उत्तर प्रदेश में अलग-अलग प्रकार के अपराध और हिंसा की घटनाएँ किसी राज्य से कम नहीं बल्कि इस मामले में वह हर प्रकार की हिंसा में अगली पंक्ति में पाया जाता है। इसलिए चुनाव के बाद हिंसा आश्चर्यजनक नहीं।
क्या आपको उत्तर प्रदेश में पंचायत और स्थानीय निकाय के चुनावों के बाद की हिंसा और उसमें हुई हत्याओं के बारे में कुछ मालूम है? अगर नहीं तो क्यों, यह आपको पूछना चाहिए। वे तमाम अख़बार और जन संचार माध्यम जो बंगाल की हिंसा को पहली ख़बर बना रहे थे, उत्तर प्रदेश में चुनाव नतीजों के बाद हुई हिंसा को इस लायक क्यों नहीं मानते कि जनता को उसकी सूचना भी दी जाए? उत्तर प्रदेश से निकलनेवाले अख़बार भी?
बंगाल में विधान सभा के चुनाव के नतीजों के बाद भड़की हिंसा की ठीक ही चतुर्दिक उसकी निंदा हुई। हालाँकि उस हिंसा में मारे जानेवालों में विजयी दल तृणमूल कांग्रेस, बीजेपी और इंडियन सेक्युलर फ्रंट से संबद्ध लोग शामिल थे, यानी यह एकतरफ़ा हिंसा न थी , फिर भी ठीक ही मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को हिंसा रोकने के लिए सब ने कहा। यह हिंसा चुनावी हिंसा का ही प्रसार था, जानने के बावजूद केंद्र ने कुछ ऐसा रुख लिया मानो असाधारण हिंसा हो रही हो और उसने राज्य सरकार से रिपोर्ट माँगी और अपना एक जाँच दल भेजा।
भारतीय जनता पार्टी ने देश भर में इस हिंसा के ख़िलाफ़ धरना करने का फ़ैसला किया। उत्तर प्रदेश से दूर कोलकाता से निकलने वाले अख़बार ‘टेलीग्राफ़’ ने इस विडंबना की तरफ़ संकेत किया: “भारतीय जनता पार्टी के राज्य प्रमुख समेत उसके अन्य नेता अपने घरों के सामने बंगाल की हिंसा के ख़िलाफ़ धरना दे रहे थे जबकि उसी समय उनके अपने शासन वाले राज्य में हिंसा हो रही थी और लोग मारे जा रहे थे और घायल हो रहे थे। लेकिन बीजेपी के राज्य प्रमुख इस हिंसा को इतना गंभीर नहीं मानते। उनका कहना था कि ‘समाजवादी पार्टी के गुंडे समस्या खड़ी कर रहे हैं। सरकार उनसे निबट लेगी’।”
अख़बार के मुताबिक़ ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है। उसने कुछ प्रमुख घटनाओं का ब्योरा दिया है: गोरखपुर के एक गाँव में भीड़ में लाठी और तेज़ हथियारों से रमा शंकर नामक एक व्यक्ति पर हमला कर दिया गया जिससे उसकी मौत हो गई। परिवार का आरोप है कि चूँकि उन्होंने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को वोट दिया था, उनपर हमला किया गया। देवरिया के एक गाँव में दो प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवारों के समर्थकों में खूनी झड़प में 65 साल के भरत सिंह मारे गए। आजमगढ़ के एक गाँव में बहुजन समाज पार्टी के एक उम्मीदवार की बहू पूनम देवी की गोली मार कर हत्या कर दी गई। उनकी ननद को भी गोली लगी है। जौनपुर के एक गाँव में संतोष वर्मा की गोली मार कर हत्या कर दी गई। संतोष के पिता ने भारतीय जनता पार्टी के नेताओं पर इस हमले का आरोप लगाया है। समाजवादी पार्टी को वोट देने के कारण बिजनौर की राशिदा बेगम की हत्या कर दी गई, ऐसा उनके एक रिश्तेदार ने आरोप लगाया। चुनाव नतीजों की घोषणा के बाद रामपुर ज़िला कांग्रेस के उपाध्यक्ष मतिउर्रहमान ख़ान पर घातक हमला किया गया जिसके चलते उन्हें हस्पताल में दाखिल करना पड़ा है। इसके अलावा जगह-जगह से तोड़ फोड़, मार-पीट, हमलों की और भी ख़बरें आ रही हैं।
जाहिरा तौर पर हिंसा की इन सारी घटनाओं के लिए भारतीय जनता पार्टी जवाबदेह नहीं है। चुनाव और हिंसा के बीच जो पुराना रिश्ता भारत में तकरीबन हर जगह देखा जाता रहा है, उत्तर प्रदेश की स्थानीय निकायों के चुनाव के बाद की हिंसा भी उसी का नतीजा हैं। चुनाव के बाद जीतने का मतलब है राजकीय संसाधनों पर नियंत्रण, अपने लोगों को लाभ पहुँचाने का अवसर। मतदाता और उम्मीदवार के बीच का रिश्ता लाभार्थी और लाभ दिलानेवाले का है। हार का अर्थ है राजकीय कोष या संसाधनों में अपने हिस्से से वंचित हो जाना। उतने दिन तक अपने लोगों का काम करवाने की हैसियत में न रह जाना। यह अपमानजनक जान पड़ता है। चुनाव में हारना एक युद्ध में हारने से कम नहीं।
जनतंत्र के बावजूद एक सामंती दिमाग़ काम करता रहता है। चुना हुआ प्रतिनिधि ख़ुद को सार्वजनिक सेवक न मानकर चुना हुआ मालिक मान बैठता है। मानो जनता ग्राम पंचायत, ज़िला पंचायत, विधान सभा और लोक सभा में अलग अलग मालिक चुन रही हो।
चूँकि उम्मीदवारों में अधिकतर राज्य के संसाधनों पर अपना नियंत्रण चाहते हैं इसलिए हारना एक बड़ा नुक़सान भी जान पड़ता है। इस कारण हार कबूल करना कठिन होता है। उम्मीदवार की लाभ हानि के साथ उनके समर्थकों का नफ़ा-नुक़सान भी जुड़ा हुआ है। इसी कारण वे भी अपने नेता की तरह ही उहर हो उठते हैं।
बंगाल में स्थिति कोई बहुत अलग नहीं। वहाँ एक अतिरिक्त तत्त्व यह ज़रूर है कि समाज पार्टी के आधार पर बुरी तरह बंटा हुआ है। लेकिन यह भी सच है कि 2011 के पहले तक जो स्थानीय गुंडे सीपीएम के लिए काम करते थे, उसके बाद तृणमूल के हो गए और उन्हीं में से अधिकतर ने अब भारतीय जनता पार्टी का दामन पकड़ा है। उत्तर प्रदेश में जाति आधारित विभाजन है और वफादारियाँ उसी के आधार पर विभाजित हैं। भारतीय जनता पार्टी ने इसके साथ एक और तत्व जोड़ दिया है: साम्प्रदायिक वफादारी। इन दोनों का गठजोड़ ज़्यादा विषैला हो उठता है।
उत्तर प्रदेश में अलग-अलग प्रकार के अपराध और हिंसा की घटनाएँ किसी राज्य से कम नहीं बल्कि इस मामले में वह हर प्रकार की हिंसा में अगली पंक्ति में पाया जाता है। इसलिए चुनाव के बाद हिंसा आश्चर्यजनक नहीं।
ताज्जुब हिंसा की इन घटनाओं से भले न हो, भले ही उनके कारण सामाजिक संरचना में हों, जनतंत्र, सत्ता और ताक़त के बीच के समीकरण की विकृत समझ में, लेकिन हमें किसी भी हिंसा का औचित्य खोजने की कोई मजबूरी नहीं। पंचायत स्तर तक के चुनाव क्यों इस स्तर की हिंसा तक ले जा सकते हैं, इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए हमें अपने समाज की जनतांत्रिक यात्रा की अपर्याप्तता का तीखा अहसास होता है।
इसके साथ ही एक प्रकार की हिंसा और दूसरे प्रकार की हिंसा में अगर हम अपनी पसंद से चुनाव करते रहेंगे तो हर प्रकार की हिंसा की वैधता बनी रहेगी।
संचार माध्यम भी जब तक एक हिंसा को भयानक और दूसरी को मामूली बताकर भेद करेंगे तो वे भी हिंसा के लिए जगह बनाते रहेंगे और हिंसा को लेकर एक अवसरवादी रवैया समाज में भरते रहेंगे।
जनतंत्र इसलिए भी बेहतर व्यवस्था है कि वह हिंसा से अलग तरीक़ा सुझाती है, समाज में रिश्ते बनाने का। मैं हिंसा के कारण नहीं, बेहतर विचार और बेहतर सामाजिक व्यवस्था के अपने प्रस्ताव के कारण स्वीकार्य हो सकूँ, इससे बड़ी बात क्या होगी? और अगर मेरी बात नहीं सुनी गई तो दुबारा खुद को इस लायक बना सकूँ कि लोग मुझे सुनें। लेकिन जाहिरा तौर पर यह अधिक कठिन, श्रम साध्य है। हिंसा अधिक आसान है। आसान है तो क्या श्रेयस्कर भी है?
अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं।ये उनके निजी विचार हैं। सौज-सत्यहिन्दी