जनसंख्या नियंत्रण कानून: योगी पर उल्टा पड़ सकता है ध्रुवीकरण का यह दांव

अनिल जैन

योगी सरकार ने अपने अभी तक के कार्यकाल में आम तौर पर अपना हर कदम ध्रुवीकरण को ध्यान में रख कर ही उठाया है। जनसंख्या नियंत्रण कानून के जरिए भी वह यही करने जा रही है। इस काम में ढिंढोरची मीडिया भी उसका मददगार बना हुआ है। उत्तर प्रदेश में पिछले साढ़े चार साल से शासन कर रही भारतीय जनता पार्टी की सरकार और उसके मुखिया अजय सिंह बिष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ को अचानक इलहाम हुआ है कि प्रदेश की आबादी बेतहाशा बढ़ रही है जिसकी वजह से न तो सूबे का विकास हो पा रहा है और न ही लोगों को रोजगार मिल रहा है। इसलिए इस समस्या से निबटने के लिए राज्य सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने का फैसला किया है।

इस सिलसिले में उत्तर प्रदेश के विधि आयोग ने कानून का एक मसौदा तैयार है, जिसके मुताबिक एक बच्चे की नीति अपनाने वालों को पुरस्कार के रूप में कई तरह की सुविधाएं और रियायतें देने का प्रावधान है, जबकि दो से अधिक बच्चों के माता-पिता को दंडस्वरूप सुविधाओं और रियायतों से वंचित किया जाना प्रस्तावित है। यह कानून 21 वर्ष से अधिक उम्र के युवकों और 18 वर्ष से अधिक उम्र की युवतियों पर लागू होगा। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ का इरादा इस कानून को आगामी विधानसभा चुनाव के पहले ही पारित करा लेने का है।

वैसे जनसंख्या नियंत्रण के लिए क़ानून बनाने की दिशा में क़दम उठाने वाला उत्तर प्रदेश देश का पहला राज्य नहीं है। दस अन्य राज्यों- मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, असम और ओडिशा में पहले से ही ऐसा कानून लागू है। इनमें से ज्यादातर राज्यों में यह कानून कांग्रेस की सरकारों के समय में बने थे। इन सभी राज्यों के जनसंख्या नियंत्रण क़ानून में लगभग एक जैसे प्रावधान है। राज्यों में ऐसे क़ानून लागू करने का मक़सद जनसंख्या नियंत्रण के लिए आम लोगों को प्रोत्साहित करना है।

उत्तर प्रदेश से पहले जिन राज्यों में ऐसा क़ानून लागू किया गया, वहां जरा भी शोर नहीं मचा। लेकिन उत्तर प्रदेश में आगामी फरवरी-मार्च में विधानसभा चुनाव होना है, लिहाजा चुनावी फायदे के लिए योगी सरकार इस क़ानून के ज़रिए अपने वोट बैंक को संदेश दे रही है। गौरतलब है कि भाजपा ने पिछला चुनाव भी राज्य में व्यापक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बूते ही जीता था और इस बार भी वह ध्रुवीकरण के सहारे ही अपना चुनावी सफर तय करना चाहती है। योगी सरकार ने अपने अभी तक के कार्यकाल में आम तौर पर अपना हर कदम ध्रुवीकरण को ध्यान में रख कर ही उठाया है। जनसंख्या नियंत्रण कानून के जरिए भी वह यही करने जा रही है। इस काम में ढिंढोरची मीडिया भी उसका मददगार बना हुआ है।

राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुत्व का पोस्टर ब्वॉय या आइकॉन बनने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से होड कर रहे योगी आदित्यनाथ भले ही इस कानून के जरिए ध्रुवीकरण करना चाहते हों, मगर हकीकत यह है कि इस कानून से मुसलमान या अन्य अल्पसंख्यक वर्ग तो प्रभावित नहीं होंगे पर इसका प्रतिकूल असर हिंदुओं पर जरूर होगा। इस बात को आरएसएस भांप गया है। यही वजह है कि विश्व हिंदू परिषद ने इस प्रस्तावित कानून का विरोध करते हुए इस हिंदू हितों के खिलाफ बताया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि योगी आदित्यनाथ का यह दांव उन पर उलटा पड सकता है।

दरअसल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कोख से जन्मी भाजपा के लिए जनसंख्या नियंत्रण का मुद्दा भी उसकी मानसिकता और व्यापक मांगपत्र का हिस्सा है, जिसके बाकी हिस्से कभी गोहत्या पर पाबंदी की मांग और गोरक्षा के नाम पर हिंसा, कभी धर्मांतरण रोकने के लिए कानून, कभी कथित लव जेहाद, कभी ईसाई मिशनरियों को देश निकाला देने की मुहिम, कभी गिरजाघरों, पादरियों और ननों पर हमले, कभी धार की भोजशाला हिंदुओं के सुपुर्द करने की मांग, कभी कश्मीर, कभी समान नागरिक संहिता और कभी स्कूलों में वंदे मातरम और सरस्वती वंदना का गायन अनिवार्य करने की मांग और कभी शहरों तथा सार्वजनिक स्थानों के नाम बदलने के हास्यास्पद उपक्रम के रूप में सामने आते हैं। इनमें से कोई एक मुहिम परिस्थितिवश कमजोर पड़ जाती है तो दूसरी को शुरू कर दिया जाता है।

जिस तरह इस समय उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को लेकर माहौल गरमाया जा रहा है, इसी तरह ठीक पांच साल पहले यानी 2016 के जुलाई-अगस्त में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए माहौल गरमाने लगा था। इससे दो साल पहले केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा की सरकार बन चुकी थी। पार्टी का अगला बड़ा लक्ष्य उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने का था। इस लक्ष्य को पाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूरी तरह सक्रिय हो चुका था। संघ के मुखिया मोहन राव भागवत प्रदेश भर में घूम-घूम कर हिंदू संगठनों के बीच ध्रुवीकरण करने वाले भाषण दे रहे थे।

इसी सिलसिले में उन्होंने 20 अगस्त 2016 को आगरा में संघ से जुडे शिक्षकों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा था कि हिंदुओं को अपनी आबादी बढाने के लिए ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करना चाहिए। ‘राष्ट्र के पुनर्निर्माण में शिक्षकों की भूमिका’ विषय पर भाषण देते हुए भागवत ने कहा था, ”जब दूसरे धर्म वाले ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं तो हिंदुओं को ऐसा करने से किसने रोक रखा है। कौन सा कानून कहता है कि हिंदुओं की आबादी नहीं बढना चाहिए।’’

भागवत के इस बयान से पहले यही बात संघ से जुडे जोशीमठ के शंकराचार्य वासुदेवानंद सरस्वती ने भी कही थी। उन्होंने 17 जनवरी 2015 को इलाहाबाद के माघ मेला में आयोजित संत सम्मेलन हिंदुओं को दस-दस बच्चे पैदा करने का आह्वान किया था। उन्होंने कहा था, ”जिस तेजी से हिंदुओं की आबादी कम हो रही है और दूसरे धर्मों की बढ रही है, उससे लगता है कि कुछ सालों में भारत में हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएंगे। आज हिंदुओं की बडी आबादी के कारण ही नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन सके हैं। अगर हिंदू आबादी घट गई तो दूसरे धर्मों के लोग प्रधानमंत्री बनेंगे।’’

जनसंख्या को लेकर भागवत और वासुदेवानंद के ये दो बयान तो महज बानगी हैं। अन्यथा आरएसएस, भाजपा और इनके तमाम बगल बच्चा संगठनों के नेता, साक्षी महाराज टाइप और चिन्मयानंद टाइप साधु-साध्वियों के वेशधारी राजनीतिक ठगों और यहां तक कि कई सांसद, विधायक और मंत्री भी इसी आशय के जहरीले और विभाजनकारी बयान आए दिन देते रहते हैं। लेकिन अब जबकि फिर उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव नजदीक हैं और भाजपा के सामने अपनी सत्ता बचाए रखने की चुनौती है लेकिन तो उसने जनसंख्या के मुद्दे पर अपना पैंतरा पूरी तरह बदल लिया है।

वैसे जनसंख्या विस्फोट की स्थिति को लेकर किसी का भी चिंता जताना इसलिए बेमानी है, क्योंकि जनसंख्या वृद्धि के आंकडे चीख-चीख कर बता रहे है कि हमारा देश जल्द ही जनसंख्या स्थिरता के करीब पहुंचने वाला है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) 2015-16 के मुताबिक देश का मौजूदा टोटल फर्टिलिटी रेट 2.3 से नीचे है। यानी देश के दंपति औसतन करीब 2.3 बच्चों को जन्म देते हैं। यह दर भी तेजी से कम हो रही है। जनसंख्या को स्थिर करने के लिए यह दर 2.1 होनी चाहिए और यह स्थिति कुछ ही वर्षों में खुद ब खुद आने वाली है।

एनएफएचएस के मुताबिक देश में हिंदुओं का फर्टिलिटी रेट जो 2004-05 में 2.8 था वह अब 2.1 हो गया है। इसी तरह मुस्लिमों का फर्टिलिटी रेट 3.4 से गिरकर 2.6 हो गया है। 1.2 बच्चे प्रति दंपति के हिसाब से सबसे कम फर्टिलिटी रेट जैन समुदाय में है। वहां बच्चों और महिलाओं की शिक्षा सबसे ज्यादा है। इसके बाद सिख समुदाय में फर्टिलिटी रेट 1.6, बौद्ध समुदाय में 1.7 और ईसाई समुदाय में 2 है। भारत का औसत कुल फर्टिलिटी रेट 2.2 है, जो कि अभी भी हम दो हमारे दो के आंकडे से ज्यादा है। लेकिन फिर भी अगर देखा जाए तो दो धार्मिक समुदायों (हिंदू और मुस्लिम) को छोड़कर बाकी समुदायों में बच्चों की संख्या तेजी से कम हो रही है।

भारत दुनिया में पहला देश है, जिसने अपनी आजादी के चंद वर्षों बाद 1950-52 में ही परिवार नियोजन को लेकर राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम शुरु कर दिया था। हालांकि गरीबी और अशिक्षा के चलते शुरुआती दशकों में इसके क्रियान्वयन में जरूर कुछ दिक्कतें पेश आती रही और 1975-77 में आपातकाल के दौरान मूर्खतापूर्ण जोर-जबरदस्ती से लागू करने के चलते यह कार्यक्रम बदनाम भी हुआ लेकिन पिछले दो दशकों के दौरान लोगों में इस कार्यक्रम को लेकर जागरुकता बढ़ी है, जिससे स्थिति में काफी सुधार हुआ है।

लेकिन जनसंख्या को लेकर हमारे यहां कट्टरपंथी हिंदू संगठनों और उनके कुछ ऐसे ही धर्माचार्यों की ओर से एक निहायत बेतुका प्रचार अभियान सुनियोजित तरीके से पिछले कई वर्षों से चलाया जा रहा है, जो कि हमारे जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम के खिलाफ है। मनगढंत आंकड़ों के जरिए वह प्रचार यह है कि जल्दी ही एक दिन ऐसा आएगा जब भारत में मुसलमान और ईसाई समुदाय अपनी आबादी को निर्बाध रूप से बढाते हुए बहुसंख्यक हो जाएंगे और हिंदू अल्पमत में रह जाएंगे। अत: उस ‘भयानक’ दिन को आने से रोकने के लिए हिंदू भी अधिक से अधिक बच्चे पैदा करने चाहिए। मजेदार बात यह है कि हिंदुओं से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील करने वाले यही लोग जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने की मांग करने में भी आगे रहते हैं।

एक दिलचस्प और उल्लेखनीय बात यह भी है कि मुसलमानों की कथित रूप से बढ़ती आबादी को लेकर चिंतित होने वाले ये ही हिंदू कट्टरपंथी इजराइल के यहूदियों का इस बात के लिए गुणगान करते नहीं थकते कि संख्या में महज चंद लाख होते हुए भी उन्होंने अपने पुरुषार्थ के बल पर करोड़ों मुसलमानों पर न सिर्फ धाक जमा रखी है बल्कि कई लडाइयों में उन्हें करारी शिकस्त भी दी है और उनकी जमीन छीनकर अपने राज्य का विस्तार किया है।

यहूदियों के इन आशिकों और हिंदू कट्टरता के प्रचारकों से पूछा जा सकता है कि अगर मुसलमान संख्या बल में यहूदियों से कई गुना भारी होते हुए भी उनसे शिकस्त खा जाते हैं तो फिर हिंदुओं को ही भारतीय मुसलमानों की भावी और काल्पनिक बहुसंख्या की चिंता में दुबला होने की क्या जरूरत है? या फिर वे क्या यह जताना चाहते हैं कि यहूदी हिंदुओं से ज्यादा काबिल हैं?

मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों की कथित रूप से बढ़ती आबादी पर चिंतित होने वाले यह भूल जाते हैं कि आबादी बढ़ने या ज्यादा बच्चे पैदा होने का कारण कोई धर्म या विदेशी धन नहीं होता। इसका कारण होता है गरीबी और अशिक्षा। किसी भी अच्छे खाते-पीते और पढ़े-लिखे मुसलमान (अपवादों को छोडकर) के यहां ज्यादा बच्चे नहीं होते। बच्चे पैदा करने की मशीन तो गरीब और अशिक्षित हिंदू या मुसलमान ही होता है।

कहने का मतलब यह कि जो समुदाय जितना ज्यादा गरीब और अशिक्षित होगा, उसकी आबादी भी उतनी ही ज्यादा होगी। अफसोस की बात यह है कि समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के आबादी संबंधी इन सामान्य नियमों को नफरत के सौदागर समझना चाहे तो भी नहीं समझ सकते, क्योंकि उनके इरादे तो कुछ और ही हैं। लेकिन जनसंख्या वृद्धि से संबंधित आंकडों और तथ्यों की रोशनी में यही कहा जा सकता है कि जनसंख्या विस्फोट पर सरकार के नीति नियामकों का और सत्तारूढ़ दल के सहयोगी संगठनों का चिंता जताना सिर्फ अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर सरकार की नाकामी से ध्यान हटाने का उपक्रम ही है, इससे ज्यादा कुछ नहीं।

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) सौज- न्यूजक्लिक

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