जामिया, मुजीब भाई और मैं(4 )- असग़र वजाहत

असग़र वजाहत (जन्म – 5 जुलाई 1946) – हिन्दी साहित्य  में  महत्त्वपूर्ण कहानीकार एवं   नाटककार के रूप में सम्मानित नाम हैं। इन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, फिल्म तथा चित्रकला आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान किया है। इन्होने दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में लगभग 40 वर्षों तक अध्यापन किया एवं हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे । हम उनके जामिया से जुड़े संस्मरण धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं । ( संपादक)

            धीरे-धीरे जामिया का अतीत मेरे ऊपर खुल रहा था और मुझे हैरानी हो रही थी कि 1925-30 के बीच कोई ऐसी संस्था थी जहाँ ऐसे प्रयोग किये जाते थे जैसे आजकल भी शायद संभव नहीं हैं। जामिया के अतीत पर बातचीत हो रही थी। मुजीब भाई ने बताया- ‘भई, एक साहब यहाँ पढ़ाने के लिए आये। उस ज़माने में लोग ये कहते थे कि हम नौकरी करने नहीं बल्कि ख़िदमत करने आये हैं और दरहंकींकत बात भी यही थी, क्योंकि तीन-तीन महीने तनख्वाह नहीं मिलती थी…हाँ तो मैं कह रहा था एक साहब पढ़ाने आये और उन्होंने कहा कि वे नये ढंग से बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं। नया ढंग उन्होंने यह बताया कि वे क्लास रूम में नहीं पढ़ायेंगे, दिन के वक्त नहीं पढ़ायेंगे…शाम को सूरज डूबने के बाद बच्चों को साथ लेकर जमुना के किनारे चले जायेंगे और वहाँ रेत पर बैठ कर पढ़ायेंगे।’ उन्होंने यह भी शर्त लगायी कि रात में जमुना के किनारे रेत पर जो क्लास लगेगी उसमें किताब, कलम और कांगज् ा रखने की इजाज् ात नहीं होगी…ख़ैर साहब, उनको एक क्लास का एक गु्रप सौंप दिया गया…पूरे सेशन उन्होंने पढ़ाया और जब इम्तिहान हुआ तो पाया गया कि उनके पढ़ाये गये बच्चे क्लास रूम में पढ़ाये गये बच्चों से ज्यादा नम्बर लाये हैं।’

            गाँधी जी के शिक्षा संबंधी विचारों से प्रभावित होने के कारण जामिया में स्कूल की शिक्षा और ‘उस्तादों की तालीम’ मतलब ‘टीचर्स ट्रेनिंग’ पर बहुत बल दिया जाता था। सन् 1930 के आसपास जब भारत के किसी भी विश्वविद्यालय में प्रौढ़ शिक्षा की कोई परिकल्पना भी नहीं थी, तब जामिया में प्रौढ़ शिक्षा का बहुत बड़ा विभाग था। इस विभाग में ऐसे महत्त्वपूर्ण काम हुए थे जिनको अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली थी। जामिया का नर्सरी स्कूल अपने आप में एक विलक्षण स्कूल था जिसे ‘मिस गैर्डा फिलिप्स बोर्न’, एक जर्मन महिला चलाती थीं। इन्हें जामिया बिरादरी ‘आपा जान’ कहती थी। आपा जान डॉ. ज़ाकिर  हुसैन से जर्मनी में मिली थीं और उनके विचारों से इतनी अधिक प्रभावित हो गयी थीं कि वे जर्मनी छोड़कर जामिया चली आयीं थीं। दूसरे विश्व युध्द के दौरान ब्रिटिश सरकार ने उन्हें नज़ररबंद कर लिया था क्योंकि वे जर्मन नागरिक थीं। कुछ समय बाद उनकी रिहायी हुई थी लेकिन बाद में वे काफी बीमार रहने लगी थीं। आपा जान जामिया में ही दंफन हैं।

            सन् 1930-35 के आसपास जामिया के सभी विभाग करोल बाग से जामिया नगर मतलब ओखला गाँव से मिली हुई ज़मीनों पर आ गये थे। जामिया के लोग चूंकि शिक्षा और जीवन के बीच गहरा संबंध मानते थे और उनका यह  भी विचार था कि शिक्षा का जीवन से सीधा संवाद होना चाहिए, इस दृष्टिकोण के अंतर्गत जामिया ने ओखला गाँव को ‘एडाप्ट’ कर लिया था। प्राचीन भारतीय परम्परा और गाँधीवादी विचारों के अंतर्गत इस गाँव को जामिया के अध्यापकों ने आत्म-निर्भर बनाया था। इस गाँव में बढ़ई, कुम्हार, धोबी, नाई, तेली, दर्जी, लुहार और मोची आदि की दुकानें थीं। गाँव की चौपाल को जामिया के अध्यापकों और छात्रों ने नया रूप दिया था।

            मथुरा रोड से लेकर ओखला तक आने वाली सड़क के दोनों तरफ नीम के विशाल पेड़ थे जिनके बारे में कहा जाता था कि वे जामिया के छात्रों और अध्यापकों ने लगाये थे। चूंकि ओखला गाँव में अधिकतर घोसियों की आबादी थी जिनका काम जानवर पालना और दूध का कारोबार करना है, इसलिए जामिया ने पशु-पालन और डेरी योजनाएं भी चलायीं थीं।

            ओखला ही नहीं बल्कि आसपास के दूसरे गाँवों तक जामिया के छात्रों और अध्यापकों का बहु-स्तरीय संपर्क था। इस सिलसिले में जामिया के सांस्कृतिक पक्ष के केवल एक हिस्से अर्थात्  ‘नाटक और रंगमंच’ को देखने और समझने से यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि आसपास के इलाके में जामिया का क्या प्रभाव था? सन् 1974 में मेरा लिखा एक ड्रामा ‘फिरंगी लौट आए’ जामिया में मंचित किया गया था। शो शुरु होने से पहले ‘ओपेन एयर थिऐटर’ में ओखला गाँव के कम-से-कम सौ-डेढ़ सौ लोग आ कर बैठ गये थे जिनमें औरतें और बच्चे भी शामिल थे। मैंने चूंकि इससे पहले नाटक के ऐसे दर्शक नहीं देखे थे इसलिए मैं कुछ हैरान-सा था। पूछने पर मुझे बताया गया कि यह तो कुछ भी नहीं है । जामिया का ‘ड्रामा क्लब’ जब गाँव वालों के लिए ही ड्रामा करता था तो सैकड़ों लोगों की भीड़ लग जाती थी और कई सप्ताह तक ड्रामे चलते थे। मतलब यह है कि जामिया ने आसपास के गाँवों में रंगमंचीय चेतना पैदा कर दी थी जिसका अपना रोचक इतिहास है।

            राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय हकीम अजमल ंखाँ जामिया को 1925 में अलीगढ़ से करोल बाग ले आये थे। उस समय यहाँ किसी प्रकार का मनोरंजन न था। उस जमाने में न सिर्फ यह इलाका दिल्ली से दूर था बल्कि आने-जाने के अच्छे साधन भी नहीं थे। अध्यापकों और छात्रों के पास इतने पैसे भी नहीं होते थे कि वे सिनेमा देखने जा सकें। इसलिए ये जरूरत पड़ी कि खाली समय में कुछ ऐसा किया जाए जिससे छात्रों का मनोरंजन भी हो और उनके संस्कार भी बनें। इस संदर्भ में एक नाम बहुत महत्त्वपूर्ण है, अब्दुल ंगफ्फार मदहोली। कम उम्री में ही घर से भाग कर किसी छोटी-मोटी नाटक मंडली में काम करने लगे थे। वे बहुत पढ़े-लिखे न थे। पता नहीं किस तरह वे जामिया पहुँच गये थे। यहाँ मदहोली साहब ने मेहनत मज् ादूरी करते हुए पढ़ाई की थी और फिर सन् 1926 के आसपास जामिया में ही अध्यापक हो गये थे। मदहोली साहब को नाटक से ‘इश्क’ था। वे न तो बहुत बड़े एक्टर थे, न लेखक थे लेकिन नाटक से उनके लगाव ने पूरी जामिया को अभिभूत कर दिया था। मदहोली साहब ने सबसे पहले ‘बारिश और बादल’ के कुछ संवाद लिखे और स्कूल के लड़कों को उसका अभ्यास कराया। स्कूल में ‘बारिश और बादल’ का एक शो रखा गया जिसे सबने बेहद पसंद किया।

            इस तरह जामिया में ड्रामे की पहली ईंट रखी गयी। मदहोली साहब ने स्वयं लिखा है कि ‘बारिश और बादल’ संवादों से प्रेरित होकर उन्होंने पहली बार ‘काहिल तालिबेइल्म’ (आलसी छात्र) ड्रामा तैयार किया था। यह ड्रामा जामिया में पहली बार सन् 1927 में पेश किया गया था। यह इतना सफल प्रदर्शन था कि इसने पूरी जामिया को नाटक प्रेमी बना दिया था। जामिया के उपकुलपति डॉ.  ज् ााकिर  हुसैन और डॉ. आबिद हुसैन जैसे लोगों ने भी नाटक लिखना शुरू कर दिया था। प्रो. मोहम्मद मुजीब ने भी कई नाटक लिखे थे। उनके नाटकों में

‘अंज़ाम’, ‘ख़ानाजंगी’, ‘हब्बा ख़ातून’, ‘हिरोइन की तलाश’ बहुत चर्चित नाटक रहे हैं। इसके अलावा प्रो. मुजीब ने बच्चों के लिए भी न सिर्फ नाटक लिखे थे बल्कि मंचित भी कराये थे। उन्होंने बच्चों के लिए नाटय कला के विविध पक्षों पर केंद्रित सीधी-साधी भाषा में एक किताब ‘आओ ड्रामा करें’ भी लिखी थी। इस किताब में नाटक लिखने से लेकर मंच सज्ज़ा तक के संबंध में जानकारियाँ दी गईं हैं। प्रो. मुजीब स्वयं बहुत अच्छा ‘मेकअप’ भी करते थे जो निश्चय ही उन्होंने अपने जर्मनी प्रवास के दिनों में सीखा होगा। वे लकड़ी के सेट तैयार करने में भी काफी रुचि लिया करते थे। यही नहीं, चूंकि वे बढ़ई का  काम भी जानते थे इसलिए सेट बनाने के काम में भी पूरी तरह शामिल रहते थे। उनके एक समकालीन डॉ. मसूद-उल-हंक ने लिखा है कि बच्चों के एक नाटक की तैयारी चल रही थी। सेट बन रहा था कि प्रो. मुजीब भी वहाँ आ गये –

            ”मुजीब साहब आये। एक कील लगी थी दीवार पर, उस पर उन्होंने अपनी शेरवानी टाँगी…एक डिब्बा था जिसमें कीलें और हथौड़ी थी, वह उन्होंने लेकर जहाँ-जहाँ कीलें ठोकनी थीं, वहाँ कीलें ठोकना शुरू कर दिया।’

            प्रो. मुजीब के दो नाटक, ‘ख़ानाजंगी’ और ‘हब्बा ख़ातून’ के अनेक प्रदर्शन हुए थे। जामिया के बाहर दिल्ली में भी इनके सफल प्रदर्शन किये गये थे। उनका नाटक ‘ख़ानाजंगी’ जामिया के ‘गोल्डन जुबली’ समारोह में भी किया गया था। जामिया की नाटक संबंधी गतिविधियों के बारे में प्रो. नज़रउद्दीन मीनाई ने लिखा है- ”आप ये देखिये कि तंगी तुर्शी के जमाने में…उस जमाने में जामिया की सकाफती (सांस्कृतिक) जिंदगी इतनी ‘रिच’ थी…एक ड्रामा सोसाइटी हुआ करती थी। उस्तादों के लिए ही थी वो…हम जिस माहौल से आये थे वह जामिया से बिल्कुल मुखतलिंफ था। वह सरकारी अदारा (संस्था) था…लेकिन यहाँ जो हमने आ के देखा तो जनाब वाइस चांसलर साहब भी मौजूद (नाटक की रिहर्सल में) हैं और प्रिंसिपल साहब भी मौजूद हैं। और बहरहाल असातेज़ा (अध्यापक) तो हैं ही। ‘मेन रोल’ (मुख्य भूमिकाओं) में हम कारकुन, मदरसा इब्तिदाई, कॉलेज, रूरल इंस्टीटयूट सबसे आते थे।”

            यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि अगर किसी संस्था का वाइस चांसलर नाटककार होगा, अध्यापक अभिनेता होंगे, छात्र नाटक में महत्तवपूर्ण भूमिकाएं निभाते होंगे तो संस्था के जीवन में रंगकर्म का क्या महत्त्व होगा। जामिया के हर बड़े कार्यक्रम में नाटक होना आवश्यक माना जाता था। नाटक देखने के शौकिन आधी-आधी रात को नाटक ख़त्म होने के बाद पैदल घर जाते थे। मुजीब भाई बताते थे की जामिया ने नाटक को एक सांस्कृतिक और शैक्षणिक ‘टूल’ के तौर पर भी इस्तेमाल किया था। यह जामिया के रंगकर्म का एक उल्लेखनीय पक्ष है। वैसे तो जामिया का हर विभाग अपने तौर पर छोटे-छोटे नाटक किया करता था लेकिन ‘ड्रामेटिक सोसाइटी’ बड़े नाटक करती थी। इन नाटकों में विषय वस्तु से लेकर रंगमंच प्रस्तुति, संगीत और प्रकाश व्यवस्था आदि पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता था। सीमित साधनों के कारण तरह-तरह के सस्ते प्रयोग किये जाते थे।

            जामिया के नाटकों के बारे में एक उल्लेखनीय और बहुत महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ष में एक बार जामिया की ‘ड्रामेटिक सोसाइटी’ ग्रामीण विषयों पर  ग्रामीण भाषा में नाटक किया करती थी। दिल्ली के आसपास फैले हुए ग्रामीण अंचल का कोई कथानक उठाया जाता था। उदाहरण के लिए दिखावे की प्रवृत्ति, लालच, प्रतिस्पर्धा, अनमेल विवाह, प्रशासन द्वारा किसानों के साथ किये जाने वाले अन्याय आदि को इन नाटकों में उठाया जाता था। नाटक के संवाद पूरी तरह ग्रामीण बोली में हुआ करते थे। इन नाटकों में हास्य और व्यंग्य का पुट बहुत आवश्यक माना जाता था। इन ड्रामों को लिखने और तैयार करने का काम  अब्दुल सत्तार साहब किया करते थे। वे स्वयं ग्रामीण जीवन से न केवल अच्छी तरह परिचित थे बल्कि उनका काफी समय गाँव में बीता था। सत्तार साहब ने अपने जीवन को ग्रामीण चेतना में ढाल दिया था। उनकी बातचीत और रहने-सहने का वही ढंग हो गया था। वे ग्रामीण जीवन से इतनी अच्छी तरह परिचित थे कि उनके नाटकों के विषय दर्शकों को अपने जीवन का हिस्सा लगते थे। सत्तार साहब के नाटक इतने लोकप्रिय और चर्चित थे कि जामिया से बाहर दिल्ली  के आसपास के गाँव में भी उनका मंचन किया जाता था। इस कारण दिल्ली के कई ग्रामीण अंचल जामिया के संपर्क में आ गये थे।

            प्रसिध्द रंगकर्मी हबीब तनवीर ने रंगकर्म की शुरूआत जामिया से ही की थी। हबीब साहब ने ‘आगरा बाज़ार’ की भूमिका में विस्तार से उसकी चर्चा की है। जामिया की ‘ड्रामेटिक सोसाइटी’ के लिए कुछ नाटक करने के बाद हबीब साहब ने ‘ओखला थिएटर’ नामक कम्पनी बनायी थी जिसमें जामिया के अध्यापक और उस क्षेत्र में रहने वाले अन्य लोग भाग लेते थे। हिन्दी विभाग के श्याम स्वरूप शर्मा जी भी हबीब तनवीर की नाटय मण्डली के एक अभिनेता थे। उनके द्वारा दी गई जानकारियाँ बहुत महत्त्वपूर्ण और रोचक हैं।

            मुंबई से लौट कर हबीब तनवीर जामिया आ गये थे। ओखला गाँव के बाहर जमुना के किनारे एक टीले पर किन्हीं सज्जन ने एक मकान बनवाया था। इन सज्जन का ‘फैमली नेम’ बटला था। इस कारण यह मकान ‘बटला हाउस’ कहलाता था। किसी तरह यह मकान हबीब साहब को रहने और रिहर्सल करने के लिए मिल गया था। इस उजाड़ और सुनसान मकान में हबीब साहब रहा करते थे और जामिया के अध्यापक और इलाके के दूसरे लोग रिहर्सल करने आया करते थे। शर्मा जी यह भी बताते थे कि हबीब तनवीर ने मंच पर पान की एक दुकान लगवायी थी। वह वास्तव में पान की एक गुमटी थी जिसे जामिया इलाके से उठाकर मंच पर लगा दिया गया था। गुमटी में वही बूढ़े आदमी पान लगाकर लोगों को देते थे जिनकी पान की दुकान थी और अभिनेता जो मंच पर पान खाते थे वे वास्तव में पान के पैसे दिया करते थे। मतलब यह है कि मंच जीवन का हिस्सा न होते हुए भी जीवन का एक हिस्सा था। इसमें संदेह नहीं कि यदि हबीब तनवीर को जामिया के अध्यापकों का सहयोग न मिला होता तो ‘आगरा बाजार’ का मंचन शायद असंभव हो जाता ।

            जामिया में नाटक की शुरूआत कैसे हुई और नाटक इतना लोकप्रिय कैसे हो गया इस पर मदहोली साहब ने अपनी किताब जामिया की कहानी में काफी विस्तार से लिखा है।

            उनके अनुसार अगस्त, 1927 के एक दिन वाइस चांसलर का एक नोटिस आया कि तीसरी कक्षा के बच्चे स्कूल के आंखरी घंटे में एक ‘नकल’ दिखायेंगे। पूरी जामिया एक जगह जमा हो गई। मंच पर एक मेज थी जिस पर स्टोव, पतीली, गिलास और कुछ बर्फ रखी थी। विषय था ‘बादल कैसे बनते हैं’ और ‘बारिश कैसे होती है’। लड़कों ने टीचर की भूमिका निभाना शुरू किया। बताने और समझाने के बीच कुछ हँसने-हँसाने वाली बातें ऐसी हो जाती थीं जिनसे लड़कों का हौसला बढ़ता था। इस प्रयोग से प्रेरित होकर ही मदहोली साहब ने अपना पहला नाटक ‘कौम परस्त तालिबे इल्म’ लिखा था । दु:ख की बात यह है कि जामिया के इस योगदान पर न तो कोई अध्ययन किया गया है और न उसके संबंध में जानकारियाँ उपलब्ध हैं।

अकार’ से साभार – आगे जारी…..

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *