लोकप्रिय आध्यात्मिकता की आड़ में पूंजी, सियासत और जाति-अपराधों के विमर्श का ‘आश्रम’

जैनबहादुर

फिल्मों के माध्यम से समाज में प्रचलित कई प्रकार के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक मुद्दों और विमर्शों को भी दिखाया जाता है, भले ही वे आधे-अधूरे, सत्य-असत्य, उचित-अनुचित के घालमेल से लबरेज़ हों। आजकल वेब सिरीज़ के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर से लेकर स्थानीय राजनीति, सामाजिक मुद्दों और विमर्शों पर फ़िल्म बनायी जा रही है। ऐसी ही एक वेब सिरीज़ आश्रमहाल ही में आयी है। इसके अभी एक सीज़न के नौ भाग आये हैं। यह सिरीज़ हमें कई चीजों के बारे में नये सिरे से सोचने की दिशा दिखाती है जो हमारे समाज में मौजूद हैं। जातिगत भेदभाव सहित धार्मिक कर्मकांडों, रीति-रिवाजों के गढ़ते नये रूप और इसके राजनीतिक गठजोड़ों के आयाम को यह वेब सिरीज़ बखूबी बयां करती है।

आश्रम की शुरुआत जातिगत भेदभाव के दृश्‍य से होती है, जिसमें अनुसूचित जाति के एक लड़के की बारात में दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ने की कीमत चुकानी पड़ती है जब बारात सवर्णों के मोहल्‍ले से गुजरती है। बारात जब सवर्णों के  के मोहल्ले में पहुँचती है तो दूल्हे के पिता उसे घोड़ी पर न चढ़ने की सलाह देते हुए घोड़ी वापस ले जाने को कहते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करना उच्च जाति के लोगों का अपमान होगा और इसकी कीमत निम्न जाति के लोगों को चुकानी पड़ सकती है। इस पर दूल्हे के दोस्त द्वारा ये कहना कि ‘’हम सब आजाद हैं और कुछ भी कर सकते हैं’’, इसका जवाब दूल्हे के पिता देते हुए कहते हैं कि आजादी उच्च जाति के लिए होगी।

यह संवाद जातिगत आधार पर हैसियत, स्थिति और कार्य को निर्धारित करता है। जाति के आधार पर पेशे का निर्धारण सदियों से चला आ रहा है, जो सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक असमानताओं में अन्तर्सम्बंधित है। इसके बारे में डॉ. आंबेडकर वर्षों पहले कह गये हैं कि जाति के दो पहलू होते हैं। इसका एक पहलू यह है कि यह मनुष्यों को अलग-अलग समुदायों में बाँटती है। इसका दूसरा पहलू यह है कि यह एक ऐसा सीढ़ीदार ढांचा बनाती है जिसके ऊपर-नीचे कोई न कोई समुदाय होता है। आश्रम फिल्म में जातिगत हैसियत के महत्व को दर्शाते हुए न्‍याय और क़ानून तक समुदायों की पहुँच के अंतर को दिखाया गया है।

फिल्म में कुश्ती के दौरान निम्न जाति की खिलाड़ी द्वारा उच्च जाति की खिलाड़ी को हराने के बावजूद निम्न जाति के पहलवान को विजयी घोषित न करके उच्च जाति के पहलवान को विजयी किया जाना जाति का सम्‍बंध योग्यता और बाहुबल के साथ स्थापित करता है। यहां निम्न जाति के लोगों को नौकरी या पुलिस में अधिकारी बनने के पश्चात् भी विभाग में कमतर पद वाले उच्च जाति के लोगों द्वारा प्रचलित अपमानजनक जातिगत कथनों का इस्तेमाल किया जाता है। फ़िल्म इस बात को चरितार्थ करती है कि शासन तंत्र और अन्य सार्वजनिक/प्राइवेट एजेंसि‍यों तक पहुँच में जाति एक भूमिका निभाती है।

कोई जरूरी नहीं है कि जिसकी आर्थिक स्थिति अच्छी हो उसकी सामाजिक स्थिति भी अच्छी हो। इस तरह फ़िल्म समझाती है कि जाति प्रथा में ऊँचे से ऊँचे और नीचे से नीचे व्यक्ति की अलग-अलग हैसियत को शास्त्रों के माध्यम से सुनिश्चित किया गया है जिसका उत्पादन, पुनरुत्पादन समाज में बना हुआ है।

फ़िल्म में जाति विमर्श के समानांतर धार्मिकता के उभरते हुए नये स्वरूपों को दिखाया गया है। नये कलेवर में धर्मगुरुओं की धार्मिकता और सामाजिक व आर्थिक सम्बन्धों में उससे होने वाले बदलाव का जिक्र किया गया है। नयी धार्मिकता बहुजन धार्मिकता से एकाकार होती अधिक नजर आती है। आश्रम के माध्यम से समाज में उभरती हुई नयी बहुजन धार्मिकता के रुझान को समझा जा सकता है, जिसमें सबसे अधिक बहुजन तबके या निम्न तबके से आने लोग ज्वादा सक्रिय रहते हैं जो नौकरी की चाह रखने वाले, नौकरीपेशा, बेरोजगार बहुजन होते हैं। ऐसे धर्मगुरुओं या डेरा की शरण में जाना समाज के हाशिये सहित अन्य लोगों के आत्मसम्मान और सामाजिक रुतबे से भी जुड़ा हुआ है।

फ़िल्म में काशीपुर वाले बाबा के रूप में बॉबी देओल की भूमिका हमारे समाज में प्रचलित तमाम तरीके के बहुरूपिया धर्मगुरुओं या चौकी, जागरण, डेरा इत्यादि का संचालन करने वाले गुरुओं के रूप में दिखाया गया है जो धार्मिक अंधविश्वास को नये रूप में समाज में स्थापित करते हैं। इस तरह की धार्मिकता के साथ जुड़ने से लोगों के जीवन में अच्छा होता हुआ महसूस होता है, घर परिवार में सुख शांति का प्रसार होता है, व्यक्तिगत बुरी आदतों और समस्याओं से लोगों को निजात मिलता प्रतीत होता है। इसका परिणाम यह होता है कि समाज में अध्यात्म और धर्म के साये में अपराध और हिंसा को आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है, जिसका सबसे अधिक शिकार महिलाएं और हाशिए के अन्य तबकों के लोग होते हैं।

आश्रम सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु यह सिखाती है कि धर्म को केवल एक पहलू से समझने की गलती नहीं करनी चाहिए। वो भी भारतीय समाज में तो और नहीं, जिसका आधार ही धार्मिक मान्यताओं पर टिका हो। उभरती हुई नयी धार्मिकता राजनीति का हिस्सा भी बनती है, जिसका उपयोग राजनीतिक फायदे के लिए और राजनीति का फायदा धर्म की आड़ में चलने वाले काले करतूतों को छिपाने के लिए किया जाता है। अलग-अलग रूप में जन्म लेने वाले  धर्मगुरुओं के अनुयायियों का उपयोग वोट बैंक की राजनीति के लिए किया जाता है। राजनीतिक पार्टियों द्वारा ऐसी लोक धार्मिकता से बने वोटों को अपने पक्ष में करने के लिए धर्मगुरुओं/बाबाओं को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए कानूनी सुरक्षा प्रदान की जाती है, जिससे इस तरह के धार्मिक वोट का इस्तेमाल सत्ता तक पहुँचने के लिए किया जा सके। इसके बदले में धार्मिकता सत्ता का इस्तेमाल अपनी पहचान को अलग-अलग क्षेत्रों में अपने फायदे और उपभोग के लिए करती है। फ़िल्म बताती है कि किस प्रकार लोक धार्मिकता, पूँजी, राजनीति और संगठित धर्म के साथ मिलकर एक नया रूप ग्रहण कर लेती है।

आश्रम सिरीज़ नये दौर की धार्मिकता, आध्यात्मिकता, व्यक्तिवाद, उपभोक्तावाद, मनोरंजन के विकट घालमेल को दर्शाती है। सामूहिकता के साथ जुड़ाव, मनोरंजन, पहचान की चाह तथा रोजमर्रा के दुःख नयी धार्मिकता के केंद्र हैं जिसके पीछे अत्याचार, भष्टाचार और यौन शोषण जैसे कुकर्म मौजूद हैं। यह सिरीज़ धार्मिकता, सामाजिक मुद्दों और राजनीति के आपसी सम्बन्धों से उपजने वाले विमर्शों को खड़ा करती है। इसके अंतिम परिणामों तक तो अगले सीज़न में ही पहुँचा जा सकेगा।  

सौज- जनपथः लिंक नीचे दी गई है-

https://junputh.com/review/aashram-web-series-discourse-of-caste-crimes-politics-and-popular-religion/

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