नयी शिक्षा नीति: किसकी आँख में धूल झोंक रहे हो मोदी जी?

 प्रेम कुमार मणि

“यह शिक्षा नीति मेरी समझ से उलझावकारी है. नई सदी की सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक चुनौतियों का सामना करने का इसके पास कोई विजन नहीं है. हमारा देश संस्कृति-बहुल और भाषा-बहुल है. इस बहुरंगेपन को एक इंद्रधनुषी राष्ट्रीयता में विकसित करना, अपनी सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत करते हुए एक वैश्विक चेतना सम्पन्न नागरिक का निर्माण और आर्थिक-सामाजिक तौर पर आत्मनिर्भर और भविष्योन्मुख इंसान बनाना हमारी शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए. यह देखना होगा कि हम समान स्कूल प्रणाली को अपना रहे हैं या नहीं. देश में कई स्तर के स्कूल नहीं होने चाहिए, इसे सुनिश्चित करना होगा. उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्रों का प्रवेश भले हो, स्कूल स्तर तक सभी तरह के प्राइवेट स्कूल को बंद करना होगा. यह नहीं होता है तब शिक्षा पर बात करना फिजूल है, बकवास है.”

29 जुलाई को केंद्रीय सरकार ने नई शिक्षा नीति की घोषणा की है. इसके पूर्व 1986 में राजीव गाँधी सरकार ने इस विभाग में एक बदलाव किया था, जिसमे दिखने लायक बात यही थी कि शिक्षा विभाग का नाम बदल कर मानव संसाधन विभाग कर दिया गया था. कल की घोषणा के बाद ‘पुनर्मूषको भव’, अर्थात एक बार फिर से इस विभाग का नाम ‘शिक्षा मंत्रालय’ हो गया है.

यूँ, कुछ बड़ी तब्दीलियां की गयी हैं. मौजूदा 10 +2 प्रणाली को ख़त्म कर के 5 +3 +3 +4 प्रणाली अपनायी गयी है. स्कूल से पहले ही बच्चों की शिक्षा आरम्भ हो जाएगी. इसे सरकारी एजेंसी आंगनबाड़ियाँ अंजाम देंगी और यह फाउंडेशन कोर्स होगा. यह तीन साल को होगा. प्री-स्कूलिंग दो साल का होगा- कक्षा एक और दो. इस तरह फाउंडेशन और प्री-स्कूलिंग मिल कर आरंभिक पांच. फिर कक्षा तीन से पांच तक का तीन वर्षीय मिडिल कोर्स. इसके बाद छह, सात, आठ का सेकंडरी और आखिर में नौ, दस, ग्यारह, बारह का हायर सेकंडरी कोर्स. खास बात यह है कि मिडिल कोर्स से ही कौशल विकास पर जोर दिया जायेगा. उम्मीद की गयी है कि हर छात्र किसी न किसी हुनर के साथ, यानी हुनरमंद होकर ही स्कूल से बाहर निकलेगा. इस लक्ष्य की सराहना कौन नहीं करना चाहेगा. लेकिन, यह इतना आसान नहीं है. इस पर कुछ सवाल हैं, जिस पर आगे चर्चा करना चाहेंगे.

इस पूरे प्रयोग को समझना थोड़ा मुश्किल है. हालांकि इस नीति को अंजाम देने के लिए सुब्रह्मण्यम और कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली अलग-अलग समितियों ने मेहनत की है. निचले स्तरों से भी काफी कुछ अध्ययन किये जाने की बात कही गयी है. फिर भी बहुत से सवाल उठते हैं. मेरी जानकारी के अनुसार आंगनबाड़ी अभी भी बच्चों की देखभाल करती है. इस घोषणा ने उसे बाल कल्याण से उठा कर शिक्षा विभाग के अंतर्गत ला दिया है. बाकी बारह कक्षाओं की व्यवस्था है ही. मेरी समझ से पुरानी व्यवस्था 10 +2 अधिक सही थी. दो सोपानीय की जगह चार सोपानीय करने का अर्थ कुछ समझ में नहीं आया. क्या सरकार चाहती है कि बच्चे बीच में पढाई का सिलसिला तोड़ें? यानी पहले, दूसरे या तीसरे सोपान पर भी स्कूल छोड़ सकते हैं. अनिवार्य शिक्षा के वातावरण को यह कमजोर करता प्रतीत होता है. गरीबों को शिक्षा से दूर रखने की छुपी और शातिर कोशिश के रूप में भी इसे देखा जायेगा.

सवाल मिडल स्कूल से कौशल-प्रशिक्षण पर भी होगा. मिडल स्कूल तक छात्रों की उम्र दस-बारह होगी. अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिनियमों की क्या इससे अनदेखी नहीं होगी? बाल-श्रम अधिनियमों का उल्लंघन नहीं होगा? यदि होगा तो सरकार ने इस विषय पर क्या सोचा है? नैसर्गिक तौर पर चौदह साल की उम्र तक बच्चों को कमाऊ बनाने से रोकना चाहिए. ये खेलने-खाने के दिन होते हैं. उनके दिमाग में कमाऊ बनने या होने की बात इस समय तक नहीं आना चाहिए. शिक्षा के साथ कौशल-शिक्षण बेहतर कदम है, लेकिन इस कच्ची उम्र में नहीं चौदह के ऊपर इसकी व्यवस्था होनी चाहिए. 10 +2 पाठ्यक्रम में कौशल-प्रशिक्षण को रोका गया है, तो इसके अर्थ थे. मौजूदा सरकार और इस नीति ने इसे क्यों और किन कारणों से नजरअंदाज किया, इसे समझने की जरुरत है.

उच्च शिक्षा में डिग्री कोर्स को चार साल का किया गया है. इसके बाद पोस्ट ग्रेजुएट यानि मास्टर डिग्री. मास्टर डिग्री के बाद बिना एम.फिल के पीएच.डी यानि मौजूदा नीति में एम.फिल खत्म. डिग्री कोर्स को ऐसा बनाया गया है कि छात्र बीच में भी यदि पढाई छोड़ते हैं, तो उन्हें सर्टिफिकेट मिलेगा. पहला साल पूरा करने के बाद सर्टिफिकेट, दूसरे साल के बाद छोड़ने पर डिप्लोमा और तीसरे-चौथे साल के बाद डिग्री दे दिए जाने की व्यवस्था है. इसे मल्टीपल एंट्री और मल्टीपल एग्जिट सिस्टम कहा गया है.

आरंभिक शिक्षा में पहले भी मादरी-जुबानों पर जोर था. इस व्यवस्था में भी है. उच्च शिक्षा में निजी और सरकारी क्षेत्र के संस्थानों को एक ही शिक्षा नीति के तहत चलने की बात कही गयी है . यह सराहनीय है. लेकिन प्राथमिक और उच्च दोनों स्तरों पर यह नीति छात्रों को ड्रॉप-आउट के लिए उत्साहित करती प्रतीत होती हैं. इस लिए मैं इसकी सराहना करने में स्वयं को रोकना चाहूँगा.

कुल मिला कर नई शिक्षा नीति, शिक्षा को ज्ञान-केंद्रित (नॉलेज-सेंट्रिक) की जगह काम-केंद्रित (वर्क-सेंट्रिक ) बनाने जा रही है. मौजूदा समय नॉलेज-सेंट्रिक है. ज्ञान-केंद्रित है. ज्ञान के क्षेत्र में जो देश, समाज या व्यक्ति पिछड़ जायेगा, वह सभी स्तरों पर पिछड़ जायेगा. इस बात को सरकार में बैठे लोग नहीं समझ सके हैं. शिक्षा का उद्देश्य नागरिकों को सर्व गुण संपन्न बनाना है, उसे कमाऊ बनाना भर नहीं. मनुष्य को विकास नहीं, खुशहाली की अधिक जरुरत है. जो विकास आनंद सापेक्ष नहीं है, उसे दुनिया नकार रही है. यह आनंद अथवा खुशहाली भौतिक सम्पदा से अधिक हमें एक ऐसी चेतना से मिलती है, जो हमें यह अनुभव देता है कि हमें कितना, क्या और क्यों चाहिए?

मनुष्य चेतनशील प्राणी है, उत्पादन का औज़ार बनना भर उसका मक़सद नहीं है. यह नई शिक्षा नीति नई पीढ़ी को उत्पादन का औजार भर बनाने पर बल देती है. प्रधानमंत्री मोदी की संघी सोच इसे समझने में असमर्थ हो सकती है, क्योंकि वे ताकत और वर्चस्व को ही सब कुछ मान बैठे हैं. मानवता की कोई समझ उनके पास नहीं है. भविष्य की कोई सोच नहीं है. हमें अपने समाज में अडानी और अम्बानी नहीं, जगदीशचंद्र बासु, रवीन्द्रनाथ टैगोर, भाभा, नेहरू और आम्बेडकर पैदा करने हैं. यह ठीक है कि यूनिवर्सिटियां जीनियस नहीं पैदा करतीं, लेकिन यूनिवर्सिटियों को किसी जीनियस का गला घोंटने वाला भी नहीं होना चाहिए. नई शिक्षा नीति में चेतना के विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है; यह दुर्भाग्यपूर्ण है.

प्रेस को जानकारी देते हुए केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावेड़कर उत्साहित थे. मानव संसाधन मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक और उनसे भी बढ़ कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्साहित थे . लेकिन मैंने इसे उलट-पुलट कर जो देखा उससे उत्साहित होने की जगह भयभीत हो रहा हूँ. यह पूरी तरह एक पाखंड सृजित करता है. उदाहरण देखिए. कहा गया है शिक्षा-बजट 4 .43 फीसद से बढ़ा कर 6 फीसद किया जा रहा है. यानी 1 .57 फीसद बढ़ाया जा रहा है. किसकी आँख में धूल झोंक रहे हो मोदी जी? आप पहले यह बतलाइये कि बाल कल्याण विभाग द्वारा संचालित आंगनबाड़ी का खर्च कितना है? आप उसे शिक्षा में जोड़ दे रहे हो. यह तो पहले ही खर्च हो रहा था. यदि इसके अलावे शिक्षा का व्यय बढ़ाया गया है, तब मैं आपकी थोड़ी-सी तारीफ़ करूँगा. अधिक नहीं, क्योंकि आज भी इस देश में शिक्षा का व्यय प्रतिरक्षा व्यय (15.5% )से बहुत कम है, और उसे उस से बहुत अधिक होना चाहिए.

यह शिक्षा नीति मेरी समझ से उलझावकारी है. नई सदी की सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक चुनौतियों का सामना करने का इसके पास कोई विज़न नहीं है. हमारा देश संस्कृति-बहुल और भाषा-बहुल है. इस बहुरंगेपन को एक इंद्रधनुषी राष्ट्रीयता में विकसित करना, अपनी सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत करते हुए एक वैश्विक चेतना सम्पन्न नागरिक का निर्माण और आर्थिक-सामाजिक तौर पर आत्मनिर्भर और भविष्योन्मुख इंसान बनाना हमारी शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए. यह देखना होगा कि हम समान स्कूल प्रणाली को अपना रहे हैं या नहीं. देश में कई स्तर के स्कूल नहीं होने चाहिए, इसे सुनिश्चित करना होगा. उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्रों का प्रवेश भले हो,स्कूल स्तर तक सभी तरह के प्राइवेट स्कूल को बंद करना होगा. यह नहीं होता है तब शिक्षा पर बात करना फिजूल है, बकवास है.

कथाकार प्रेमकुमार मणि 1970 में सीपीआई के सदस्य बने। छात्र-राजनीति में हिस्सेदारी। बौद्ध धर्म से प्रभावित। भिक्षु जगदीश कश्यप के सान्निध्य में नव नालंदा महाविहार में रहकर बौद्ध धर्म दर्शन का अनौपचारिक अध्ययन। 1971 में एक किताब “मनु स्मृति:एक प्रतिक्रिया” (भूमिका जगदीश काश्यप) प्रकाशित। “दिनमान” से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक चार कहानी संकलन, एक उपन्यास, दो निबंध संकलन और जोतिबा फुले की जीवनी प्रकाशित। प्रतिनिधि कथा लेखक के रूप श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार(1993) समेत अनेक पुरस्कार प्राप्त। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे। सौज मीडिया विजिल

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