
अवमानना मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट के जाने-माने वकील प्रशांत भूषण के समर्थन में देश और दुनिया भर से आवाज उठ रही है। प्रशांत भूषण के समर्थन में देश और दुनिया की 185 हस्तियों ने सार्वजनिक बयान जारी किया है। बयान जारी करने वालों मेंफिनलैंड के पूर्व विदेश मंत्री और यूरोपिय संसद के सदस्य समेत नेपाल से लेकर अमरीका तक की 54 अंतर्राष्ट्रीय हस्तियां शामिल हैं।
इसके साथ साथ गाँधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत, पर्यावरणविद रवि चोपड़ा, मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित संदीप पांडेय, स्वामी अग्निवेश, डॉ सुनीलम और प्रोफेसर आनंद कुमार समेत भारत के 131 सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, पर्यावरणविद और सम्मनित नागरिकों ने भी प्रशांत भूषण का किया समर्थन किया है। इन सभी हस्तियों ने अपने बयान में उम्मीद जतायी है कि सुप्रीम कोर्ट में चल रहे अवमानना के मामले में भारतीय संविधान की भावना के अनुरूप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक अधिकारों की जीत होगी।
गाँधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत, पर्यावरणविद रवि चोपड़ा, मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित संदीप पांडेय, स्वामी अग्निवेश, डॉ सुनीलम और प्रोफेसर आनंद कुमार समेत भारत के 131 सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, पर्यावरणविद और सम्मनित नागरिकों ने भी प्रशांत भूषण का किया समर्थन किया है। अब तक सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कई सेवानिवृत न्यायाधीशों ने भी प्रशांत भूषण के समर्थन में बयान जारी किया है।
इन सभी हस्तियों ने अपने बयान में उम्मीद जतायी है कि सुप्रीम कोर्ट में चल रहे अवमानना के मामले में भारतीय संविधान की भावना के अनुरूप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक अधिकारों की जीत होगी।
प्रशांत भूषण द्वारा जून के महीने में किये गए दो ट्वीट पर उच्चतम न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लिया है। साथ ही अवमानना से ही संबंधित 2009 के एक पुराने मामले पर भी आठ साल बाद सुनवाई शुरू कर दी गयी है।
सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय समेत 16 सिविल सोसायटी सदस्यों ने माननीय उच्चतम न्यायलय में इस अवमानना के मामले में हस्तक्षेप करने का आवेदन भी दिया था, जिसको अदालत के रजिस्ट्री ने ठुकरा दिया है। इसके अलावा एक अन्य याचिका में अरुण शौरी, एन राम और प्रशांत भूषण ने “अदालत की अवमानना” से सम्बंधित प्रावधान को चुनौती दिया है जिसकी सुनवाई 10 अगस्त को मुक़र्रर की गई है।
भारत में मानव-अधिकारों और जनहित के लिए प्रख्यात वकील प्रशांत भूषण पर अवमानना की कार्यवाही के कारण हमें ये बयान जारी करना पड़ रहा है। उच्चतम न्यायलय द्वारा स्वतः संज्ञान लेकर की जा रही यह कार्यवाही हम सबके लिए चिंताजनक है। वो काफी समय से मानव अधिकार, सामाजिक न्याय और पर्यावरण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों की वकालत करते आ रहे हैं। बड़े बड़े पूंजीपतियों से लेकर नेता और सरकारी अफसरों के भ्रष्टाचार से जुड़े कई मामलों को उन्होंने उजागर किया है। न्यायपालिका की जवाबदेही जैसे संवेदनशील मामलों के साथ पारदर्शिता की माँग के लिए प्रशांत भूषण सालों से आवाज़ उठाकर इन ज्वलंत मुद्दों के प्रणेता बनकर उभरें हैं।
मीडिया में यह रिपोर्ट किया गया है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों ने प्रशांत भूषण द्वारा किए गए दो ट्वीट पर स्वतः संज्ञान लेकर और 11 साल पुरानी एक इंटरव्यू वाली अवमानना केस को फिर शुरू करने का ठाना है। अभी के स्वतः संज्ञान वाले मामले में प्रशांत भूषण ने दो ट्वीट किया जिसमें पहला उन्होंने पिछले कुछ सालों में नागरिक अधिकारों और लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वतंत्रता के प्रति उच्चतम न्यायलय की अक्षमता पर टिपण्णी की थी। दूसरा, उन्होंने इस महामारी में जहाँ एक तरफ सुप्रीम कोर्ट की बन्दी पर सवाल किए वहीं मुख्य न्यायधीश का सामाजिक न्योता पर जाकर फ़ोटो खिंचवाना और कई लोगों के साथ बिना मास्क दिखने पर टिप्पणी किया था।
ज्ञात हो कि वर्ष 2009 वाले अवमानना की कार्यवाही प्रशांत भूषण द्वारा एक पत्रिका को दिए साक्षात्कार पर आधारित है। उन्होंने कहा था कि 1990 से लेकर 2010 तक बने लगभग आधे मुख्य न्यायधीश भ्रष्ट रहे हैं। उन्होंने ये भी स्पष्ट किया था कि इसमें भ्रष्टाचार का सीधा मतलब सिर्फ घूस लेने या पैसों का इधर उधर करना जरूरी नहीं है। इस मामले में फिर तीन हलफनामे के जरिये सबूत सहित सुप्रीम कोर्ट में जमा किया जा चुका है। इन हलफनामों में कई घटनाओं का ज़िक्र है जो प्रशांत भूषण के बयान का आधार हैं। जवाब दायर करने के बाद कोर्ट ने सालों पहले तब जाँचने या परखने का नहीं सोचा और मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया था।
दुनियाभर की न्याय प्रणाली में यह मान्यता है कि न्यायधीशों का आचरण हर वक़्त निडर, निस्वार्थ और निष्पक्ष रहना चाहिए जो सिर्फ और सिर्फ न्याय को बढ़ावा देने लिए बना है। जहाँ कहीं भी ये पाया गया है कि ‘जज’ खुद सत्ता भोग के करीब है या राज करने वालों से रिश्ता रखता है वहाँ इस गैर जिम्मेदारी के वजह से जनता का न्यायपालिका पर से भरोसा उठ जाता है। इससे पूरे न्यायिक प्रणाली से मोहभंग होने का भी खतरा होता है। लोकतांत्रिक ढाँचे का महत्व इसीलिए भी होता है क्योंकि वो ‘कानून के राज’ (Rule of Law) पर निर्भर रहता है और कानून का रक्षा करने वालों से ये उम्मीद की जाती है कि उनका आचरण संविधान के वाक्यों के साथ साथ उसकी मूल भावना और आत्मा से निर्धारित हो। इसीलिए ऐसे व्यक्ति को जो लगातार न्यायिक प्रक्रिया को मजबूत बनाने के लिए और न्यायपालीका के माध्यम से ही आम जनमानस को राहत के साथ साथ उनके कल्याण के लिए कई कदम उठाए, उसके किसी बयान पर उसे दंडित करना किसी भी पैमाने से उचित नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट जैसे महत्वपूर्ण संस्थानों को तो ऐसी प्रथा स्थापित करनी चाहिए जिसमें वो जनता के द्वारा अपनी कार्यशैली पर चर्चा और आलोचना का स्वागत करे और आपराधिक अवमानना या बदला लेने जैसी कार्यवाही की कोई जगह ना हो।
आपराधिक अवमानना (Criminal Contempt) जैसे प्रावधानों को अमरीका और यूरोपीय देशों जैसे कई लोकतंत्र ने निर्जीव बना दिया है। भारत में कई कानूनविदों ने ये रेखांकित किया है कि न्यायपालिका को आलोचना दबाने के लिए अवमानना जैसी कार्यवाही का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। स्वर्गीय श्री विनोद बोबडे (वरिष्ठ अधिवक्ता) ने अपनी लेख ‘Scandal and Scandalising'[(2003) 8 SCC Jour 32] में लिखा है, “हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते जिसमें नागरिक इस भय में जीने लगें कि वे जजों और न्यायपालिका की आलोचना नहीं कर सकते वरना उनपर अवमानना जैसी कार्यवाही चला दी जाएगी।”
न्याय और न्यायिक मूल्यों के लिए, न्यायपालिका और सुप्रीम कोर्ट की गरिमा बनाए रखने के लिए हम माननीय न्यायधीशों के साथ माननीय मुख्य न्यायधीश से अनुरोध करते हैं कि वे प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना की यह कार्यवाही शुरू करने के फैसले को फिर से परखें और वापस लें। प्रशांत भूषण स्वयं लोकतांत्रिक भारत में वकालत जैसे पेशे में एक आदर्श हैं। हम उम्मीद करते हैं कि भारतीय न्यायपालिका आत्मपरीक्षण कर किसी ऐसे जागरूक नागरिक और प्रखर वकील को उसके बयान और धारणा सार्वजनिक करने के लिए चुप कराने की कोशिश नहीं करेगी।
International Signatories: [54] की लिस्ट देखने नीचे दी गई लिंक पर क्लिक करें-( सौज -मीडिया विजिल)
http://www.mediavigil.com/news/185-celebrities-issued-a-statement-in-support-of-prashant-bhushan/