भारतीय इतिहास को लेकर जी डी बख़्शी के दावे और पुरातत्वविद् शिरीन रत्नागर के जवाब

जेएनयू के एक वेबिनार में भारतीय इतिहास को लेकर सेवानिवृत्त मेज़र जनरल, जी.डी.बख़्शी के “सरस्वती सभ्यता” पर व्याख्यान  में किये गये एक-एक दावों को लेकर पुरातत्वविद शिरीन रत्नागर ने जवाब दिया है। कई वर्षों से सिंधु घाटी सभ्यता पर काम कर रहीं प्रख्यात पुरातत्वविद् रत्नागर की अब तक कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं और उन्हें इस विषय के अग्रणी विशेषज्ञों में से एक माना जाता है।

अचानक 8 जून को जेएनयू के कुलपति एम.जगदीश कुमार ने कुछ दिनों बाद 13 जून को विश्वविद्यालय के ऐतिहासिक अध्ययन केंद्र (सीएचएस) द्वारा आयोजित होने वाले एक वेबिनार का पोस्टर ट्वीट किया। “सरस्वती सभ्यता: भारतीय इतिहास में एक आमूल बदलाव” नामक शीर्षक से आयोजित इस वेबिनार में भारतीय सेना के एक सेवानिवृत्त मेज़र जनरल, जीडी बख़्शी ने इस विषय पर लम्बे समय तक विस्तार से अपनी बात रखी। इस व्यक्ति को लेकर जब गूगल सर्च किया जाता है, तो कई वीडियो, साक्षात्कार और दूसरी जानकारियां मिलती हैं, लेकिन इनमें से कोई भी वीडियो, साक्षात्कार या अन्य जानकारियां ऐसी नहीं है, जो भारतीय इतिहास या सिंधु घाटी सभ्यता में उनकी विशेषज्ञता को रेखांकित करते हों। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि बख़्शी ने इस वेबिनार में जो तर्क दिये, उनमें से कई तर्कों में ऐतिहासिक और तार्किक विकृतियां थीं। जैसा कि विभाग के संकाय सदस्यों ने बाद में बताया था कि यह फ़ैसला उन सभी से परामर्श किये बिना ही ले लिया गया था।

हम यहां भारतीय इतिहास को लेकर बख़्शी के उन कुछ दावों को प्रस्तुत कर रहे हैं, जिनमें से “सरस्वती सभ्यता” पर उनके व्याख्यान में किये गये एक-एक दावों को लेकर शिरीन रत्नागर ने जवाब दिया है। कई वर्षों से सिंधु घाटी सभ्यता पर काम कर रहीं प्रख्यात पुरातत्वविद् रत्नागर की अब तक कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं और उन्हें इस विषय के अग्रणी विशेषज्ञों में से एक माना जाता है।

 “तथाकथित सिंधु घाटी सभ्यता के 60-80 स्थल सिंधु के किनारे नहींबल्कि अब सूख चुकी सरस्वती नदी के किनारे मौजूद हैं।”

सबसे पहली बात तो यह कि आख़िर वे साठ स्थल कौन-कौन से हैं? इस तरह के सामान्यीकरण को विशिष्ट डेटा, यानी, स्थलों के नाम, या आधुनिक शहरों के पास कम से कम स्थलों की संख्या के साथ रखे जाने की ज़रूरत होती है। दूसरी बात कि क्या उसके लिए यह महत्वपूर्ण है कि अगर हम कहें कि वे एक शिष्ट हिंदू शब्द सरस्वती का नाम लेकर झूठ बोल रहे हैं, तो हमारे स्कूली बच्चे भला कैसे भूल सकते हैं कि यह पाकिस्तान और भारत दोनों की सभ्यता है? क्या सुदूर अतीत की चर्चा करने वालों के लिए पाकिस्तान सिर्फ एक ख़लनायक या बुरी ताक़त है?

 क्या हम मुग़ल इतिहास, भाषा, सिख धर्म और साथ ही इस्लाम को पाकिस्तान के साथ साझा नहीं करते हैं?

 बख़्शी शायद भूल जाते हैं प्राचीन कुषाण साम्राज्य और गांधार कला पोटवार पठार और ऊपरी सिंधु घाटी में केंद्रित था।

इसके बाद, कई फ़सलों और जानवरों को लेकर भी उलझन है। जहां तक हमारे पास सबूत होने की बात है,तो दक्षिण एशिया में गेहूं, जौ, भेड़-बकरियों और हमारे बेहद प्रिय कूबड़ वाले पशु का पहला केंद्र मेहरगढ़ ही था। वहां कपास भी था, जिसके लिए भारत बाद के इतिहास में प्रसिद्ध था। बख़्शी के तर्क से तो हमें यह कहना होगा कि मेहरगढ़ भी भारत में ही है।

“इन स्थलों से जो मृण्मूर्तियों यानी टेराकोटा मूर्तियों बरामद की गयी है,उनमें बिंदी, सिंदूर, मंगल सूत्र, और चूड़ियां हैं; योग की मुद्रा वाली मूर्तियों की भी खोज की गयी है,ये सभी चीज़ें साबित करती हैं कि इन सभी चीज़ों के इस्तेमाल की परंपरायें 8000 साल पुरानी हैं और ये परंपरायें अब भी जारी हैं।”

“ये परंपरायें” महज सामान्य महत्व की हैं। इसी तरह,पश्चिमी एशिया में कई सारे मिस्रवासियों और अन्य परंपराओं के लोगों द्वारा मोतियों या चूड़ियों के पहने जाने का रिवाज़ था,जिसका समय भी प्राचीन काल ही है। “ये परंपरायें” भी महज सामान्य महत्व की हैं।

 यूट्यूब पर एक फ़िल्म है,जो दिखाती है कि किस तरह जॉर्डन में रोटी बनाने की परंपरा थी, जिसका समय प्रागैतिहासिक काल है। हालांकि, इस फ़िल्म की पटकथा लेखकों ने इस परंपरा के भीतर हो रहे सूक्ष्म परिवर्तनों का भी उल्लेख किया है।

 परिभाषा के मुताबिक़,परंपरा को बदल रहे सौंदर्यशास्त्र, प्रौद्योगिकी और दिन-ब-दिन की ज़रूरतों के हिसाब से बदलना होता है। वरना एक ही बात को बार-बार करते जाना एक बेजान पंरपरा की तरह होता है। कोई चूड़ी तो पूरी दुनिया में आख़िर चूड़ी ही होती है।

 संयोग से इंद्रगोप (carnelian) के लंबे, लाल निर्मल मोतियां हड़प्पा वासी अपनी गर्दन या संभवतः कमर में भी पहनते थे, और निर्यात किया करते थे, लेकिन इस इंद्रगोप को पहनने की परंपरा बाद के भारत की परंपरा का कोई हिस्सा नहीं रहा। यही हाल शैलखटी यानी स्टीटाइट के पेस्ट से बने “छोटे-छोटे मनकों” का भी है। ऐसा लगता है कि इन मनकों को बनाने के पीछे की प्रौद्योगिकियां समय के साथ ख़त्म हो चुकी हैं।

हड़प्पा की सभी परंपरायें मौजूदा वक्त तक नहीं बनी रह सकती थीं, उदाहरण के लिए उनकी लेखन प्रणाली अस्तित्व में नहीं रही। लेकिन,ऐसा भी नहीं है कि एक ही समय में सभी जगह सब कुछ ख़त्म हो जाये। पाकिस्तान में जौ के बीज को भूनने के लिए चूल्हे बनाना और यहां तक कि उनके निर्माण के रूप-रंग भी हाल तक बने रहे।

 “ये इस बात को भी साबित करते हैं कि एक सभ्यता के रूप में हम मिस्र, मेसोपोटामिया, ग्रीक, रोमन और यहां तक कि माया सभ्यता से भी पुराने हैं।”

 बच्चों की ज़्यादातर इतिहास की किताबों में विभिन्न प्रकार के चार्ट और घटनाक्रम इस बात को बख़ूबी दर्शाते हैं।

 “एक के बाद एक होते हमले के चलते हम 800 वर्षों तक ग़ुलाम रहे। हमारे शहर जला दिये गये, मंदिर नष्ट कर दिये गये, महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और उन्हें बखरा, समरकंद और काबुल के वेश्यालय में बेच दिया गया। भारत पर हमला करने वाले अफ़ग़ान, अरब, मंगोल, तुर्क और मुग़लों के साथ हमने ज़ुल्म के 600 साल गुज़ारे।”

 वह इंग्लैंड को थोड़ा जानता है,जो महज इंग्लैंड को जानते हैं।

भारत में रहने वाले अंग्रेज़ों पर की गयी इस इस टिप्पणी के विलाप का श्रेय रुडयार्ड किपलिंग को दिया जाता है। हम “इंग्लैंड” के एवज में “भारत” को रख सकते थे।

आइये, हम भारत के अलावा किसी अन्य देश पर नज़र डालें। मेसोपोटामिया (वर्तमान इराक) का मामला लेते हैं।

2400 ईसा पूर्व के आसपास अक्कादियाई लोगों ने यूफ़्रेट्स-टिगरिस घाटी के दक्षिण में हमला किया और एक साम्राज्य स्थापित कर लिया; यहां धीरे-धीरे लिखित और बोली जाने वाली भाषा सुमेरियन की जगह अक्कादियाई हो गयी। कसाइटों ने क़ानून देने वाले हम्मूरावी और उनके वंशज के बाद बेबिलोन में अपना शासन स्थापित कर लिया। उन्होंने 16 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बाद अगले चार शताब्दियों तक शासन किया। पुरातत्वविद् जोआन ओट्स कहते हैं, “वे स्पष्ट रूप से ग़ैर-मेसोपोटामियाई मूल के थे, लेकिन उन्हें विजेता विदेशी नहीं माना जा सकता।”

अकादियाइयों के बाद 1000 से 600 ईसा पूर्व की कालावधि तक आर्मेनियाइयों ने हुक़ूमत की। आर्मेनियाई वास्तव में पश्चिमी एशिया के अधिकांश हिस्सों में बोली जाने वाली एक सामान्य भाषा थी।

अर्मेनियाई पशुचारक जनजातियां 1500 ईसा पूर्व के आस-पास मध्य यूफ़्रेट्स और स्टेपी की चारों तरफ़ बस गयी थीं। असिरियाई महल पर की गयी उभरी हुई नक्काशियां क़लम और तख़्ती या फ़लक के साथ अक्कादियाई क्यूनिफॉर्म (असीरियाई) लिपि में लड़ाई के विवरणों को दर्ज किये जाने के साथ-साथ नामावली और पेन के साथ अरामाइक लिपि में लिखने वाले लोगों को भी दर्शाती हैं। हालांकि दरबारी कविता की साहित्यिक भाषा अक्कादियाई ही रही। इतिहासकारों का कहना है कि आप्रवासियों की आबादी के रूप में अर्मेनियाई लोग “ख़ामोशी के साथ सामान्य आबादी में घुलमिल” गये।

उसके बाद 9 वीं शताब्दी ईसा पूर्व से मेसोपोटामिया के किताबों में चेल्डियाइयों का ज़िक़्र मिलता है।

फ़ारसी हख़मनी राजवंश (Achaemenid dynasty) ने 538 ईसा पूर्व में बेबीलोनिया की समृद्ध भूमि पर हमला कर दिया। अब अपने प्राचीन साहित्य, मंदिर कला और वास्तुकला और गणित और चिकित्सा के लिए मशहूर यह गौरवशाली मेसोपोटामिया सभ्यता फ़ारसी साम्राज्य का कर भुगतान करने वाला एक सूबा बनकर रह गया। देशज सभ्यता, भाषा, संस्कृति थोड़े ही दिनों बाद समाप्त हो जायेंगी।

 सदियों बाद अरबों ने उस सासेनियाई ईरान पर धावा बोल दिया, जो रोमन बीजैन्टाइन साम्राज्य का एकमात्र प्रतिद्वंद्वी था, और मेसोपोटामिया को भी 7 वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य में नये इस्लामिक राज्य (यह ईरान का हिस्सा रहा था) द्वारा मिला लिया गया। अब यहां की भाषा अरबी हो गयी।

ख़िलाफ़त-ए-अब्बासिया का गढ़ बगदाद में था और यह इस्लाम का स्वर्ण युग था। हालांकि, बग़दाद लगभग 1258 ईस्वी में मंगोल हुक़ूमत के अंतर्गत आ गया।

तुर्कमेनों ने 14 वीं और 15 वीं शताब्दी ईस्वी में इराक़ पर शासन किया। उन्हें ईरान के सफ़वियों ने हरा दिया। इराक़ (मोसुल, बग़दाद और बसरा) 16 वीं शताब्दी में तुर्क साम्राज्य का एक सूबा बन गया।

मुझे पहले विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन द्वारा जीते गये इराक़ के मुख़्तारनामे या अमरीका और ब्रिटेन द्वारा 2004 में इराक़ पर हमला करने, इराक़ी सरकार को उखाड़ फेंकने और इसके पुरावशेषों को नष्ट करने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले युद्ध के समय का ब्योरा देने की ज़रूरत नहीं है।

19वीं सदी के संस्कृत, भाषाशास्त्र, तुलनात्मक धर्म विद्वान,योहान वुल्फगांग फ़ान गेटे ने कहा है, “वह, जो किसी एक को जानता है, असल में वह किसी को नहीं जानता है।” यही बात भाषा को लेकर भी थी। इसी उक्ति को मैक्स मूलर ने थोड़े से हेरफेर के साथ लिखा है, “वह जो किसी एक (धर्म) को जानता है, दरअस्ल वह किसी (धर्म) को नहीं जानता है”।

भारत एक विश्व शक्ति होने का दावा करता है। हालांकि कुछ अमेरिकी स्कूली बच्चे गिलगमेश के महाकाव्य को सीखते हैं, लेकिन हम अपने स्कूली बच्चों को भारत के अलावा अन्य प्राचीन सभ्यताओं के बारे में नहीं सिखाते हैं। 2004 में जब एनसीईआरटी ने मिस्र और मेसोपोटामिया को सिर्फ़ एक पेज दिया, तब मैंने इसे लेकर विरोध किया था, लेकिन ऐसा करते हुए मैं अलोकप्रिय हो गयी। इस समय हम उसी की क़ीमत चुका रहे हैं।

शिरीन एफ. रत्नागर एक सुप्रसिद्ध भारतीय पुरातत्वविद् हैं, जिनका काम सिंधु घाटी सभ्यता पर केंद्रित है। वह हड़प्पन आर्कियोलॉजी: अर्ली स्टेट पर्सपेक्टिव और द मैजिक इन द इमेज: विमेन इन क्ले एट मोहनजोदड़ो एंड हड़प्पा सहित कई ग्रंथों की लेखिका हैं।  सौजन्य: इंडियन कल्चरल फ़ोरम एवं न्यूज़क्लिक । अंग्रेजी में प्रकाशित मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं-

https://www.newsclick.in/Archaeologist-Shereen-Ratnagar-responds-GD-Bakshi-claims-Indian-history

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *