भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान न्यायदर्शन के साथ-साथ वर्षों से उनके पेशेवर कार्यकलापों को रेखांकन करते हुए मानवाधिकार कार्यकर्ता और वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह 47 वें सीजेआई के रूप में न्यायमूर्ति एसए बोबडे की जटिल विरासत पर नज़र डाल रही हैं और उन्हें एक ऐसे ग़ैर-परंपरागत न्यायायिक अधिकारी के तौर पर रेखांकित करती हैं, जिन्होंने वादा तो बहुत कुछ किया था, लेकिन दे बहुत कम पाए और उनसे लोगों को निराशा हुई।
भारत के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश एस.ए.बोबडे वकालत के पेशे से जुड़े ऐसे परिवार से आते हैं, जिसका इस पेशे से जुड़ाव बहुत लम्बे समय से रहा है; उनके बेटे और बेटी पांचवीं पीढ़ी के वकील हैं! जस्टिस बोबडे के पूर्वजों ने बतौर वकील अंग्रेज़ी हुक़ूमत के दौरान अपनी सेवायें दीं, और इसके बाद महाराष्ट्र के सत्ताधारी राजनीतिक दलों के लिए काम किया। उनके पिता महाराष्ट्र के एडवोकेट जनरल यानी महाधिवक्ता थे, और उनके भाई, दिवंगत विनोद बोबड़े, एक बेहद सम्मानित वकील थे और एस.ए.बोबडे जब किसी परिदृश्य में नहीं थे, तब वह भारत के सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करते थे। इस तरह, उनका परिवार इस बात का द्योतक है कि हमारे देश में कानूनी पेशे का विकास किस तरह हुआ है।
जस्टिस बोबडे ज़ाहिर है कि अपने समय के ही उत्पाद हैं, और उनका विकास हमारे राष्ट्र की राजनीति का भी प्रतिनिधित्व करता है। भारत में कानूनी पेशे और न्यायपालिका को लेकर उनकी वंश परंपरा भी बहुत कुछ कहती है, क्योंकि उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की भर्ती अक्सर कानून के पेशे से जुड़े परिवारों के बीच से ही की जाती रही है। इस समय, वाजिब समय आने पर-शायद 2027 में किसी महिला को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करने की योजना पर काम चल रहा है। सीजेआई ने अदालत में हाल ही में हुई जनसुनवाई में इस बात का उल्लेख किया था कि किसी महिला का सीजेआई बनने का यह सही समय है।
सुनंदा भंडारे मेमोरियल लेक्चर को संबोधित करते हुए न्यायमूर्ति नरीमन ने यह भी घोषणा की थी कि इस तरह की नियुक्ति के लिए एकदम सही समय है।
ज़ाहिर है, न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में लैंगिक न्याय वक़्त का ताकाज़ा है और ऐसा बहुत ही जल्दी होना है, क्योंकि न्यायपालिका अब अपने एजेंडे के रूप में इसकी मांग कर रही है। शायद जस्टिस बोबडे ने इसे कुछ इसी तरह से देखा था, जो उनकी विरासत का हिस्सा हो सकता था, लेकिन जाहिर है कि ऐसा नहीं होना था, क्योंकि किसी महिला जज की तो बात ही छोड़ दें, नके कार्यकाल के दौरान तो सुप्रीम कोर्ट में एक भी जज की नियुक्ति नहीं हुई।
इस बात की अटकलें लगायी जा रही हैं कि इस समय कर्नाटक हाई कोर्ट में बतौर न्यायमूर्ति कार्य कर रहीं बी.वी.नागरत्न को सुप्रीम कोर्ट लाया जाये और पहली महिला सीजेआई बनाये जाने की वही पहली पसंद हैं। इसका मतलब यह कत्तई नहीं है कि हमें न्यायपालिका में ज़्यादा से ज़्यादा महिला प्रतिनिधित्व की ज़रूरत नहीं है।
आखिरकार, हक़ीक़त तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट में इस समय 29 न्यायाधीश हैं, जिनमें में से सिर्फ़ एक महिला न्यायाधीश है, और हाई कोर्टों में कुल मिलाकर 1079 न्यायाधीश हैं, जिनमें महज़ 82 महिला न्यायाधीश हैं। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में अपनी सेवायें देने वाले 218 जजों में से सिर्फ़ सात महिला जजें रही हैं।
ज़ाहिर है कि उच्चतर न्यायपालिका में महिलाओं के ख़िलाफ़ जो भेदभाव मौजूद है, उसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। हालांकि, सांकेतिक नियुक्तियां, वह भी वंश परंपराओं से होने वाली नियुक्तियां उन्हें आगे बढ़ने की राह की रुकावटों को ख़त्म करने के लिहाज़ से नाकाफ़ी हैं।
वंश परंपरा मायने रखती है: न्यायमूर्ति नागरत्न पूर्व सीजेआई की बेटी हैं और उच्च जाति से आती हैं। अगर वह नियुक्त हो जाती है, तो वह भारत की उच्च जाति से आने वाले मुख्य न्यायाधीशों की लंबी फ़हरिस्त में से एक और मुख्य न्यायाधीश जुड़ जायेंगी।
यह इस बात का द्योतक है कि उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में किस तरह अवसर की समानता नहीं है।
अवसर की सच्ची समानता तो तभी आयेगी, जब सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों में न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर पात्रता वाले सभी व्यक्तियों के तरफ़ से दिलचस्पी दिखाने को आमंत्रित किया जाये, इसके बाद विशेषज्ञों के निष्पक्ष पैनल द्वारा उनका मूल्यांकन किया जाये, और इस पूरी कार्यवाही को सार्वजनिक किया जाये।
कई न्यायविदों ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का विरोध किया था, और वे यह मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने साहसिक रूप से अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए इसे ख़त्म करके सही किया है। लेकिन, इसकी जगह हम सर्वोच्च न्यायालय कोलेजियम द्वारा एकतरफ़ा नामांकन की गुप्त पद्धति और नियुक्तियों को नियंत्रित करने वाले केंद्र सरकार की तरफ़ से नामांकित कुछ लोगों के वीटो का इस्तेमाल करने के चलते पिछली व्यवस्था पर फिर से लौट आये हैं।
सीजेआई बोबडे के कार्यकाल पर एक नज़र
सुप्रीम कोर्ट के शीर्ष पद पर रहते हुए उनके कार्यकाल के बारे में जो कुछ कहा जाना चाहिए, उसके बारे में पहले ही बहुत कुछ कहा जा चुका है। नागरिकता संशोधन अधिनियम और भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 में संशोधन की चुनौती, उनके कार्यकाल में इस शीर्ष अदालत में विचाराधीन मामलों की बढ़ती संख्या, अदालत कक्ष में उनकी देर से पहुंचने की चर्चायें, नये कृषि क़ानूनों के सिलसिले में उनके अजीब-ओ-ग़रीब आदेश सहित सर्वोच्च सार्वजनिक महत्व के मामलों को सूचीबद्ध करने में सुप्रीम कोर्ट की विफलता, ये तमाम ऐसे मामले रहे, जिन पर इनके कार्यकाल के दौरान लोगों का ध्यान गया।
न्यायमूर्ति एस.ए.बोबडे ने 19 नवंबर, 2019 को भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के रूप में शपथ ली थी।
सचाई तो यही है कि उन्होंने उस आंतरिक जांच समिति की अगुवाई की थी, जिसने उनके पूर्ववर्ती न्यायमूर्ति-रंजन गोगोई को सुप्रीम कोर्ट की एक महिला कर्मचारी द्वारा अपने यौन उत्पीड़न के लगाये गये आरोपों के सिलसिले में उनके साथ हुए किसी भी तरह के दुर्व्यवहार से दोषमुक्त कर दिया था, और शिकायतकर्ता या आम लोगों को इस समिति के निष्कर्षों की कोई भी प्रति साझा करने से इनकार कर दिया गया था और यह बात भी किसी से छुपी नहीं है कि पीड़िता को उस कार्यवाही में समिति के सामने किसी वकील के पेश किये जाने की अनुमति नहीं दी गयी थी। यह अलग बात है कि न्यायमूर्ति गोगोई के लिए इस कहानी का अंत सुखद इस मायने में रहा कि सेवानिवृत्त होने के तुरंत बाद उन्हें राज्यसभा के लिए नामांकित कर लिया गया और शिकायत दर्ज करने के बाद अपनी सेवा से हटा दिये जाने वाली उस शिकायतकर्ता के लिए इस मामले का अंत इस लिहाज़ से सुखद रहा कि आख़िरकार बेहद गोपनीय तरीक़े से उसकी सेवा को फिर से बहाल कर दिया गया।
सीजेआई बनने के बाद उनके शुरुआती कार्यों में से एक था-सबरीमाला फ़ैसले की समीक्षा के लिए नौ-न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ का गठन करना। इस संदर्भ में तो उन्हें अपने उन कई साथी न्यायाधीशों की तरफ़ से प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था, जिनमें से तो कुछ न्यायाधीश तो उस फ़ैसले देने वाली खंडपीठ में ही शामिल थे।
जब उस बेंच का गठन किया गया था, तो इस लेखक सहित कुछ वरिष्ठ वकीलों ने उस आदेश को वापस लेने का अनुरोध किया था। न्यायमूर्ति बोबडे ने खुली अदालत में यह कहते हुए इसके लिए मना कर दिया था कि इस फ़ैसले के लिए सात न्यायाधीशों वाली पीठ की नहीं, बल्कि नौ न्यायाधीशों वाली पीठ की समीक्षा की ज़रूरत है, क्योंकि बड़ी बेंचों द्वारा अन्य पिछले फ़ैसलों को खारिज करना पड़ सकता है। यह आम तौर पर धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार में उनकी दिलचस्पी का एक स्पष्ट संकेत था। हालांकि, संयोग ही था कि इस विषय पर कोई फ़ैसला नहीं आ पाया, क्योंकि एक तो उस बेंच का एक सदस्य बीमार पड़ गया था, और बाद में तो कोविड-19 महामारी ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि यह मामला कभी सूचीबद्ध ही नहीं हो पाया।
उनके कार्यकाल पर सबसे चर्चित टिप्पणी उन आंदोलनकारी किसानों की रही, जो वस्तुतः संवैधानिक न्यायालय से दूर रहे, लेकिन न्यायपालिका और ख़ास तौर पर उनके कोर्ट परिसर में अविश्वास को लेकर आवाज़ गूंजती रही। शांतिपूर्ण विरोध की शक्ति पर भरोसा करने की जगह किसानों को शामिल होने के लिए जारी किये गये न्यायालय की खुले दावत को किसानों ने खारिज कर दिया था।
उन तीन कृषि क़ानूनों पर नियुक्त विशेषज्ञों का पैनल बहुमत से इन क़ानूनों के पक्ष में नहीं था। नियुक्त किये गये विशेषज्ञों में से प्रत्येक ने पहले कृषि क़ानूनों को लेकर सार्वजनिक रूप से अपना-अपना समर्थन जताया था। दरअस्ल इन विशेषज्ञों में से एक उस शेतकारी संगठन का अध्यक्ष था, जो कि एक किसान संगठन है और जिसकी स्थापना स्वर्गीय एस.ए.जोशी ने की थी, वह विशेषज्ञ कथित तौर पर उनके बहुत क़रीब थे। इस तरह, पक्षपात नहीं किये जाने से सम्बन्धित प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत की साफ़ तौर पर अनदेखा की गयी थी।
स्पाष्टवादी या असंवेदनशील?
जस्टिस एस.ए.बोबडे कुछ मामलों में तो अनोखे न्यायाधीश थे। एक बार तो उन्होंने अपनी राजनीतिक रूप से सही होने की भाषा को छुपाये बिना बेलाग तरीक़े से अपने मन की बात कह दी थी। अदालत के अपने आख़िरी दिन जब स्कूल और कॉलेज, दोनों में ही उनके साथ रहे निष्पक्ष सलाहकार(Amicus Curiae) हरीश साल्वे की तरफ़ से हितों के संभावित टकराव के आधार पर उस मामले को वापस लिये जाने के अनुरोध का सामना होने पर जस्टिस बोबडे ने कहा था, “इस बारे में कुछ भी ग़ैर-क़ानूनी नहीं है।” उनका यह कथन एक ऐसी मिसाल है, जो न्यायमूर्ति बोबडे के मन की बात को खुलकर और साफ़ तौर पर सामने रख देती है।
लेकिन, स्पष्टवादी होना एक बात है और पूरी तरह ग़लत होना और बात है। उनकी कुछ टिप्पणियां, चाहे वे प्रवासी कामगारों की दुर्दशा के सम्बन्ध में हों या फिर यौन दुर्व्यवहार का सामना करने वाली महिलाओं के सिलसिले में रही हों, वे टिप्पणियां संवैधानिक मूल्यों के ख़िलाफ़ थीं और उनकी ये टिप्पणियां एक सीजेआई होने के नाते अस्वीकार्य भी थीं, ख़ासकर, इस तरह की टिप्पणियां बिना सोचे समझे की गयी थीं।
उनका यह कहना कि घरेलू ज़िम्मेदारियों के चलते महिलायें आगे आने और न्यायपालिका में शामिल होने के लिए तैयार नहीं हैं, उसी तरह की अस्वीकार्य टिप्पणियों की श्रृंखला में नवीनतम टिप्पणी थी।
सीजेआई के पद पर काबिज़ किसी भी व्यक्ति को संविधान में प्रतिबिंबित मानवाधिकार की परिधि में रहना ज़रूरी होता है, चाहे उसकी व्यक्तिगत राय कुछ भी क्यों न हो।
छोटी-छोटी कामयाबियां
हालांकि इन तमाम विडंबनाओं के बावजूद किसी को वह श्रेय भी ज़रूर दिया जाना चाहिए, जिसका वह हक़दार है। इस महामारी के दौरान भी अदालत का दरवाजे खुले रखने के लिहाज़ से वर्चुअल अदालत की सुनवाई को कामयाबी के साथ शुरू करने में निवर्तमान सीजेआई की भूमिका को स्वीकार किया जाना चाहिए। अपेक्षाकृत बहुत ही कम समय में न्याय तक पहुंच बढ़ाने को लेकर अदालत का तकनीक के सहारे चालू रखना एक सराहनीय क़दम था। सुप्रीम कोर्ट के लिए अपने पूरे मामले को वर्चुअल तकनीक के ज़रिये सुनवाई कर पाना नामुमकिन था, लेकिन न्यायमूर्ति बोबडे की अगुवाई में अदालत ने उन कुछ मामलों की सुनवाई का जारी रखना एक बेहतरीन कोशिश थी, जिन्हें तत्काल सुने जाने की ज़रूरत थी।
जस्टिस बोबडे की कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence) के इस्तेमाल की शुरुआत कोई छुपी हुई बात तो है नहीं, और उन्होंने इसे शीर्ष अदालत के विभिन्न क्षेत्रीय भारतीय भाषाओं के फ़ैसले के अनुवाद में इस्तेमाल करवाया। उम्मीद की जाती है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence) के इस्तेमाल की सीमा को चिह्नित करेगी और इसके उपयोग की सीमा को आगे बढ़ाने के किसी भी प्रयास से पहले इस मामले पर देशव्यापी चर्चा ज़रूरी होगी। इसके पीछे की वजह कुछ ज़रूरी चिंता है, ऐसा तो है नहीं कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence) मानव बुद्धि की जगह ले लेगी, लेकिन इसकी निगरानी क्षमता को देखते हुए इसके इस्तेमाल के विस्तार को शायद हरी झंडी दे दी जाये।
प्रशासनिक नाकामियां
इस सवाल के चारों तरफ़ एक रहस्य गहराया रहा है कि आख़िर जस्टिस बोबडे ने अपने कार्यकाल के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ताओं को नामित करने के लिए कोई क़दम क्यों नहीं उठाया। पसंद की अभिव्यक्ति को जानने के लिए दायर दरख़्वास्त सुनवाई के लिए सूचीबद्ध नहीं थे, जिससे यह साफ़ हो गया था कि नये पदनामों की कोई संभावना नहीं थी। जिन दरवाज़ों को लेकर हमने मान लिया था कि वे खोल दिये गये हैं, दरअस्ल उन्हें बंद कर दिया गया, लिहाज़ा कई योग्य वकील अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं।
जस्टिस बोबडे ने जानबूझकर सुप्रीम कोर्ट से होने वाली कार्यवाही के सीधा प्रसारण के लिए नियम बनाने से भी परहेज़ किया, और वह अदालत में पारदर्शिता लाने के विरोध में भी थे। यह स्थिति तब थी, जबकि अदालत ने 2018 के फैसले में ऐसा करने पर सहमति जतायी थी। सवाल है कि इस अदालत के न्यायाधीश ही अगर उसके फ़ैसलों का सम्मान नहीं करेंगे, तो आख़िर कौन करेगा ?
जस्टिस बोबड़े एकमात्र ऐसे सीजेआई होंगे, जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के तौर पर 522 दिनों का कार्यकाल तक काम किया है, जो कि इस शीर्ष अदालत के इतिहास में अब तक के सीजेआई का सबसे लम्बे कार्यकाल में से एक है, लेकिन उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की कोई नियुक्ति नहीं की। उन्होंने न्यायधीशों के पद को भरने क लिए अपने उत्तराधिकारी के लिए पांच रिक्तियां अपने पीछे छोड़ दी है। यह अपने साथी कॉलेजियम सदस्यों और केंद्र सरकार के बीच पदोन्नत किये जाने को लेकर न्यायाधीशों की पसंद के सिलसिले में सहमति बनाने में उनकी असमर्थता का ही संकेत हो सकता है।
जस्टिस बोबड़े के लिए आगे का विकल्प क्या?
इस स्थिति में जस्टिस बोबडे की भविष्य की योजनाओं को लेकर महज़ अनुमान ही लगाया जा सकता है।
अब तो हमें मालूम है कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, ख़ासकर सेवानिवृत्त सीजेआई के लिए बेशुमार विकल्प हैं, इन विकल्पों में शामिल हैं-राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या प्रमुख वाणिज्यिक महत्व वाले विभिन्न न्यायाधिकरणों में से किसी का अध्यक्ष, नियामक संस्थाओं का अध्यक्ष, राज्यों के गवर्नर का पद, देश के उपराष्ट्रपति का उम्मीदवार, राज्यसभा की सदस्यता, ये सभी न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच के रिश्ते पर पड़े बारीक़ पर्दे को बींधने वाले पद हैं।
या फिर यह भी हो सकता है कि वह नागपुर लौट आयें और बाक़ी ज़िंदगी आराम से बितायें।
आख़िरकार इस बारे में तो समय ही बता पायेगा, लेकिन वह जो भी फ़ैसला लेंगे, जस्टिस बोबडे का वह फ़ैसला ख़बरों की सुर्ख़ियां नहीं बनेगा, ऐसा तो बिल्कुल मुमकिन नहीं है। मेरा अपना अनुमान है कि नागपुर उनका स्वागत करेगा और उनके लिए कुछ न कुछ ज़रूर किया है।
अगर मैं व्यक्तिगत होकर ज़िक़्र करूं तो मैंने पेशेवर तरीक़े से उनके दिवंगत पिता ए.एस. बोबडे को देखा है, और मेरा काम अक्सर मुझे अदालत में उनके साथ या उनके ख़िलाफ़ दिखायी देता था। इस तरह मेरा परिचय उस नौजवान एस.ए. बोबडे से हुआ था, जो उस समय नागपुर में बतौर वकील प्रैक्टिस कर रहे थे।
यह भी बहुत कम लोगों को मालूम है कि उन्होंने अपने पिता के साथ बॉम्बे हाई कोर्ट में गढ़चिरौली में हुए राजद्रोह के किसी मामले के एक आरोपी की जमानत को लेकर पेश हुए थे। उस मामले के आरोपियों को हम सभी जानते थे, उनमें से तो कुछ ख़द ही वकील थे।
यह कुछ लोगों के लिए तो आश्चर्य की बात भी हो सकती है कि भीमा कोरेगांव मामले के एक आरोपी सुरेंद्र गडलिंग ने जस्टिस बोबडे के मुकदमे की प्रैक्टिस के दिनों में जस्टिस बोबडे के चैंबर से ही अपनी वकालत की शुरुआत की थी।
उस समय जस्टिस बोबड़े हम में से ही एक थे। इस तरह से उनके पिता खुले दिमाग़ के थे और उन्हें सामाजिक बदलाव की ताक़त के साथ होना था। उन्होंने नागरिक स्वतंत्रता के समर्थक होने के लिहाज़ से अपनी प्रतिष्ठा बनायी थी, इससे यह उम्मीद जगी थी कि वह बतौर न्यायाधीश उसी न्याय दर्शन को आगे बढ़ायेंगे। मगर अफ़सोस कि सीजेआई के तौर पर उनके कार्यकाल के दौरान इसका हमें कोई संकेत तक नहीं मिला।
अगर मैं अपनी बात कहूं, तो मुझे बतौर सीजेआई उनसे सबसे ज़्यादा निराशा तब हुई थी, जब उन्होंने 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध के दौरान दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों पर हमले को रोकने के लिए तत्काल सुनवाई करने से इनकार कर दिया था। विश्वविद्यालय परिसर और पुस्तकालय और वाशरूम में प्रवेश करने वाले दिल्ली पुलिस द्वारा छात्रों की बेरहमी से पिटाई करने के दृश्य हमारे दिल-ओ-दिमाग़ में ताजा थे। ऐसे समय में संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल नहीं करने का विकल्प चुनना न केवल क़ानूनी, बल्कि नैतिक ज़िम्मेदारी का निर्वाह करने से पलायन करने जैसा लगता है। इस मामले को उस दिल्ली हाई कोर्ट में वापस कर दिया गया था, जहां यह आज तक पड़ा हुआ है, अभी भी अनिर्णीत है। निश्चित रूप से उच्चतम न्यायालय सहित हम सबको छात्रों की उन शिकायतों पर पर्याप्त ध्यान देना चाहिए।
इसके उलट, संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यायिक प्रणाली के काम करने के तरीक़े की वजह से ही वहां के पूर्व पुलिस अधिकारी, डेरेक चाउविन को पहले ही उस भीषण वाक़ये के ग्यारह महीने के भीतर जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के लिए दोषी ठहराया जा चुका है। पुलिस की तरफ़ से काले लोगों के ख़िलाफ़ अत्यधिक ताक़त के इस्तेमाल पर अमेरिका में व्यापक स्तर पर राष्ट्रीय बहस छिड़ गयी है; दुर्भाग्य से पिछले कई सालों से इस तरह के ख़तरे के कई मामलों के आने के बावजूद हम भारत में पुलिस की उस बर्बरता को लेकर ऐसी कोई बहस छिड़ते नहीं देखते हैं।
न्यायमूर्ति बोबडे के कार्यकाल के आख़िरी दो दिनों में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 32 क्षेत्राधिकार के तहत कोविड-19 महामारी के प्रबंधन के सिलसिले में स्वत:संज्ञान लेते हुए सुनवाई शुरू की। जनता की शिकायतों के एवज़ में क़दम उठाने के सिलसिले में पैदा होती विसंगतियों से इस बात को लेकर भ्रम पैदा हुआ है कि सुप्रीम कोर्ट जनता के लिए अपने दरवाज़े आख़िर कब खोलता है, और कब नहीं खोलता है। सुप्रीम कोर्ट के हालिया ट्रैक रिकॉर्ड को ध्यान में रखते हुए इसे तो विडंबना ही कहा जायेगा कि इस तत्काल सुने जाने वाले मामले को अगले मंगलवार तक के लिए स्थगित कर दिया गया है, जिसमें राज्य के लिए कोई निर्देश तक नहीं था।
जस्टिस बोबडे की मानवता
हालांकि यह निर्विवाद है कि जस्टिस बोबडे एक बहुत ही सरल और सुलभ इंसान हैं और अपनी जीवन शैली को लेकर पूरी तरह स्पष्ट हैं। मोटरसाइकिल को लेकर उनका उत्साह और कुत्तों को लेकर उनका स्नेह कभी भी किसी से छुपा नहीं रहा है। हम अदालत से अलग अपने न्यायाधीशों की ज़िंदगी बारे में बहुत ही कम जानते हैं, और सच कहूं, तो मैं उनके व्यक्तित्व के इस आयाम की सराहना करती हूं।
उन्होंने कुछ हद तक भारत के सर्वोच्च न्यायालय के घुटन भरे गलियारों को नया रूप-रंग दे दिया है और उन्हें पहले से कहीं ज़्यादा आरामदायक बना दिया है। अगर महामारी का हस्तक्षेप नहीं हुआ होता, तो उनके साथ क़ानून से जुड़े समुदाय का संपर्क कहीं ज़्यादा सार्थक हो सकता था।
सौज- न्यूजक्लिकः (इंदिरा जयसिंह एक मानवाधिकार कार्यकर्ता, सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील और द लीफ़लेट की संस्थापक हैं। इनके विचार निजी हैं।)अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें