अलग- अलग संस्थाओं की ओर से जारी कई रिपोर्ट्स में भी इस बात का दावा किया गया है कि रोज़गार और शिक्षा के मौक़े ख़त्म होने से महिलाएं ख़राब मानसिक और शारीरिक स्वास्थ का शिकार हो रही हैं। इसके अलावा लगातार घरेलू हिंसा, महिलाओं के साथ यौन हिंसा बढ़ने की खबरें भी लगातार सामने आ रही हैं।
यूं तो कोरोना महामारी का असर समाज के हर तबके पर भारी पड़ रहा है। लेकिन बात अगर आधी आबादी की करें, तो वो बीमारी के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक संकट की दोहरी मार भी झेल रही हैं। बिल एंड मेलिंडा फाउंडेशन द्वारा जारी ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि महामारी का सबसे ज्यादा नुकसान नौकरीपेशा महिलाओं को हुआ है। इसकी वजह से पिछले एक साल में दुनिया भर में 6.4 करोड़ महिलाओं को नौकरी गंवानी पड़ी है। यानी हर 20 कामकाजी महिलाओं में से एक महिला बेरोजगार हुई है। इसके अतिरिक्त स्कूल बंद होने की वजह से महिलाओं पर घर-परिवार और बच्चों की देखभाल का दबाव भी बढ़ा है।
आपको बता दें कि इससे पहले भी अलग-अलग संस्थाओं की ओर से जारी कई अन्य रिपोर्ट्स में भी इस बात का दावा किया गया है कि रोज़गार और शिक्षा के मौक़े ख़त्म होने से महिलाएं ख़राब मानसिक और शारीरिक स्वास्थ का शिकार हो रही हैं। इस समय महिलाओं पर देखभाल का जो अतिरिक्त भार बढ़ गया है, उससे 1950 के समय की लैंगिक रूढ़ियों के फिर से क़ायम होने का ख़तरा पैदा हो गया है। करोना वायरस से पहले एक घंटे का अवैतनिक काम पुरुष और तीन घंटे का महिलाएं कर रही थीं, महामारी के दौरान अब ये आंकड़े और बढ़ गए हैं।
महिलाओं ने पुरुषों की तुलना ज्यादा नौकरी खोई
बिल एंड मेलिंडा फाउंडेशन रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना वायरस से सबसे ज्यादा नुकसान महिला कर्मचारियों की अधिकता वाले खुदरा, मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर पर पड़ा है इसलिए महिलाओं पर ज्यादा असर पड़ा है। इन क्षेत्रों में करीब 40 फीसदी कर्मचारी महिलाएं हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं की नौकरी को लेकर एक जैसा पैटर्न देखा गया है। लगभग हर देश में पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने ज्यादा नौकरी खोई है। कोलंबिया, कोस्टारिका, इक्वाडोर और चिली जैसे देशों में नौकरी गंवाने वाली महिलाओं की संख्या ज्यादा हैं। शीर्ष 10 देशों में अमेरिका, कनाडा, स्पेन और ब्राजील भी शामिल है।
इसके अतिरिक्त स्कूल बंद होने की वजह से महिलाओं पर घर-परिवार और बच्चों की देखभाल का दबाव भी बढ़ा है। महिलाएं अब बच्चों की देखभाल में हर हफ्ते 31 घंटे गुजार रही है, जबकि पिछले साल यह हफ्ते के 26 घंटे था। यानी पिछले साल की तुलना में वे अब बच्चों की देखभाल में अधिक समय व्यतीत कर रही हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि महिलाओं पर निवेश से हर किसी का जीवन स्तर सुधरता है। उन्हें अर्थव्यवस्था का हिस्सा न बनाने पर जीडीपी में गिरावट आती है। इसका उदाहरण ओईसीडी देश है, जहां नौकरियों में महिलाएं कम होने से जीडीपी करीब 15% तक घट गई है। इसके साथ ही रिपोर्ट में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए चार तरीके भी सुझाए गए हैं, जिसमें डिजिटल मजबूती, कारोबार में मदद, नीति बनाते वक्त हर क्षेत्र की महिला का ध्यान रखे जाने समेत केयरगिविंग को भी नौकरीपेशा जैसी अहमियत देने जैसे कदम हैं।
भारत में महिला श्रमिकों की भागीदारी दुनिया में सबसे कम
मैकिंज़ी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ कोविड-19 महामारी की वजह से वैश्विक स्तर पर महिलाओं की नौकरी गंवाने की दर पुरुषों की नौकरी गंवाने की दर से 1.8 गुना ज़्यादा है। महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा कोविड-19 महामारी के आर्थिक और सामाजिक असर की पीड़ा से जूझ रहा है। भारत में हालात कुछ अलग नहीं हैं। अपेक्षाकृत कम वेतन और नौकरी गंवाने की ज़्यादा दर के अलावा लॉकडाउन की अवधि के दौरान महिलाओं के ख़िलाफ़ घरेलू हिंसा में ख़तरनाक बढ़ोतरी हुई। राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) को हर रोज़ बड़ी तादाद में मुश्किल में घिरी महिलाओं की तरफ़ से फ़ोन करके मदद मांगी गई। महामारी के नतीजे के तौर पर पुरुषों और महिलाओं- दोनों ने नौकरियां गंवाई और उनकी परेशानी बढ़ी लेकिन घरेलू हिंसा ने महिलाओं की परेशानी में और इज़ाफ़ा किया, उन्हें और ज़्यादा दमन का सामना करना पड़ा।
ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 के मुताबिक़ भारत में महिला श्रमिकों की भागीदारी दुनिया में सबसे कम में से एक है। भारत की आबादी में महिलाओं का हिस्सा 49% है लेकिन आर्थिक उत्पादन में उनका योगदान सिर्फ़ 18% है। भारत में पुरुषों और महिलाओं के वेतन में अंतर 35% है जबकि वैश्विक औसत 16% है। अनौपचारिक क्षेत्र में ज़्यादातर अनियमित या बिना वेतन के काम में शामिल महिलाएं अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक़ सबसे कमज़ोर समझी जाती हैं। महामारी की वजह से काफ़ी संख्या में महिलाओं को अपनी आजीविका गंवानी पड़ी और उन्हें स्थायी रूप से श्रम बाज़ार से बाहर होना पड़ा। हाल के महीनों में श्रम बाज़ार में महिलाओं की रुकी हुई भागीदारी ने आमदनी की असमानता को और ज़्यादा बढ़ा दिया है।
स्वास्थ्य आपातकाल के दौरान महिलाओं की स्वायत्तता के साथ समझौता
सीएमआईई के कंज़्यूमर पिरामिड्स हाउसहोल्ड सर्वे (सीपीएचएस) के आंकड़े बताते हैं कि भारत में 10 में से चार महिलाओं ने नौकरी गंवाई और मार्च और अप्रैल 2020 के देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान एक करोड़ 70 लाख महिलाओं की नौकरी छूट गई। वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि 4 करोड़ 90 लाख लोग महामारी की वजह से पूरी तरह ग़रीबी में धकेले जाएंगे। इनमें से एक करोड़ 20 लाख लोग भारत में ग़रीब होंगे। इस श्रेणी में महिलाओं की भागीदारी काफ़ी ज़्यादा होगी और इससे ग़रीबी के नये चक्र का निर्माण होगा।
ऐसा महसूस किया गया है कि किसी भी स्वास्थ्य आपातकाल के दौरान महिलाओं की स्वायत्तता के साथ समझौता किया जाता है। ये महामारी भी अलग नहीं थी। बीमारी से लड़ने के लिए नीतिगत फ़ैसलों में महिलाओं की चिंता को शामिल करते हुए लैंगिक संतुलन बनाया जाना चाहिए था। लैंसेट के हाल के एक लेख में भी ये बताया गया है कि महामारी के लैंगिक असर पर विचार नहीं किया गया है। महामारी का वायरस सार्स सीओवी-2 भले ही लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करता हो लेकिन महामारी का असर और उसके ख़िलाफ़ सरकार का जवाब लिंग के मुताबिक़ है।
कोरोनाकाल में घरेलू हिंसा, महिलाओं के खिलाफ हिंसा बढ़ी
यूएन वुमन के नए वैश्विक डेटा के मुताबिक़ कोरोना वायरस महामारी के कारण हम लैंगिक समानता में हुई बढ़ोतरी के मामले में 25 साल पुराने स्तर तक पिछड़ सकते हैं। इसकी प्रमुख वजह ये है कि इस समय महिलाओं पर देखभाल का जो भार बढ़ गया है, उससे 1950 के समय की लैंगिक रूढ़ियों के फिर से क़ायम होने का ख़तरा पैदा हो गया है। इस संबंध में यूनएन वुमन ने चेतावनी देते हुए कहा था कि कामकाजी महिलाएं कम होने से न सिर्फ़ उनकी सेहत पर बल्कि आर्थिक प्रगति और स्वतंत्रता पर भी असर पड़ेगा।
हाल ही में जारी अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में यह जानकारी सामने आई कि लॉकडाउन के दौरान 47 फीसद महिलाओं को स्थाई रूप से अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी। इस दौरान डॉक्टर से समय लेना, खाना बनाना और घर ठीक करना जैसे कामों के बीच उलझते रहने से महिलाओं पर अधिक मानसिक दबाव भी दोऱमो को मिला है, जिससे उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है।
गौरतलब है कि इस समय महिलाओं के अवैतनिक काम के घंटों में कई गुना इज़ाफा हुआ है। वो घर पर ही रह रही हैं, जिससे घर देखभाल में होने वाला ख़र्च तो संभवत: बच रहा है, परिवार के अन्य लोग भी घरेलू काम से भारमुक्त रह रहे हैं लेकिन उनकी इस मेहनत को सम्मान के साथ स्वीकार नहीं किया जा रहा है। लगातार घरेलू हिंसा, महिलाओं के खिलाफ हिंसा बढ़ने की खबरें सामने आ रही हैं। जिससे महिलाएं आर्थिक के साथ ही सामाजिक रूप से भी असुरक्षित होती जा रही हैं।
सौज- न्यूजक्लिक