राजद्रोह क़ानून पर सुप्रीम कोर्ट के तेवर तल्ख़ क्यों हैं?

यूसुफ़ अंसारी

इस तरह की टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट कई बार कर चुका है। यह पहली बार है कि वह राजद्रोह के क़ानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रहा है। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट पहले कई बार राजद्रोह क़ानून को ख़त्म करने संबंधी याचिकाओं को खारिज कर चुका है। 

सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह क़ानून को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई शुरू कर दी है। पहले ही दिन कोर्ट ने यह सवाल उठा दिया है कि क्या अंग्रेज़ी हुकूमत में अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटने के लिए बनाए गए इस क़ानून की आज कोई ज़रूरत है? सुप्रीम कोर्ट ने इसे संस्थानों के काम करने के रास्ते में गंभीर ख़तरा बताते हुए इसकी ऐसी असीम ताक़त के ग़लत इस्तेमाल की आशंका जताई है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वह नोटिस जारी करके केंद्र से इस पर जवाब मांगेगा।

तीन जजों की बेंच में सुनवाई

सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ राजद्रोह क़ानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस एनवी रमन्ना इस पीठ का नेतृत्व कर रहे हैं। जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस हृषिकेश रॉय पीठ के अन्य सदस्य हैं। पहले ही दिन सुनवाई के दौरान पीठ ने इस क़ानून को लेकर काफ़ी तल्ख़ टिप्पणी की है। यह याचिका मैसूर के मेजर जनरल (रिटायर्ड) एसजी वोम्बटकेरे ने दाख़िल की है। इसमें आईपीसी की धारा 124ए (यानी राजद्रोह जिसे अक्सर देशद्रोह कह दिया जाता है) की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है। याचिका में इसे आईपीसी से पूरी तरह हटाने की अपील की गई है।

क्या कहा गया है याचिका में?

मेजर-जनरल एसजी वोम्बटकेरे (सेवानिवृत्त) की इस याचिका में कहा गया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए, जो राजद्रोह के अपराध से संबंधित है, पूरी तरह से असंवैधानिक है और इसे स्पष्ट रूप से समाप्त किया जाना चाहिए। याचिकाकर्ता का तर्क है कि ‘सरकार के प्रति अरुचि’ आदि की असंवैधानिक रूप से अस्पष्ट परिभाषाओं पर आधारित यह क़ानून अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की गारंटी पर एक अनुचित प्रतिबंध है। इससे अभिव्यक्ति के संवैधानिक अधिकार का हनन होता है।

क्या है राजद्रोह क़ानून?

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए राजद्रोह को ऐसे किसी भी संकेत, दृश्य, या शब्दों के रूप में परिभाषित करती है, जो बोले या लिखे गए हैं, जो सरकार के प्रति ‘घृणा या अवमानना, या उत्तेजना या असंतोष को उत्तेजित करने का प्रयास’ कर सकते हैं। ब्रिटिश प्रशासन के दौरान इस क़ानून का इस्तेमाल हुकूमत की आलोचना करने वालों के ख़िलाफ़ किया जाता था। 

आज़ादी के बाद देश और राज्यों में बनी सरकारों ने भी विरासत में मिले इस क़ानून का वैसा ही इस्तेमाल जारी रखा। आज स्वतंत्र भारत में यह लिखने और बेलने की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का एक हथियार बन गया है।

कितनी हो सकती है सजा?

राजद्रोह एक ग़ैर-ज़मानती अपराध है। राजद्रोह के मामले में दोषी पाए जाने पर आरोपी को तीन साल से लेकर उम्रकैद तक की सज़ा हो सकती है। इसके साथ ही इसमें जुर्माने का भी प्रावधान है। राजद्रोह के मामले में दोषी पाए जाने वाला व्यक्ति सरकारी नौकरी के लिए आवेदन नहीं कर सकता है। उसका पासपोर्ट भी रद्द हो जाता है। ज़रूरत पड़ने पर उसे कोर्ट में हाज़िर होना पड़ता है।

क्या कहते हैं आँकड़े?

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की साल 2019 की रिपोर्ट में दर्ज आँकड़ों से पता चलता है कि केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद राजद्रोह के मामलों में बहुत तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। इसी साल 21 मार्च को सरकार ने लोकसभा में एक लिखित सवाल के जवाब में बताया कि साल 2019 में देशभर में राजद्रोह के 93 मामले दर्ज किए गए। सबसे ज़्यादा 22 मामले कर्नाटक में, उसके बाद असम में 17, जम्मू-कश्मीर में 11, उत्तर प्रदेश में 10, नगालैंड में 8 और तमिलनाडु में 4 मामले दर्ज किए गए। ये आँकड़े बताते हैं कि बीजेपी शासित राज्यों में राजद्रोह क़ानून का ज़्यादा इस्तेमाल हो रहा है।

हैरान करने वाले आँकड़े

पिछले छह सालों के आँकड़ों का विश्लेषण करने से और भी हैरान करने वाली बाते सामने आती है। साल 2014 में देश भर में राजद्रोह के कुल 47 मामले दर्ज हुए थे।  इनमें से सिर्फ़ 14 मामलों में ही चार्जशीट दाखिल हो पाई और 4 मामलों में सुनवाई पूरी हो पाई और सज़ा सिर्फ़ एक को मिली। इस तरह सज़ा कन्विक्शन रेट 25% रहा। साल 2015 में 30 मामले दर्ज हुए, 6 में चार्जशीट दाखिल हुई 4 में सुनवाई पूरी हुई लेकिन सज़ा किसी को भी नहीं मिली। 2016 में दर्ज हुए 35 मामलों में से 16 में चार्जशीट दाखिल हुई, तीन में सुनवाई पूरी हुई और सज़ा सिर्फ़ एक को मिली। इस तरह कन्विक्शन रेट 33.3% रहा। 2017 में कुल दर्ज हुए 51 मामलों में से 27 में चार्जशीट दाखिल हो पाई, 6 मामलों में सुनवाई पूरी हो सकी और एक को सज़ा मिली। कन्विक्शन रेट 16.7% रहा। 2018 में कुल 70 मामले दर्ज हुए। इनमें से 38 में चार्जशीट दाख़िल हुई, 13 में सुनवाई पूरी हुई और 2 को सज़ा मिली। कन्विक्शन रेट 15.4% रहा। 2019 में दर्ज किए गए 93 मुक़दमों में से सिर्फ़ 40 में ही चार्जशीट दाखिल हो पाई, 30 में सुनवाई पूरी हुई और सज़ा एक को हुई। कन्विक्शन रेट 3.3% रहा।

अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंट रहा क़ानून?

हाल ही में ऐसी कई घटनाएँ सामने आई हैं जिनसे यह धारणा बनी है कि इस क़ानून का इस्तेमाल अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटने के लिए किया जा रहा है। क्लाइमेट एक्टिविस्ट दिशा रवि, डॉ. कफील खान से लेकर शफूरा जरगर तक ऐसे कई लोग हैं जिन्हें राजद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया जा चुका है। सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस मदन बी लोकुर का कहना है कि सरकारें बोलने की आज़ादी पर अंकुश लगाने के लिए राजद्रोह क़ानून का सहारा ले रही हैं।

पत्रकारों पर शिकंजा

पिछले साल 6 मई को देश के जाने माने वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के ख़िलाफ़ हिमाचल प्रदेश के एक स्थानीय बीजेपी नेता श्याम ने शिमला में एफ़आईआर दर्ज करवाई थी। शिकायत में कहा गया था कि दुआ ने अपने यूट्यूब कार्यक्रम में प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ कुछ आरोप लगाए थे। विनोद दुआ ने इस मुक़दमे को ख़त्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। उन्होंने देश की सबसे बड़ी अदालत से आग्रह किया था कि 10 साल से ज़्यादा अनुभव वाले पत्रकारों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर तब तक दर्ज नहीं होनी चाहिए जब तक कि उसे एक समिति पास ना कर दे। हालाँकि न्यायाधीश यूयू ललित और विनीत शरण ने यह अपील ठुकरा दी थी लेकिन बाद में विनोद दुआ के ख़िलाफ़ दर्ज मामला ख़त्म करने का आदेश दिया था।

केरल का पत्रकार

पिछले साल 7 अक्टूबर को केरल के एक पत्रकार सिद्दीकी कप्पन पर ग़ैर क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967, (यूएपीए) के तहत देशद्रोह और विभिन्न अपराधों का आरोप लगाया गया। वह उस वक़्त हाथरस में एक दलित लड़की के साथ हुई सामूहिक बलात्कार की घटना की रिपोर्टिंग के लिए जा रहे थे। उन्हें रास्ते में ही गिरफ्तार किया गया था। तब से वह जेल में बंद हैं। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान उन्हें कोरोना संक्रमण होने पर इलाज के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा था।

पहले क्या कहा है सुप्रीम कोर्ट ने

सुप्रीम कोर्ट राजद्रोह के क़ानून के ग़लत इस्तेमाल पर कई राज्य सरकारों और पुलिस को पहले भी कई बार फटकार लगा चुका है। केदारनाथ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जब तक आरोपी व्यक्ति क़ानूनन स्थापित सरकार के ख़िलाफ़ या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने के इरादे से लोगों को हिंसा के लिए उकसाता है, तब तक देशद्रोह का अपराध नहीं बनता है। इसने कहा था कि पुलिस को या तो इसकी जानकारी नहीं है या वह जानबूझकर इसकी अनदेखा करती है।

इस तरह की टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट कई बार कर चुका है। यह पहली बार है कि वह राजद्रोह के क़ानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रहा है। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट पहले कई बार राजद्रोह क़ानून को ख़त्म करने संबंधी याचिकाओं को खारिज कर चुका है। बहरहाल, अब जब इस मुद्दे पर सुनवाई करने का ऐतिहासिक क़दम उठा लिया है तो माना जाना चाहिए इस पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला भी ऐतिहासिक होगा।

सौज- सत्यहिन्दी

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