नफरत के दौर में शांति की बात करना अपराध बन गया है – -राम पुनियानी

जहाँ गाँधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन ने लोगों को एक किया वहीं सांप्रदायिक ताकतों जैसे मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और आरएसएस ने धर्म-आधारित पहचान पर जोर दिया. ये प्रवृत्तियां, उस सम्प्रदायवादी राजनीति का हिस्सा थीं जिसने लोगों को एक करने के राष्ट्रीय आन्दोलन के अभियान को कमज़ोर किया. आज स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी हम लगभग उसी स्थिति में हैं जहाँ हम तब थे

बंधुत्व की अवधारणा आधुनिक राष्ट्र-राज्य के आधार स्तंभों में से एक है. स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व, फ़्रांसीसी राज्य क्रांति के ध्येय वाक्य थे. इस क्रांति ने सामंतशाही और राजशाही का अंत किया और आधुनिक राष्ट्र-राज्य के निर्माण की राह प्रशस्त की. इस क्रांति ने प्रजातंत्र का भी आगाज़ किया. अफ़सोस कि इन मूल्यों को भारत के मानस में अपेक्षित स्थान नहीं मिल सका.

भारतीय राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया औपनिवेशिक काल में शुरू हुई. इसके साथ ही आधुनिक राष्ट्र-राज्य के सार्वभौमिक मूल्यों का विकास भी शुरू हुआ. भारत में राष्ट्रीय समुदाय के निर्माण की प्रक्रिया, औपनिवेशिक-विरोधी आन्दोलन के समानांतर चलती रही. राष्ट्रीय समुदाय से आशय है एक ऐसी व्यापक भारतीय पहचान जो धर्म, जाति, क्षेत्र, नस्ल और भाषा की पहचानों से ऊपर हो. राष्ट्रीय आन्दोलन ने सभी वर्गों के लोगों को भारतीय के रूप में आन्दोलन का हिस्सा बनाया. परन्तु इतिहास सीधी रेखा में नहीं चलता. जहाँ गाँधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन ने लोगों को एक किया वहीं सांप्रदायिक ताकतों जैसे मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और आरएसएस ने धर्म-आधारित पहचान पर जोर दिया. ये प्रवृत्तियां, उस सम्प्रदायवादी राजनीति का हिस्सा थीं जिसने लोगों को एक करने के राष्ट्रीय आन्दोलन के अभियान को कमज़ोर किया.

आज स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी हम लगभग उसी स्थिति में हैं जहाँ हम तब थे जब महात्मा गाँधी ने देश को धर्म की सीमाओं से ऊपर उठकर एक करने का हर संभव प्रयास किया था. पिछले तीन दशकों में सांप्रदायिक राजनीति के बढ़ते बोलबाले के कारण धार्मिक समुदायों के बीच गहरी खाई बन गयी है, जिसके एक ओर हिन्दू हैं तो दूसरी ओर मुसलमान और ईसाई. जो लोग आज़ादी की लड़ाई और भारतीय संविधान के मूल्यों को जिंदा रखना चाहते हैं उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि वे उस बंधुत्व, उस परस्पर लगाव, को कैसे वापस लाएं जिसने भारत को एक राष्ट्र बनाया है. इस सिलसिले में एक स्तर पर प्रयास किया जा रहा है कि विभिन्न समुदायों को एक-दूसरे की परम्पराओं और आस्थाओं का सम्मान करना सिखाया जाए. कोशिश यह है कि लोगों को यह बताया जाए कि सभी धर्मों के मूल में लगभग एक-से नैतिक सिद्धांत हैं. भक्ति और सूफी संत नैतिक सिद्धांतों के पैरोकार थे. यही बात गाँधी के हिन्दू धर्म के बारे में भी सही है जो समावेशी था और जो सभी धर्मों के लोगों को आकर्षित करता था.   

वर्तमान में ऐसे कई सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो इस राह पर चलने का प्रयास कर रहे हैं. इस तरह के प्रयासों को पहले बुरी नज़र से नहीं देखा जाता था. परन्तु अब समय बदल गया है. फैज़ल खान नामक सामाजिक कार्यकर्ता की गिरफ़्तारी इसका उदाहरण है. वे सीमान्त गाँधी खान अब्दुल गफ्फार खान द्वारा गठित संगठन ‘खुदाई खिदमतगार’ को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं. गफ्फार खान अहिंसा के पथ के राही थे. वे सभी धर्मों का सम्मान करने के पक्षधर थे और देश के विभाजन के कड़े विरोधी थे. इसी कारण उन्हें पहले ब्रिटिश शासन में और फिर ‘मुस्लिम’ पाकिस्तान की जेलों में कई साल बिताने पड़े.

देश में मोहब्बत और इंसानियत का माहौल फिर से निर्मित करने के लिए फैज़ल खान ने सांप्रदायिक सद्भाव के लिए अन्य शांति कार्यकर्ताओं के साथ यात्रा भी निकाली. उन्होंने ‘अपना घर’ की स्थापना की जहाँ अलग-अलग समुदायों के बीच रिश्ते मज़बूत करने के लिए सभी धर्मों के त्योहारों को मिलजुलकर मनाया जाता है. वे राम जानकी मंदिर सरजू कुंज, अयोध्या में स्थित सर्वधर्म सद्भाव केंद्र के ट्रस्टी भी हैं. इस मंदिर में सर्वधर्म सांप्रदायिक सद्भाव केंद्र की स्थापना की योजना है. फैज़ल खान ने इस मंदिर में कई बार नमाज़ भी अता की है. इस मंदिर के द्वार सभी धर्मों और दलितों सहित सभी जातियों के लिए खुले हैं. वे राष्ट्रीय स्तर पर नेशनल अलायन्स ऑफ़ पीपल्स मूवमेंट्स (एनएपीएम) जैसे संगठनों के सदस्य हैं और वैश्विक स्तर पर अमरीका में कार्यरत संस्था हिंदूस फॉर ह्यूमन राइट्स से संबद्ध हैं.

हाल ही में उन्होंने उत्तरप्रदेश के बृज क्षेत्र में अपने चार साथियों के साथ पांच-दिवसीय शांति यात्रा निकाली. यह यात्रा मथुरा की ‘84 कोस परिक्रमा’ के पथ पर निकाली गई. रास्ते में वे लोग नन्द बाबा मंदिर में रुके. फैज़ल ने मंदिर के पुजारी से प्रसाद ग्रहण किया और ‘रामचरितमानस’ की कुछ चौपाईयां उन्हें सुनाईं. पुजारी ने उन्हें ख़ुशी-ख़ुशी मंदिर के प्रांगण में नमाज़ अता करने की इज़ाज़त दे दी. फैज़ल की गिरफ़्तारी के विरोध में चेंज डॉट ओआरजी पर शुरू की गयी ऑनलाइन याचिका में कहा गया है, “अक्टूबर 29, 2020 को जब दोपहर की नमाज़ का वक्त हुआ तब फैज़ल नमाज़ अता करने मंदिर के बाहर जाने लगे. परन्तु पुजारी ने उन्हें रोका और कहा कि वे वहीं नमाज़ अता कर सकते हैं. फैज़ल और उनके एक साथी चाँद मुहम्मद ने मंदिर में ही नमाज़ अता की.”

उन्हें धार्मिक समुदायों के बीच तनाव पैदा करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है और पिछले कुछ हफ़्तों से वे जेल में हैं. यदि फैज़ल ने मंदिर में पुजारी के अनुरोध पर नमाज़ अता की तो इससे धार्मिक समुदायों के बीच सद्भाव बढ़ा या तनाव? राज्य का यह कर्तव्य है कि वह धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा दे. फैज़ल और उनके साथी यही कर रहे थे.

कई लोग कहते हैं कि धर्मनिरपेक्षता की पक्षधर ताकतें भारत की धार्मिक जनता से इसलिए नहीं जुड़ पा रही हैं क्योंकि वे धर्म की भाषा में बात नहीं करतीं. फैज़ल खान तो धर्म की भाषा में धार्मिक सद्भाव की बात कर रहे थे.

गाँधी और खान अब्दुल गफ्फार खान धर्म को एक नैतिक शक्ति, एक आध्यात्मिक राह के रूप में देखते थे. उनके और उनके जैसे अन्य लोगों के परिदृश्य से गायब हो जाने के बाद सांप्रदायिक ताकतों ने धर्मों के नैतिक घटक की अवहेलना करते हुए उन्हें सिर्फ संकीर्ण पहचान से जोड़ दिया हैं. वे धर्मों का उपयोग लोगों को बांटने के लिए कर रहे हैं. 

हम लोग एक बहुत अजीब-से दौर में जी रहे हैं. धर्मों के बीच की खाई चौड़ी होती जा रही है और जो लोग उसे भरने का प्रयास कर रहे हैं उन पर उसे और गहरा करने का आरोप चस्पा किया जा रहा है. हमें आत्मचिंतन करना ही होगा. हमें गाँधी और सीमान्त गाँधी के पथ पर चलना ही होगी. फैज़ल खान जैसे लोगों को हमें समझना होगा. हमें उनका सम्मान करना होगा क्योंकि वे समावेशी भारत के निर्माण की राह के हमारे हमसफ़र हैं. 

लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं. (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

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