हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के असली जय-वीरू तो ओम पुरी और नसीरुद्दीन शाह ही थे!

शुभम उपाध्याय

नसीरुद्दीन शाह की आत्मकथा ‘एंड देन वन डे’ में दर्ज उनके अजीज दोस्त ओम पुरी से जुड़े कुछ अनोखे किस्से. अपनी ऑटोबॉयोग्राफी ‘एंड देन वन डे’ में भी नसीर ने ओम पुरी के बारे में कुछ अनोखे किस्से दर्ज किए. इन किस्सों और नसीर की नजर से भी उन ओम पुरी को देखा जाना चाहिए, जो खुद अपनी ऑटोबायोग्राफी लिखे बिना ही दुनिया को विदा कह गए, क्योंकि ऐसी जय-वीरू के दर्जे वाली दोस्ती के किस्से बॉलीवुड में अकसर मिलते नहीं है.

ओम पुरी और नसीरुद्दीन शाह पहली बार 1970 में एनएसडी में मिले थे. बेहतर किरदारों को निभाने के चलते पहले वे एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी बने और फिर धीरे-धीरे दोस्त बनते-बनते फिल्मों में भी साथ सफर पर निकले. अगर आपने नंदिता पुरी द्वारा अपने पति ओम पर 2008 में लिखी विवादित बायोग्राफी ‘अनलाइकली हीरो : ओम पुरी’ पढ़ी है तो आपको पता होगा कि नसीरुद्दीन शाह ने उनकी तारीफ में आला दर्जे की एक प्रस्तावना लिखी थी, जिसमें ओम पुरी से जुड़ी कई अंजान बातें भी दर्ज थीं.

जैसे, फिल्मों में दाखिल होते वक्त ओम पुरी ने दमदार कैरेक्टर-एक्टर ओम शिवपुरी की उपस्थिति की वजह से ‘गोधूलि’ जैसी शुरुआती फिल्मों में अपना नाम बदलकर ‘विलोम पुरी’ और ‘अजदक पुरी’ तक रख लिया था, और नसीर भी मजाक-मजाक में उन्हें रखने के लिएम ‘विनम्र कुमार’ और ‘अंतिम खन्ना’ जैसे नाम सुझाया करते थे!

इसी प्रस्तावना में नसीरुद्दीन शाह ने अपने भाइयों से ज्यादा अजीज ओम पुरी को बताया था और यह भी कि अगर किसी जीवित इंसान से वे सबसे ज्यादा प्रभावित हैं (तब पुरी साहब हमारे बीच मौजूद थे) तो वह शख्स ओम पुरी हैं. कहना न होगा, जिस इंसान से नसीर ताजिंदगी प्रभावित रहें, वो शख्स दुर्लभ ही होगा!

कई साल बाद 2014 में आई अपनी ऑटोबॉयोग्राफी ‘एंड देन वन डे’ में भी नसीर ने ओम पुरी के बारे में कुछ अनोखे किस्से दर्ज किए. इन किस्सों और नसीर की नजर से भी उन ओम पुरी को देखा जाना चाहिए, जो खुद अपनी ऑटोबायोग्राफी लिखे बिना ही दुनिया को विदा कह गए, क्योंकि ऐसी जय-वीरू के दर्जे वाली दोस्ती के किस्से बॉलीवुड में अकसर मिलते नहीं है.

जब ओम पुरी ने नसीर को राह दिखाई

सत्तर के दशक के शुरुआती सालों में एनएसडी में अभिनय सीखने आए नसीरुद्दीन शाह को उनके गुरु इब्राहिम अल्काजी ने निर्देशन सीखने के काम पर लगाया हुआ था. साथ-साथ नाटकों में अभिनय करना भी थोड़ा-बहुत जारी था लेकिन निर्देशन और मंच सज्जा से जुड़े हुए काम नसीर के हिस्से में ज्यादा थे. हालांकि उनकी रुचि केवल अभिनय करने में थी, बाकी कुछ सीखने में नहीं!

इसी दौरान कोर्स के आखिरी साल के शुरुआती दिनों में, काबुकी शैली में होने वाले एक जापानी नाटक के लिए संस्थान में नायक की तलाश हो रही थी. इसके निर्देशक भी जापान से आ रहे थे और 22 वर्षीय नसीर को पूरा भरोसा था कि उन्हें ही इस मुश्किल नाटक में हीरो का रोल मिलने वाला है. नाटक में काम करने के लिए छात्र का आवाज की हर रेंज पर नियंत्रण होना जरूरी था और नसीर ने अभी तक जितने भी प्ले किए थे, उनमें वे धीमी व फुसफुसाकर बोली जाने वाली आवाज ही धारण कर पाए थे. बावजूद इसके, उनके अति के आत्मविश्वास ने उन्हें भरोसा दिला दिया था कि यह रोल उनसे बेहतर कोई कर ही नहीं सकता है!

लेकिन जब नाटक की कास्टिंग हुई तो नायक की भूमिका के लिए एक्टिंग कोर्स में अध्ययनरत ओम पुरी का चयन हुआ. निर्देशन का कोर्स कर रहे छात्रों को प्रोडक्शन संभालने और एक्टिंग कोर्स के छात्रों को अभिनय सीखने का काम दिया गया. तब तक नसीर, ओम पुरी को सिर्फ चुपचाप रहने वाले एक शांत व्यक्ति के तौर पर ही जानते थे. ओम पुरी की एक्टिंग की काबिलियत का अंदाजा उन्हें नहीं था.

जब इस नाटक के मंचन की शाम को नसीर ने तेजतर्रार योद्धा बने ओम पुरी को अभिनय करते देखा तो हैरान हो गए. उनके अभिनय ने न सिर्फ अति के आत्मविश्वास में डूबे रहने वाले नसीर को अभिभूत किया बल्कि मन ही मन उन्हें यह भी मानना पड़ा कि वे इस अंदाज में इस पात्र को कभी प्ले नहीं कर पाते. उन्हें यह भी समझ आया कि इस स्तर का अभिनय केवल अति की मेहनत और दुनिया को भुलाकर किरदार में डूबने पर ही किया जा सकता है.

नसीर अपनी आत्मकथा में सीधे तौर पर लिखते तो नहीं कि किसकी वजह से उन्होंने ऐसा किया, लेकिन इस नाटक के मंचन की अगली ही सुबह वे अपने गुरु अल्काजी के दफ्तर पहुंचे और इस जिद पर अड़ गए कि उन्हें एक्टिंग कोर्स में ट्रांसफर कर दिया जाए! अल्काजी ने उन्हें लाख समझाया, कि उनके जैसे प्रतिभावान छात्र के लिए निर्देशन मुफीद रहेगा, लेकिन नसीर नहीं माने. और उस दिन के बाद से उन्होंने लाइटिंग और बैकस्टेज के कामों से मुंह मोड़कर हमेशा के लिए एक्टिंग को अपना लिया.

जब ओम पुरी ने नसीर की जान बचाई

लगभग एक ही समय मुंबई आकर संघर्ष करना शुरू करने के बावजूद, हिंदी फिल्मों ने पहले नसीरुद्दीन शाह को मौका दिया था. जहां श्याम बेनेगल की ‘निशांत’ (1975) और ‘मंथन’ (1976) ने उन्हें स्थापित करना शुरू किया, वहीं ओम पुरी को कुछ सालों बाद ही 1980 में गोविंद निहलानी की ‘आक्रोश’ से पहली बार पहचान मिली.

इस बीच मुंबई में सर्वाइव करने के लिए ओम पुरी ने कुछ फिल्मों में छोटी-मोटी भूमिकाएं करना भी स्वीकारा और ऐसी ही एक फिल्म की शूटिंग के दौरान नसीर की जान भी बचाई. फिल्म का नाम था ‘भूमिका’ (1977) जिसमें स्मिता पाटिल, अमोल पालेकर और अमरीश पुरी की मुख्य भूमिकाएं थीं और नसीर भी इसमें एक अहम किरदार निभा रहे थे. ओम पुरी को भारी मेकअप के साथ बेहद छोटा-सा रोल मिला था और ऐसे ही एक दिन की बात है जब इस फिल्म की शूटिंग खत्म होने के बाद वे नसीर के साथ बैठकर होटल में डिनर कर रहे थे. इसी बीच नसीर का एक पुराना दोस्त जसपाल – जोकि उनके साथ एनएसडी में पढ़ता था लेकिन अब दोनों की बातचीत तक बंद थी – कमरे में दाखिल हुआ और ओम पुरी से दुआ-सलाम करने के बाद नसीर के पीछे रखी डिनर टेबल पर बैठ गया.

राजेंद्र जसपाल को नजरअंदाज कर नसीर, ओम पुरी से बातें करने में मशगूल हुए ही थे कि उन्हें पीठ के बीचोंबीच कोई धारदार चीज का वार महसूस हुआ. वे दर्द से कराहने लगे मगर जब तक उठकर पलट पाते, जसपाल ने दूसरा वार करने के लिए हाथ उठा लिया था. इससे पहले कि वह वार नसीर के लिए जानलेवा सिद्ध होता, ओम पुरी चिल्लाते हुए अपनी कुर्सी से उठे और फुर्ती से जसपाल को दबोच लिया. कुछ देर बाद पहुंची पुलिस वैन में डालकर नसीर को अस्पताल ले जाया गया और पुलिस वैन में जबरदस्ती साथ बैठने से लेकर अस्पताल में इलाज होने तक हर पल ओम पुरी नसीर के साथ रहे.

बाद में पता चला कि ड्रग्स की लत का आदी और ‘मंथन’ जैसी फिल्मों में अभिनय कर चुका जसपाल नसीर को जान से मारने की नीयत से ही सेट पर आया था और एक मामूली किरदार निभाने उस दिन सेट पर आए ओम पुरी ने, एक गैर-मामूली काम कर नसीर को बचा लिया था.

और इस तरह, न सिर्फ ओम पुरी ने नसीरुद्दीन को जिंदगी में राह दिखाई बल्कि उनकी जान भी बचाई!

सौज- सत्याग्रहः लिंक नीचे दी गई है-

https://satyagrah.scroll.in/article/110494/naseeruddin-shah-on-om-puri

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