एक संपादक के रूप में महात्मा गांधी प्रेस और सरकार की निरंकुशता को किस तरह देखते थे?

आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है. महात्मा गांधी का मानना था कि कलम की निरंकुशता खतरनाक हो सकती है, लेकिन उस पर व्यवस्था का अंकुश ज्यादा खतरनाक है

महात्मा गांधी ने अपनी पहली और सबसे महत्वपूर्ण किताब ‘हिंद स्वराज’ संपादक और पाठक के बीच सवाल-जवाब के रूप में लिखी थी. इस किताब में पाठक की भूमिका वाले गांधी ने संपादक की भूमिका वाले गांधी से आत्मसंवाद के जरिए संसार से संवाद करने का यह तरीका भले ही उनके शब्दों में उन्होंने केवल लेखकीय ‘सुभीते’ की वजह से अपनाया हो, लेकिन अपने साप्ताहिक अखबार इण्डियन ओपीनियन की संपादकीय जिम्मेदारियों ने उन्हें ऐसे सवाल-जवाब का अभ्यस्त बना दिया था. बाद में भी, न केवल इण्डियन ओपीनियन, बल्कि हरिजन, यंग इंडिया, दैनिक नवजीवन और हरिजनसेवक जैसे पत्रों के माध्यम से पाठकों के कटु से कटु सवालों का सहजता से जवाब देना उन्होंने नियमित रूप से जारी रखा था. साथ ही, प्रेस की स्वतंत्रता जैसे प्रश्नों पर भी उन्होंने खुलकर अपने विचार रखे थे. लेकिन विडंबना है कि आज़ाद भारत में संसदीय लोकतंत्र और तमाम संवैधानिक आश्वासनों के बाद भी हम घूम-फिर कर एक बार फिर से आज उसी सवाल के साथ खड़े हैं कि प्रेस या आज के स्वरूप में मीडिया यदि सवाल नहीं पूछेगा, तो आखिर करेगा क्या? और लोकतांत्रिक व्यवस्था चूंकि जवाबदारी की बुनियाद पर ही खड़ी है, इसलिए शासन और सरकार यदि जवाब नहीं देगी, तो फिर करेगी क्या?

दक्षिण अफ्रीका के अपने अख़बारी दिनों को याद करते हुए महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है – ‘समाचार-पत्र सेवाभाव से ही चलाने चाहिए. समाचार-पत्र एक जबर्दस्त शक्ति है; लेकिन जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गांव के गांव डुबो देता है और फसल को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार निरंकुश कलम का प्रवाह भी नाश की सृष्टि करता है. लेकिन यदि ऐसा अंकुश बाहर से आता है, तो वह निरंकुशता से भी अधिक विषैला सिद्ध होता है. अंकुश अंदर का ही लाभदायक हो सकता है.’

गांधी लिखते हैं, ‘मैं संपादक के दायित्व को भली-भांति समझने लगा और मुझे समाज के लोगों पर जो प्रभुत्व प्राप्त हुआ, उसके कारण भविष्य में होनेवाली लड़ाई संभव हो सकी

गांधी ने उस समय के अपने अनुभवों के आधार पर इसका समाधान देते हुए कहा था- ‘…(अपने अख़बार) में मैंने एक भी शब्द बिना विचारे, बिना तौले लिखा हो या किसी को केवल खुश करने के लिए लिखा हो अथवा जान-बूझकर अतिशयोक्ति की हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता. मेरे लिए यह अख़बार संयम की तालीम सिद्ध हुआ था. ….मैं संपादक के दायित्व को भली-भांति समझने लगा और मुझे समाज के लोगों पर जो प्रभुत्व प्राप्त हुआ, उसके कारण भविष्य में होनेवाली लड़ाई संभव हो सकी, वह सुशोभित हुई और उसे शक्ति प्राप्त हुई.’

गांधी का सुझाव था, ‘हमारे यहां पत्रकार संघ है. वह एक ऐसा विभाग क्यों न खोले, जिसका काम विभिन्न समाचार-पत्रों को देखना और आपत्तिजनक लेख मिलनेपर उन पत्रों के संपादकों का ध्यान उस ओर दिलाना हो?’

इसी प्रश्न पर 28 मई, 1931 को ‘यंग इंडिया’ में महात्मा गांधी ने ‘विषैली पत्रकारिता’ शीर्षक से की गई एक टिप्पणी में लिखा- ‘अख़बारों की नफरत पैदा करनेवाली बातों से भरी हुई कुछ कतरनें मेरे सामने पड़ी हैं. इनमें सांप्रदायिक उत्तेजना, सफेद झूठ और खून-खराबे के लिए उकसानेवाली राजनीतिक हिंसा के लिए प्रेरित करनेवाली बातें हैं. निस्संदेह सरकार के लिए मुकदमे चलाना या दमनकारी अध्यादेश जारी करना बिल्कुल आसान है. पर ये उपाय क्षणिक सफलता के सिवाय अपने लक्ष्य में विफल ही रहते हैं; और ऐसे लेखकों का हृदय-परिवर्तन तो कतई नहीं करते, क्योंकि जब उनके हाथ में अख़बार जैसा प्रकट माध्यम नहीं रह जाता, तो वे अक्सर गुप्त रूप से प्रचार का सहारा लेते हैं.’

उन्होंने आगे लिखा- ‘इसका वास्तविक इलाज तो वह स्वस्थ लोकमत है, जो विषैले समाचार-पत्रों को प्रश्रय देने से इनकार करता है. हमारे यहां पत्रकार संघ है. वह एक ऐसा विभाग क्यों न खोले, जिसका काम विभिन्न समाचार-पत्रों को देखना और आपत्तिजनक लेख मिलनेपर उन पत्रों के संपादकों का ध्यान उस ओर दिलाना हो? दोषी समाचार-पत्रों के साथ संपर्क स्थापित करना और जहां ऐसे संपर्क से इच्छित सुधार न हो, वहां उन आपत्तिजनक लेखों की प्रकट आलोचना करना ही इस विभाग का काम होगा. अख़बारों की स्वतंत्रता एक बहुमूल्य अधिकार है और कोई भी देश इस अधिकार को छोड़ नहीं सकता. लेकिन यदि इस अधिकार के दुरुपयोग को रोकने की कोई सख्त कानूनी व्यवस्था न हो, केवल बहुत नरम किस्म की कानूनी व्यवस्था हो, जैसा कि उचित भी है, तो भी मैंने जैसा सुझाया है, रोकथाम की एक आंतरिक व्यवस्था करना असंभव नहीं होना चाहिए और उसपर लोगों को नाराज भी नहीं होना चाहिए.

गांधी लिखते हैं, ‘स्व-विनियमन या आत्म-नियंत्रण का तर्क यदि सच हो तो दुनिया के कितने समाचार-पत्र इस कसौटी पर खरे उतर सकते हैं? लेकिन निकम्मों को बंद कौन करे?’

एक बात हमेशा याद रखने की है कि हम किसी भी संप्रदाय, विचारधारा, राजनीतिक दल और पक्ष-विपक्ष भी कम से कम तभी हो पाएंगे, जब बोलने और लिखने का हमारा अपना नैसर्गिक और अविच्छेद्य अधिकार सुरक्षित रहेगा. इसमें हमें किसी शासन-व्यवस्था, सरकार, संगठन या राजनीतिक दल की चालाकी नहीं चलनी देनी चाहिए. किसी भी प्रलोभन में आकर, किसी भी क्षणिक राजनीतिक लाभ के लिए, किसी भी कीमत पर हम अपनी यह आज़ादी न खोएं. जनता यह याद रखे कि उसके पास सवाल उठाने का अधिकार रहेगा, तभी वह प्रेस और सरकार दोनों पर सवाल उठा पाएगी.

रही बात मीडिया के आपसी वैविध्यता की तो तरह-तरह की सामाजिक गैरबराबरी को देखते हुए एक हद तक यह स्वाभाविक और अनिवार्य भी है कि प्रेस और मीडिया के नाम पर सभी तरह के तत्व सक्रिय रहेंगे. इस बारे में भी यदि हम गांधी की कही हुई बात याद रखें तो शायद अनावश्यक कोफ़्त से बचे रहेंगे. अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है – ‘…(स्व-विनियमन या आत्म-नियंत्रण) का यह तर्क यदि सच हो तो दुनिया के कितने समाचार-पत्र इस कसौटी पर खरे उतर सकते हैं? लेकिन निकम्मों को बंद कौन करे? कौन किसे निकम्मा समझे? भलाई और बुराई की तरह उपयोगी और निकम्मे अख़बार भी साथ-साथ चलते रहेंगे. लोगों को उनमें से अपनी-अपनी पसंद चुननी होगी.’

सत्याग्रह में प्रकाशित के संपादित अंश

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