हाथरस मामले में अब जो हो रहा है वह भी किसी दुष्कर्म से कम नहीं है

प्रदीपिका सारस्वत

ऐसे मामलों में न्याय हो पाना वैसे भी मुश्किल होता है, ऊपर से अगर ये राजनीति और मीडिया की दुधारू भी बन जाएं तब चीज़ें और भी उलझ जाती हैं

बलात्कार जैसी घटना पर पुलिस और प्रशासन की प्रतिक्रिया उस समाज से अलग नहीं होती जिसे वह प्रशासित करता है. और ऐसे मामलों में किसी समाज की प्रतिक्रिया को समझने के लिए यह देखना ज़रूरी है कि वह अपनी बेटियों के साथ किस तरह का व्यवहार करता है. हाथरस मेरा अपना गृह ज़िला है. अपने दो दशकों के निजी अनुभव से मैं कह सकती हूं कि इस क्षेत्र में लड़की एक पूरी व्यक्ति नहीं होती. उसी तरह, जिस तरह आज तक दलित भी यहां एक पूरा व्यक्ति नहीं बन सका है. दोनों को हमेशा एक खास चश्मे से देखा जाता है, उनसे एक खास तरीके के व्यवहार की अपेक्षा की जाती है और आवश्यकता पड़ने पर उनके चरित्र और अस्तित्व पर बड़ी आसानी से उंगली उठाई जा सकती है.

लड़की के मामले में चरित्र का सवाल अपने आप ही अस्तित्व का भी बन जाता है. और वह अगर दलित भी हो तो ऐसा कितनी आसानी से हो सकता है समझ पाना मुश्किल नहीं है. ऐसे मामलों में न्याय हो पाना वैसे भी मुश्किल होता है, ऊपर से अगर ये राजनीति और टीवी मीडिया की दुधारू भी बन जाएं तब चीज़ें और भी उलझ जाती हैं.

उन्नाव मामले में हमने जो होते देखा, हाथरस मामले में भी वही बात सामने आती है. आम लोगों की सहानुभूति पीड़िता और उसके परिवार के साथ नहीं दिखती. स्थानीय लोगों में इस अपराध के खिलाफ नाराज़गी नहीं दिखती. वे बार-बार यही जताने की कोशिश करते हैं कि लड़की चरित्रहीन थी और परिवार पैसे के लालच में निर्दोष लोगों को फंसा रहा है. इस नैरेटिव को ज़मीन देने के लिए वे कई तरीके की दलीलों का सहारा लेते हैं.

तीन अक्टूबर की सुबह जब मैं भूलगढ़ी पहुंची तो वहां मीडिया का जमावड़ा लगा हुआ था. तब तक किसी को गांव के भीतर जाने की अनुमति नहीं थी. लेकिन उस दिन कई दिनों के बाद इसकी अनुमति दे दी जाती है. मुख्य सड़क से गाव तक करीब डेढ़ किलोमीटर की दूरी है और इस रास्ते पर दोनों तरफ बाजरा और धान के खेत हैं. यहीं बांई तरफ सड़क से कुछ 300 मीटर भीतर की ओर शीशम के पेड़ हैं. यहीं खेतों के बीच की नाली में, 14 सितंबर के दिन पीड़िता को घायल हालत में पाया गया था.

गांव में घुसते ही उस परिवार का घर दिखाई देता है, जिसके लड़कों पर बलात्कार का आरोप है. उसके बाद वाल्मीकि समाज के चार घर हैं. दोनों ही परिवारों की आर्थिक स्थिति लगभग एक सी है. ग्रामीणों के मुताबिक सवर्ण ठाकुरों और ब्राह्मणों की बहुसंख्या वाले इस गांव में वाल्मीकि बस्ती के पास बसे इस ठाकुर परिवार को भी दलित जैसा ही समझा जाता है. दलितों की तरह इस परिवार के पास नाममात्र की ज़मीन है और इसके सदस्यों की जीविका भी मजदूरी से ही चलती है.

पीड़िता के घर मीडिया की इतनी भीड़ है कि परिवार से बातचीत लगभग असंभव है. कुछ रिश्तेदारों से बातचीत होती है, वे 29 सितंबर को पीड़िता की मौत के बाद से यहां आए हुए हैं. वे बताते हैं कि उनके परिवार को धोखा देकर मृत शरीर को पहले तो अस्पताल से निकाला गया और फिर उन्हें नहीं सौंपा गया. बहुत मिन्नतें करने के बाद भी प्रशासन ने उन्हें उनकी बेटी का चेहरा देखने, उसका रीति-रिवाज़ के साथ अंतिम संस्कार करने की इजाज़त नहीं दी. मृतका की बुआ कहती हैं, “उन्होंने कहा कि हम सिर्फ लड़की की मां या उसके बाप में से किसी एक को ही चेहरा दिखाएंगे. पुलिस हमें रात को ही दाह संस्कार करने के लिए मजबूर कर रही थी इसलिए हम उनके साथ नहीं गए.”

पास के ही घर में रहने वाली मृतका की चाची सबीना बताती हैं कि जब परिवार को मालूम हुआ कि पुलिस ने पेट्रोल डाल कर लाश को जला दिया है तब सुबह चार बजे लड़की के पिता ने अपने भाइयों से कहा कि वे देखकर बताएं कि हुआ क्या है. “हमारे जेठ ने सवेरे कहा कि देख तो आओ कि उन्होंने कोई कुत्ता-बिल्ली जला दी है या क्या जलाया है. लड़की के चाचा-बाबा देखने गए और जब लाश जलती देखी तो बाबा ने पास पड़ा कंडा उठाकर आग में डाला और हाथ जोड़ लिए. बड़े-बूढ़े आदमी हैं. पुलिस ने उसी का वीडियो बना के सबको दिखा दिया कि लड़की के बाबा ने श्रद्धांजलि दी, कि लड़की के परिवार ने अंतिम संस्कार किया.” वे और उनके साथ बैठी परिवार की अन्य औरतें बार-बार आरोप लगाती हैं कि पुलिस हमारी रक्षा के लिए नहीं ठाकुरों का साथ देने के लिए यहां आई है. वे कहती हैं कि पुलिस ठाकुरों के यहां खा-पी रही है, उन्हीं के लिए काम कर रही है.

सबीना और उनकी युवा बेटियां डर जताती हैं कि अगर इस मामले में दोषियों को सज़ा नहीं मिली तो उनके चारों परिवारों को भूलगढ़ी छोड़ना पड़ेगा. वे बताती हैं कि यूं भी ठाकुर और वाल्मीकि परिवारों में अक्सर तनातनी हो जाया करती है. पीढ़ियों से ठाकुरों के घरों-खलिहानों में काम करने वाले वाल्मीकि आज भी उन पर निर्भर हैं. “वो लोग जब चाहे हमसे कह देते हैं कि हम उनकी मेंड़ पर दिख न जाएं” वे बताती हैं. मेंड़ या खेत में दो क्यारियों के बीच उठाई गई ज़मीन को ये भूमिहीन परिवार घास काटने या शौच जाने के लिए इस्तेमाल करते हैं. वे बताती हैं कि आरोपितों की गिरफ़्तारी के बाद ठाकुर परिवार की औरतों से आए दिन उन्हें जान से मार देने की धमकियां मिल रही हैं. वे यह भी बताती हैं कि मीडिया को गांव में न आने देने के फैसले से ठाकुर बहुत खुश थे और जब भी कोई मीडियाकर्मी छुप कर गांव में आने की कोशिश करता था तो वे पुलिस को इसकी खबर दे देते थे.

पीड़िता के भाई सतेंद्र इस पूरे मामले में प्रशासन की मंशा पर सवाल उठाते हैं. वे ज़िलाधिकारी पर आरोप लगाते हैं कि वे परिवार पर मामले को रफा-दफा करने का दबाव बना रहे हैं. “हमसे कहा जा रहा है कि हम ज़्यादा आगे न जाएं. हमें सोच-समझकर काम लेना चाहिए, जो मुआवज़ा मिल रहा है ले लेना चाहिए. मीडिया और नेता ज़्यादा दिन हमारा साथ नहीं देंगे. वो कह रहे हैं कि अगर हमारी बहन कोरोना से मरी होती तो हमें कोई मुआवज़ा नहीं मिलता.” अगर सतेंद्र का यह आरोप सही है तो बलात्कार और हत्या को कोरोना वाइरस से हुई मौत के बराबर रख देने की यह कोशिश ही प्रशासन की प्राथमिकताएं साफ कर देती है. सतेंद्र यह आरोप भी लगाते हैं कि पुलिस उनके फ़ोन टैप कर रही है. वे बताते हैं कि उनके परिवार ने अब अपने फ़ोन बंद कर दिए हैं. इस पूरे घटनाक्रम के बीच पीड़िता के पिता कहीं नज़र नहीं आते. मीडियाकर्मी कयास लगाते हैं कि उन्हें शायद प्रशासन ने अब भी साथ लिया हुआ है.

पीड़िता के घर से थोड़ी दूर, गांव के भीतर जाने वाले रास्ते पर बहुत से ग्रामीण खड़े हैं. ये सभी सवर्ण समुदाय से आते हैं. उनकी शिकायत है कि मीडिया पक्षधरता बरत रही है और सिर्फ दलितों का साथ दे रही है. वे चाहते हैं कि मीडिया के लोग उनसे भी बात करें. मुख्यत: ठाकुर समाज के ये लोग, अलग-अलग कहानियां सुनाते हैं. एक कहानी के मुताबिक मृतका का संदीप (वह आरोपित जिसका नाम सबसे पहले एफआइआर में दर्ज़ है) के साथ प्रेम संबंध था और घटना के समय वे यौन संबंध बनाते हुए पाए गए जिसके कारण लड़की के परिवार ने लड़की की हत्या करने की कोशिश की.

दूसरी कहानी संदीप को दोषी मानती है पर अन्य तीन लड़कों को निर्दोष बताती है. पर इसमें भी बलात्कार की घटना शामिल नहीं है. वे दलील देते हैं कि सुबह 9-10 बजे जब पूरा गांव खेतों पर काम कर रहा होता है, और लड़की की मां खुद लड़की के आस-पास है, तब उसके साथ बलात्कार कैसे किया जा सकता है? लेकिन इस सवाल का उनमें से किसी के पास नहीं है कि दिन के 9-10 बजे, अपनी मां और अन्य ग्रामीणों की मौजूदगी में लड़की अपनी मर्ज़ी से भी यौन संबंध बनाने की कैसे सोच सकती है?

अपनी कहानियों के पक्ष में वे दलील देते हैं कि घटना के तुरंत बाद लड़की और उसकी मां ने खुद कैमरे पर कहा था कि सिर्फ लड़की को जान से मारने की कोशिश हुई है और अकेले संदीप ने ऐसा किया है. वे हमें विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि बीजेपी के सांसद जो कि खुद वाल्मीकि समाज से आते हैं, उनके आने के बाद मामले को तूल देने के लिए अन्य तीन लड़कों को भी फंसा दिया गया. वे कहते हैं कि घटना के बाद लड़की स्वस्थ थी, न उसकी ज़ुबान कटी थी और न ही उसकी रीढ़ की हड्डी में चोट थी, जैसा कि मीडिया ‘बढ़ा-चढ़कर’ दिखा रहा है. ये सभी लोग मीडिया से खासे नाराज़ नज़र आते हैं.

ठाकुर समाज के लोग जिन वीडियो को ज़िक्र करते हैं, उन्हें लगातार आरोपितों के निर्दोष होने की बानगी के तौर पर पेश किया जा रहा है. इन्हें सोशल मीडिया पर ठाकुर समुदाय के बहुत से लोगों द्वारा न्याय की गुहार के साथ साझा किया जा रहा है. इन वीडियो को देखने पर ऐसा लगता है कि इन्हें एक मकसद के तहत शूट किया गया होगा. एक अनाम व्यक्ति द्वारा शूट किए गए इन वीडियो में पीड़िता और उसकी मां से घटना के बारे में सवाल किए जा रहे हैं. यहां तक कि ज़मीन पर पड़ी हुई पीड़िता से उसकी जीभ दिखाने की मांग भी की जाती है. सवाल पूछने वालों में औरतें भी शामिल हैं. पीड़िता की मां यहां सिर्फ कहा-सुनी और मारपीट की बात कहती है. लेकिन पीड़िता साफ कहती है कि उसके साथ ज़बरदस्ती करने की कोशिश की गई.

इन वीडियो को आरोपितों के निर्दोष होने के सुबूत के तौर पर इस्तेमाल करने वाले इस बात को बिलकुल नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि ये दोनों महिलाएं जिस समाज का हिस्सा हैं उसमें किसी महिला के लिए सबके सामने यह स्वीकार कर लेना आसान नहीं कि उसके या उसकी बेटी के साथ बलात्कार हुआ है. इंडिया टुडे रिपोर्ट करता है कि स्थानीय पत्रकारों ने पीड़िता के तीन वीडियो बयान लिए थे. इनमें से दो घटना वाले दिन, पहले चंदपा पुलिस थाने में और फिर हाथरस के बागला अस्पताल में रिकॉर्ड किये गये थे. और तीसरा 22 तारीख को अलीगढ़ के जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज में शूट किया गया था. इन तीनों ही वीडियो में पीड़िता की हालत नाज़ुक दिखती है. लेकिन इसके बावजूद आरोपितों के पक्ष में दी जा रही दलीलों में उसे कथित बलात्कार के बाद स्वस्थ बताया जा रहा है. कहा जा रहा है कि वह इस हालत में थी कि खुद चलकर पुलिस थाने गई, जबकि पहले ही वीडियो में उसे ज़मीन पर बुरी हालत में लेटे हुए देखा जा सकता है.

इन वीडियो का अपने बचाव के लिए इस्तेमाल करने वाले यह भी भूल जाते हैं कि इन वीडियो से ही उनका यह तर्क अपने आप ही ढेर हो जाता है कि पीड़िता अपनी मर्जी से आरोपित के साथ यौन संबंध बनाते पकड़ी गई थी और इसके बाद उसके परिवार ने ही उसकी जान लेने की कोशिश की.

आरोपितों में से एक रामकुमार उर्फ रामू के पिता का कहना है कि वाल्मीकि परिवार पैसों के लालच में हमारे बेटों को फंसा रहा है. वे तर्क देते हैं कि अन्य तीन आरोपी रामू, रवि और लवकुश रिश्ते में संदीप के चाचा लगते हैं. उनके मुताबिक कोई भतीजा अपने चाचाओं के साथ मिलकर बलात्कार जैसा घिनौना काम कभी नहीं करेगा. उनका तर्क गांव की नैतिकता के हिसाब से काफी मासूम नज़र आता है. पर यह उतना ठोस भी नहीं है. क्योंकि अगर गांव में इतनी ही नैतिकता बाकी है तो फिर वहां बलात्कार जैसा अपराध भी इतनी वीभत्सता के साथ कैसे हो सकता है!

इस तरह की तमाम बातों को अपने पक्ष में पेश करने वाला पूरा स्थानीय सवर्ण तबका इस घटना पर एकजुट होता दिखाई दे रहा है. सोशल मीडिया के ज़रिए यह नैरेटिव सेट करने की कोशिश की जा रही है कि बलात्कार जैसी कोई घटना नहीं हुई. और इसका असर आस-पास के इलाकों में साफ दिख भी रहा है. स्थानीय लोगों से बात करने पर वे यही कहने की कोशिश करते हैं कि दलित परिवार ही दोषी है. वे न तो पीड़िता के साथ हुए कथित बलात्कार से प्रभावित दिखते हैं और न ही उसकी मौत से या उसे रात के अंधेरे में, बिना किसी संस्कार के, पेट्रोल डाल कर प्रशासन द्वारा जला दिए जाने से. उनकी संवेदना और सहानुभूति, जिसे इनके स्थान पर सॉलिडैरिटी या एकजुटता कहना ज़्यादा बेहतर होगा, बिना किसी हिचक के सवर्ण आरोपितों के साथ खड़ी दिखती है.

इस नैरेटिव और सोच को पुख्ता करने में सबसे बड़ा योगदान उत्तर प्रदेश पुलिस को जाता है जिसकी एफएसएल रिपोर्ट में दावा किया गया है कि पीड़िता के साथ कोई रेप नहीं हुआ था. जबकि जेएलएन अस्पताल की रिपोर्ट इसके उलट साक्ष्य पेश करती है.अब यह तो उच्च स्तर की लेकिन निष्पक्ष जांच ही बता सकती है कि कौन सी रिपोर्ट पर भरोसा किया जाना चाहिए. लेकिन जांच में उत्तर प्रदेश पुलिस की लापरवाही, पीड़िता के सैंपल लिए जाने में हफ्ते भर की देर, मीडिया को इतने दिनों तक पीड़ित परिवार से दूर रखने की कोशिश और फिर उसकी लाश को जल्दबाज़ी में इतनी अमानवीयता के साथ जला दिया जाना पहली दृष्टि में ही पुलिस के पक्ष को काफी कमज़ोर कर देते हैं.

सौज- सत्याग्रहः लिंक नीचे दी गई है-

https://satyagrah.scroll.in/article/136071/hathras-balatkaar-maamla

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