है, राज्यों में मुहैया कराए जाने वाले काम के दिनों के लिए, मजदूरी के भुगतान के वास्ते पर्याप्त आवंटन किया जाना चाहिए। सरकार को फौरन एक शहरी रोजगार गारंटी योजना का एलान करना चाहिए, ताकि शहरी बेरोजगारों को कुछ राहत मुहैया करायी जा सके।
सूक्ष्म, लघु तथा मध्यम उद्यम (एमएसएमई) के क्षेत्र में 11 करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है। इसी क्षेत्र पर महामारी और उसके नतीजों की सबसे बुरी मार पड़ी है। अब तक इस क्षेत्र के सिलसिले में उठाए गए कदम पूरी तरह से अपर्याप्त हैं। सरकार को ऋण संबंधी भुगतानों पर रोक को आगे बढ़ाने के अलावा बकाया ऋणों पर ब्याज माफी देनी चाहिए और कच्चे माल खरीदने के सब्सीडी देनी चाहिए तथा सहायता देने के लिए अन्य कदम उठाने चाहिए।
जाहिर है कि इस सब के लिए, बजट में जो व्यवस्था की गयी है, उससे कहीं ज्यादा सरकारी खर्च करना होगा। सरकार को हठपूर्वक राजकोषीय घाटे की सीमाओं से चिपटे नहीं रहना चाहिए और सार्वजनिक खर्चों को बढ़ाने के लिए ऋण लेने का सहारा लेना चाहिए। पुन: उसे कॉर्पोरेट व अति-धनिकों पर कर बढ़ाने चाहिए और संपत्ति कर लगाना चाहिए। दूसरी ओर, राजस्व जुटाने के लिए पेट्रोलियम उत्पादों पर भारी कर लगाने पर नुकसानदेह निर्भरता से उसे बाज आना चाहिए।
बेहतर होगा कि केंद्र सरकार दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों में केरल ने जो किया है, उसे देश भर में कर दिखाने को लक्ष्य बनाए। पहला, केरल में कोविड के संक्रमण की चपेट में आने वालों में 95 फीसद को सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के जरिए मुफ्त उपचार हासिल हुआ है। दूसरे, एलडीएफ सरकार ने महामारी के पूरे दौर में 88 लाख परिवारों को भोजन के किट मुफ्त मुहैया कराए हैं। इस किट में सिर्फ अनाज ही नहीं है बल्कि इसमें दालों, खाने-पकाने के तेल और मसालों को भी शामिल किया गया है।
इस सार्वजनिक स्वास्थ्य इमर्जेंसी से निपटने और जनता को आर्थिक संकट से बचाने के लिए जरूरी आर्थिक नीतिगत कदम उठाने के बजाए, मोदी सरकार इस संकट का फायदा उठाकर नवउदारवादी कदमों को ही आगे बढ़ाने में लगी हुुई है। ताकि कार्पोरेटों तथा वित्तीय कुलीनतंत्र के स्वार्थों को आगे बढ़ा सके। कृषि कानून, नये श्रम कोड तथा सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के निजीकरण के साथ, उसकी जहरीली सांप्रदायिक राजनीति का मेल बखूबी बैठता है। देश की खातिर, इस घातक रास्ते को रोका जाना चाहिए। सरकार का सारा ध्यान, महामारी से निपटने और जनता के कल्याण पर ही होना चाहिए।
सौज- न्यूजक्लिक