
वे वहाँ कैद हैं- प्रियंवद का पहला उपन्यास है जो उन्होंने 1990 में लिखा। उसके बाद 2002 के द्वितीय संस्करण में उन्होंने इसकी भूमिका लिखी। तदनंतर पुनश्च के रूप में 2016 में एक टिप्पणी लिखी जो 2018 के संस्करण में परिशिष्ट के अन्तर्गत उपन्यास पर आलोचक सुरेन्द्र चौधरी की समीक्षा से पहले दी गयी है। उपन्यास भारत में सांप्रदायिकता के बढती समस्या को संबोधित है जो उत्तरोत्तर विकराल रूप लेती गयी है।
वे वहाँ कैद हैं- प्रियंवद का पहला उपन्यास है जो उन्होंने 1990 में लिखा। उसके बाद 2002 के द्वितीय संस्करण में उन्होंने इसकी भूमिका लिखी। तदनंतर पुनश्च के रूप में 2016 में एक टिप्पणी लिखी जो 2018 के संस्करण में परिशिष्ट के अन्तर्गत उपन्यास पर आलोचक सुरेन्द्र चौधरी की समीक्षा से पहले दी गयी है। उपन्यास भारत में सांप्रदायिकता के बढती समस्या को संबोधित है जो उत्तरोत्तर विकराल रूप लेती गयी है। प्रियंवद एक प्रतिष्ठित कथाकार के साथ इतिहास के गंभीर अध्येता हैं। उन्होंने इस समस्या को ऐतिहासिक क्रम में देखा है और इसके भयावह होते जाने का प्रोजेक्शन किया है। दरअसल एक दशक बाद लिखी उनकी भूमिका और डेढ दशक बाद लिखी टिप्पणी समस्या के विस्तार और विद्रूप का विश्लेषण और पडताल करने की कोशिश है। फासीवाद बहुसंख्यकता, धर्म और राष्टीयता के आधार पर शक्ति अर्जित करता क्रमशः प्रतिसत्ता और राजसत्ता की ओर प्रयाण करता है। लेकिन प्रियंवद अपने कथानक में वृतान्तों की ऐतिहासिकता का संदर्भ नहीं लेते अन्यथा उनका कथानक सतही और एकार्थी रह जाता। वे इतिहास- दर्शन से उत्प्रेरणाएं ग्रहण करते हैं और एक साहित्यिक की तरह समस्या के परिप्रेक्ष्य में रचनात्मक हस्तक्षेप करने की कोशिश करते हैं।
इतिहास- दर्शन प्रस्तुत उपन्यास में कैसे विन्यस्त है, इसे कुछ प्रसंगों में देखते हैं : … एक बार चालुक्यों के बनाये एइहोल के एक पुराने मंदिर में गया था मैं। लगभग हजार वर्ष पुराना मंदिर था। उसके अंदर के विशाल नटमंडपम में भयानक अंधेरा था। सिर्फ चमगादडों की फडफडाहट और दुर्गंध थी। कोई नहीं आता था वहां। मैं जब अंदर घुसा तो कुछ भी नहीं था, सिवाय अंधेरे के। कुछ नहीं दिख रहा था… अचानक कुछ क्षण बाद मुझे दिखने लगा- धीरे धीरे सब कुछ। मैं ने सर उठाकर देखा। छत की किसी महीन दरार से रोशनी की एक लकीर गिर रही थी- बेहद पतली, बिल्कुल सूई जैसी, पर एक अप्रतिम चमक से भरी हुई। अद्भुत लगा मुझे सब। मैं धीरे- से उस लकीर के नीचे जाकर खडा हो गया। मेरी पूरी सनसनाती देह प्रकाशमय हो गयी। एक- एक अंग उस आलोक में स्नान कर रहा था। उस भयानक अंधेरे के बीच में एक ज्योतिपुंज बन गया था। वह लकीर पूरे नटमंडप या गुफा में रोशनी नहीं कर रही थी, पर उस रोशनी के सहारे, उस अंधेरे में सब कुछ देखा जा सकता था।
प्रियंवद रोशनी के इस बिम्ब को इतिहास- दर्शन के सार- तत्व से जोडते हैं। उपन्यास के इतिहास शिक्षक दादू के अनुसार इतिहास- शिक्षण को अभिप्रेत आपको चीजों को देखने की तीसरी आंख देना है। … अंधेरों में जब सब नष्ट होता है, तब भी एक चीज अक्षत, अक्षुण्ण रहती है और वह है मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता, उसकी गरिमा पर आस्था और उस आस्था के कभी न क्षरित होने की आशा। वह आशा तुम्हें ऐसे नहीं दिखेगी। देखना पडेगा उसे तीसरी आंख से, और तब वह दिखेगी किसी अंधेरे कोने में पत्थर उकेरती किसी छेनी की नोक पर। कभी किसी शब्द के कगार पर ठहरी हुई, दिखेगी वैदिक ऋचाओं के संगीत से कुमार गंधर्व के बीच के कालखंड पर तनी। दिखेगी समय को रोके हुए कहीं एक छोटे- से चुंबन में। इस आशा को कभी किसी अंधेरे में मत छोडना। …
टायनबी के शब्दों में प्रियंवद एक पतनोन्मुख समाज के लक्षण प्रस्तुत करते है, …धीरे- धीरे एक पूरा समाज, पूरी सभ्यता विघटित होती हुई पतन तक पहुंचती है। अपने आंतरिक दबावों से पहले उसकी संवेदना मरती है, फिर उस काल के अतीत का गौरव, फिर वर्तमान के आदर्श और मूल्य। ऐसे समाज में सर्जनात्मक व्यक्ति अल्पसंख्यक होते जाते हैं। धीरे- धीरे वे भी निष्क्रिय प्रभावहीन होते हुए सुषुप्तावस्था में पहुँच जाते हैं। यह विघटित या पतनशील हुआ समाज किसी भी चुनौती को स्वीकार करने में असमर्थ होता है और फिर अवतरण होता है एक त्राता का। … वे वहाँ कैद हैं उपन्यास के कथानक में दो विपरीत संघर्षरत अस्मिताएं हैं जिसे पारस्परिक घृणा, विद्वेष और निहित स्वार्थों से लगातार हवा मिल रही है। प्रियंवद किसी धर्म के विरुद्ध नहीं जाते, कृति में वह स्वीकार करते हैं कि धर्म की तत्व- मीमांसा में मानवीय मूल्यों और कल्याण की महत्ता है, लेकिन सांप्रदायिकता अपने सोच और व्यवहार में इन मूल्यों से परे होती है। वह अपने कृत्यों को वैध और पवित्र ठहराने के लिए धर्म का सहारा लेती है जिसे जोहान गाल्टुंग सांस्कृतिक हिंसा की अवधारणा में व्याख्यायित करते हैं। इनके समानांतर कुछ लोग हैं जो मानवीय गरिमा, स्वतंत्रता और बहुलता में भरोसा रखते हैं, लेकिन निरंतर हाशियाकृत, आतंकित और संत्रस्त किये जाते हैं। फासीवादी व्यवस्था भय पर आधारित होती है।
किन्तु ऐसी आतताई व्यवस्था का हासिल क्या है ? प्रियंवद कहते हैं,… आज जो कुछ भी श्रेष्ठ है, सुंदर है… मनुष्य की गरिमा को बढाने वाला है वह सब कभी किसी धार्मिक उन्मादी राज्य में नहीं जन्मा… वहाँ सिर्फ एक ठंडा जहर होता है जो धीरे- धीरे तुम्हारी चेतना को सोख लेता है। वहाँ कोई नया शब्द जन्म नहीं लेता, कोई नयी कृति नहीं बनती, चौंधा देने वाला कोई प्रकाश पुंज नहीं जन्मता, बस उन्माद का अंधेरा होता है। … इस अंधेरे और उसकी भयावहता का अनुमान हम इस उपन्यास के त्रासद अंत से लगा सकते हैं। बेशक, यह अंत हताशा भरा है किन्तु यह हम सेंस आफ मिसिंग के तीव्र बोध के साथ मानवीय गरिमा की उज्वल उदात्तता का अहसास कराता है।
अक्सर कला और साहित्य से सामाजिक चुनौतियों के संदर्भ में कुछ ज्यादा ही अपेक्षाएं की जाती हैं। प्रियंवद ऐसे किसी भी भ्रम का स्पष्ट निवारण करते हैं : रचना … कभी पूरे अंधेरे को खत्म नहीं करती पर उसके सहारे से अंधेरे में चीजों को देखा जा सकता है। जो अपेक्षा करते हैं कि रचना पूरा अंधकार नष्ट कर सकती है, वे गलत हैं। रचना समाज नहीं गढती, संवेदना गढती है, दृष्टि देती है और वह भी व्यक्तिगत, सामूहिक नहीं। समाज को या तो धर्म गढता है या राज्य, रचना नहीं। … कहना न होगा कि प्रियंवद के उपन्यास में प्रयुक्त इस कथन के आलोक में भी इस कृति को देखा जा सकता है।
इसी संदर्भ में मुझे खयाल आता है कि स्वयं लेखक ने अपने इस उपन्यास की क्रमशः एक और डेढ दशक बाद वर्तमान इतिहास के विकास क्रम में पडताल की, क्या अब एक बार फिर इसे देश- विदेश में घटनाक्रम के बरक्स देखा जा सकता है। अब जबकि देश में संकीर्ण सर्वसत्तावाद और प्रभावी हो गया है, असहमति और प्रतिरोध की आवाजें अधिक विरल और क्षीण हो गयी हैं तथा तत्कालीन अफगानिस्तान जैसी कुछ जगहों में उभरने वाली कट्टरपंथी ताकतें विश्व भर में वैधता पा रही हैं। यूक्रेन और गजा- फिलीस्तीन पर आक्रमण के विरुद्ध विश्व जनमत में लगभग मौन छाया है। लोकतंत्र के समर्थन का दम भरने वाला अमेरिका खुलेआम पक्ष लेने की कीमत मांग रहा है। ऐसे में उपन्यास और प्रासंगिक हो उठता है। मसलन, पैसे अथवा समृद्धि की भूमिका देखें- पैसा एक खास तरह की संवेदनहीनता को जन्म देता है जो देखने में उचित और तर्कपूर्ण लगती है। आदमी धीरे- धीरे स्वयं से इतर और दूसरी सारी मानवीय संवेदनाओं से असंपृक्त हो जाता है। दूसरे मनुष्यों का अस्तित्व उसके लिए सिर्फ उपयोगी या अनुपयोगी रह जाता है।
राजाराम भादू