अमृत महोत्सव वर्ष में आज़ाद भारत की विभीषिका बताती हैं ये चार तस्वीरें

प्रेम कुमार

बंटवारे के वक्त तो बंटे हुए लोग एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो रहे थे। आज़ाद हिन्दुस्तान के नागरिक तो बंटे हुए नहीं हैं फिर भी वे एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे क्यों हो जाते हैं? क्यों आज़ाद हिन्दुस्तान का नागरिक प्रशासन अपने नागरिकों के ही ख़ून बहाने को तुला हुआ है? और, क्यों यह विभीषिका नहीं है?

28 अगस्त 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जलियांवाला बाग स्मारक का लोकार्पण किया। अंग्रेजी राज में 10 मिनट की क्रूरता को आज़ादी के इतिहास का महत्वपूर्ण पल बताया। मगर, 10 महीने से किसानों पर बरती जा रही क्रूरता पर पूरी तरह मौन रहे प्रधानमंत्री। क्या ये वक्त आज़ादी के बाद के 75 वर्षों के इतिहास में विशेष नहीं हो चुका है जिसमें 500 से ज्यादा आंदोलनकारी किसानों की जानें चली गयी हैं, जिस दौरान पुलिस की लाठियों से किसानो के कपड़े ख़ून से तर-बतर हो गये हैं!

आज़ादी के 75वें साल में जारी अमृत महोत्सव के दौरान चार अन्य तस्वीरें भी देश ने 28 अगस्त को देखी। इनमें दो तस्वीरों ने जहां जलियांवाला बाग कांड के गमगीन पलों को जिन्दा कर दिखाया, वहीं तीसरी तस्वीर ने यह बताया कि दबे-कुचले आदिवासियों के लिए आज़ादी का मतलब कभी भी क्रूरतापूर्वक बेमौत मारा जाना है। चौथी तस्वीर में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद पंडित जवाहर लाल नेहरू को अमृत महोत्सव के पोस्टर के लायक नहीं समझती।

अमृत महोत्सव के दौरान की ये चार तस्वीरें

  • पहली तस्वीर : एक आईएएस अधिकारी पुलिस अफसरों को निर्देश दे रहा है कि उसे किसानों के सिर फोड़ने हैं। 
  • दूसरी तस्वीर : पुलिस उस निर्देश पर अमल करती हुई दिख रही है और किसान लहूलुहान हो रहे हैं। 
  • तीसरी तस्वीर : बंधे पैरों से बीच सड़क पर गाड़ी से घसीटा जाता आदिवासी युवक जिसे नहीं मालूम कि उसकी मौत को आज़ाद हिन्दुस्तान जुल्म की तस्वीर मानने वाला है या कुर्बानी की। 
  • चौथी तस्वीर : अमृत महोत्सव पर भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की ओर से जारी पोस्टर जिसमें गांधी की हत्या के अभियुक्त रहे सावरकर हैं लेकिन आधुनिक भारत के निर्माता नेहरू नहीं। सरकारी बौद्धिक समूह के दिवालिएपन की यह तस्वीर है।

सचमुच नया जलियांवाला बाग 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जलियांवाला बाग के नये स्वरूप का उद्घाटन किया जिसे कहा गया नया जलियांवाला बाग। नाम में ही नहीं चरित्र में भी देश में नया जलियांवाला बाग पैदा होता हम देख पा रहे हैं। दोनों स्थितियों में फर्क को समझने में बहुत मुश्किल नहीं आने वाली है।

जलियांवाला बाग कांड के बाद अंग्रेजों में कई ऐसे थे, जो इसे सही ठहरा रहे थे। किसान आंदोलन से संबंधित क्रूर तस्वीरों को सही ठहराने वाले आज भी हैं। तब घटना की जांच के लिए हंटर आयोग बना था। आज घटना की जांच के लिए ऐसा कोई क़दम उठाया जाएगा, इसकी संभावना नहीं के बराबर है। घटना की निन्दा करने शासन-प्रशासन या सत्ताधारी दल के नेता सामने नहीं आए हैं। अमृत महोत्सव के दौरान बहते ये विष पीने के लिए आम जनता तैयार है। मगर, अंजाम क्या होगा- कभी सोचा है हमने?

उधम सिंह फिर क्यों पैदा नहीं ले सकते?

जलियांवाला बाग कांड का ज़िम्मेदार ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड डायर समय से पहले रिटायर कर दिया गया था जबकि लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर लंदन भाग गया। एक की मौत 1927 में हो गयी, जबकि दूसरे को मौत की नींद सुलाने और फांसी पर चढ़ जाने के लिए सात समंदर पार पहुंच गये उधम सिंह। उधम सिंह ने जनरल डायर को सज़ा देना इसलिए ज़रूरी समझा था क्योंकि वह बार-बार यह दोहराया करता था कि अगर उसे दोबारा जलियांवाला बाग हत्याकांड करने का मौक़ा मिले तो वह उसे फिर अंजाम देगा। कहने की ज़रूरत नहीं कि आने वाले समय में बार-बार जनरल डायर के किए कृत्य के लिए इंग्लैंड को सिर झुकाना पड़ा।

रेजिनाल्ड डायर या माइकल ओ डायर भारतीय नहीं था। भारतीयों के लिए उसकी नफ़रत को उसकी प्रवृत्ति माना जा सकता है। फिर भी उन्हें माफ नहीं किया गया। लेकिन, हरियाणा के करनाल में आईएएस अधिकारी तो अपने ही किसान भाइयों का ख़ून बहाने की बात कह रहे हैं वह भी आज़ाद हिन्दुस्तान में।

गुलाम और आज़ाद भारत की सरकारों में भी स्वाभाविक तुलना हो आती है। तब की ब्रिटिश सरकार चुप्पी तोड़ने को विवश हो गयी थी। आज की सरकार क्या इस घटना पर चुप्पी तोड़ेगी?
आदिवासी क्या इंसान नहीं रह गये?

देश के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में आदिवासियों की भूमिका हमेशा नज़रअंदाज़ की जाती रही है। 1857 के विद्रोह से पहले संथाल विद्रोह हुआ। सिधू-कान्हू-चांद-भैरव के नेतृत्व में शुरू हुए इस विद्रोह में एक साल में 10 हजार आदिवासियों ने शहादत दी थी। बिरसा मुंडा के नेतृत्व में आदिवासियों ने 1895 में ब्रिटिश सरकार के साथ ईंट से ईंट बजा दी थी।

अमृत महोत्सव में किसी आदिवासी स्वातंत्र्यवीरों की तस्वीर नहीं होना भी उनकी भारी उपेक्षा है। आदिवासी समुदाय के साथ इसी भेदभावपूर्ण नज़रिए की तस्दीक करती है मध्यप्रदेश के नीमच की तस्वीर। क्या हम किसी जानवर को भी इस तरह बीच सड़क पर गाड़ी से घसीटे जाने की सभ्य समाज में कल्पना कर सकते हैं? क्या आदिवासियों के लिए हमारा नज़रिया किसी जानवर से भी कमतर है? 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जलियांवाला बाग कांड जैसी विभीषिका लगता है बंटवारे के वक्त हुआ खून-ख़राबा। मगर, आज़ाद हिन्दुस्तान में होती मॉब लिंचिंग, आदिवासी को गाड़ी से घसीटकर मारने जैसी घटनाएं, सांप्रदायिक उन्माद और दंगे की घटनाएं विभीषिका क्यों नहीं लगती? 

बंटवारे के वक्त तो बंटे हुए लोग एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो रहे थे। आज़ाद हिन्दुस्तान के नागरिक तो बंटे हुए नहीं हैं फिर भी वे एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे क्यों हो जाते हैं? क्यों आज़ाद हिन्दुस्तान का नागरिक प्रशासन अपने नागरिकों के ही ख़ून बहाने को तुला हुआ है? और, क्यों यह विभीषिका नहीं है?

प्रेम कुमार समसामयिक विषयों पर लिखते रहते हैं।सौज- सत्यहिन्दी

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