कहानीः सीमा के पार का आदमी – रघुवीर सहाय

रघुवीर सहाय (9 दिसम्बर 1929 – 30 दिसम्बर 1990)- हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकार व पत्रकार । साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित। उनके साहित्य में पत्रकारिता का और उनकी पत्रकारिता पर साहित्य का गहरा असर रहा है। उनकी रचनाएं आज़ादी के बाद विशेष रूप से सन् ’60 के बाद के भारत की तस्वीर को समग्रता में पेश करती हैं। उनकी समूची काव्य-यात्रा का केंद्रीय लक्ष्य ऐसी जनतांत्रिक व्यवस्था की निर्मिति है जिसमें शोषण, अन्याय, हत्या, आत्महत्या, विषमता, दासता, राजनीतिक संप्रभुता, जाति-धर्म में बँटे समाज के लिए कोई जगह न हो।

युद्ध-विराम हो चुका था। यह दोनों देशों के इतिहास में गपतालीसवाँ युद्ध-विराम था। हर बार की तरह पड़ोसी शत्रु को कुचलकर रख देने के गीत लिखनेवाले कवि दूसरे धंधों की तलाश करने लगे थे और राष्‍ट्र की महानता के महाकाव्‍य रचनेवाले कवि सरकारी नेताओं से मिलने-जुलने में लगे थे ताकि उन्‍हें समझा सकें कि वे युद्ध और युद्ध-विराम दोनों को ही राष्‍ट्रीय महानताएँ मानते हैं। ठेकेदार युद्ध-सामग्री के जो ठेके युद्ध-विराम में भी मिल सकते हैं उन्‍हें लेने के लिए छोटे मंत्रियों के यहाँ उपहार अब भी भेज रहे थे मगर सबसे बुरा हाल लड़कों को कवायद के लिए काठ की बंदूकें सप्‍लाई करने वालों का था – और यह तब जबकि राष्‍ट्र की इस भावना के वे सबसे सच्‍चे समर्थक थे कि हम लड़ना नहीं चाहते किंतु हमें लड़ना पड़ा तो हम लड़कर मर जाएँगे।

इस अस्थिरता में एक दिन शत्रु के उस क्षेत्र का मुआयना करने की इच्‍छा रक्षा-उपमंत्री ने प्रकट की जो अपने कब्‍जे में था।

मेजर कलकानी युद्ध-विराम मोर्चे पर दर्शकों को ले जाने और घुमाने का काम किया करते थे। उन्‍होंने कहलवाया कि मंत्री को मोर्चा ही नहीं, बंदीघर भी देखना चाहिए। युद्ध-बंदियों के जेलखाने में दो चीजें खासतौर से देखने की हैं – एक तो अस्‍सी बरस की एक बुढ़िया है और दूसरी अट्ठारह बरस की एक छोकरी। जो कोई जेल देखने जाता है इन दोनों से जरूर मिलता है। बुढ़िया पाकिस्‍तान के अध्‍यक्ष को ताबड़तोड़ गालियाँ सुनाती है कि वह इसके सिर पर यह मुसीबत लाया और लड़की कुछ सुनाती-वुनाती नहीं – वह खुद देखने से ताल्‍लुक रखती है। वह गद्दर जवान ही नहीं, सीनाजोर भी है; चौबारा गाँव पर कब्‍जा होने के पहले उसने अकेले दम हमारी पलटन का मुकाबला किया था : बंदूक थी उसके पास, और बड़ी मुश्किल से काबू आई थी। जानते हो, इन्‍हीं बातों से तो औरत की जवानी मर्दों को एक चुनौती बन जाती है। मेजर ने मंत्री के साथ चलनेवाले चपरकनातियों की संख्‍या गिनी और उस गिरोह में एक अखबारी प्रतिनिधि भी शामिल कर लिया। इत्तफाक देखिए कि वह मैं था।

जिस अखबार के लिए मैं काम किया करता था उसमें हर युद्ध के समय छापा जाता था कि भारतीय सिपाही अदम्‍य साहस से लड़े। लड़ते ही थे। परंतु यह रहस्‍य बना ही रह जाता कि भारतीय सिपाहियों में पाकिस्‍तानी सिपाहियों से लड़ते समय वह साहस कहाँ से आ जाता था! कोई पूछता भी न था। जैसे सबको यह सिखा दिया गया हो कि आजादी की रक्षा के लिए अपने भाइयों से लड़ते रहना जरूरी है। जो हो, मुझे मेरा काम बता दिया गया था और वह काफी सीमित था। मुझे इस विषय पर एक वृत्तांत लिखना था कि मोर्चे पर भारतीय सैनिकों ने पाकिस्‍तानी नागरिकों के साथ कितनी इंसानियत का बरताव किया।

सीमा पार करने के दस कदम पहले सैनिक कमान का एक दफ्तर था। उसमें बैठे हुए कुछ बाबू फाइलों पर कलम घिस रहे थे और सैनिक वर्दी पहने हुए थे। उन्‍हें देखते ही मुझे खाने के कटोरदानों की याद आई जो हर शहर में ऐसा ही काम करने वाले घर से लाया और दफ्तर से वापस ले जाया करते हैं। यहाँ वैसा कुछ भोंडापन न था। बल्कि सैनिक वर्दी भी थी। उसने निरी कलमघिसाई को कितनी इज्‍जत बख्‍श दी थी – मानो सेना न हो तो यह काम मरियल इंसानों से ही कराना पड़े।

सीमा पार करते समय हमें बताया गया कि हम सीमा पार कर रहे हैं। शायद यह जरूरी था क्‍योंकि सीमा-वीमा यहाँ कहीं थी नहीं, सिर्फ एक नाली थी जिस पर पटरे डालकर पुलिया बना ली गई थी। वह भी सेना ने नहीं बनाई थी। अंडे-मुर्गी और दूध उधर से लाकर इधर बेचनेवालों ने बनाई थी। उसी पर सेना पहरा दे रही थी। विभाजन की रक्षा के लिए उसे कहीं तो पहरा देना ही था।

पहला पड़ाव एक ब्रिगेडियर का अड्डा था जिस पर वह एक गाँव जीतने के बाद तैनात था। उसके बंकर में बीयर और डिब्‍बाबंद मछली थी। ‘क्‍या इस गाँव में कुछ पैदा नहीं होता जो आप यह खा रहे हैं?’ मैंने पूछा। ‘बात यह है कि गाँववाले गाँव में हैं नहीं,’ उसने कहा। मतलब यह था कि हमारे आने से पहले जो भाग गए उनके अलावा बाकी या तो मारे गए या बंदी हैं। ये बातें युद्ध के मैदान में, भले ही वह ठंडा पड़ गया हो, कितनी स्‍वाभाविक लगती थीं। खिदमतगार दर्जे के सैनिकों से घिरा हुआ अफसर इन्‍हें कहते वक्‍त एक असैनिक के मन में युद्ध नामक किसी तीसरी सत्ता का ऐसा आतंक जमा सकता था कि न बच्‍चों को सीने में छिपाए भागते लोगों की तस्‍वीर आँखों के सामने आती, न इस स्थिति का उपहास दिखाई देता कि विजेता को खाने को कुछ नहीं मिल रहा है, सिर्फ वीरता का जादू छाया रहता। यही यह अनजाने में कर रहा था। मगर एक सच्‍चे सैनिक की तरह वह बहादुरी का सेहरा अपने ही सिर बाँधकर बैठ न रहा। हालाँकि वह यह कभी नहीं समझ सकता था कि एक गाँव में घुसकर बैठ रहना कितना हास्‍यास्‍पद है, वह यह जरूर समझता था कि बिना प्रतिरोध के जीतने पर कोई वाहवाही नहीं होती। उसने बताया कि एक घर में से पूरा परिवार आखिरी दम तक हमारी सेना का मुकाबला करता रहा। जब उनकी गोलियाँ चुक गईं तब भी वे न निकले, जब खाना चुक गया तब भी न निकले, जब पानी चुक गया तब भी न निकले…

‘तो क्‍या आपने उन सबको भूखा-प्‍यासा मार डाला, यानी भूखे-प्‍यासों को गोली से मार डाला?’

‘नहीं जनाब, आखिर उनको अकल आई और उन्‍होंने समर्पण किया मगर इस शर्त पर कि हम उनकी जान बख्‍श देंगे…’

‘और आपने उनकी जान बख्‍श दी?’

‘जी हाँ, हमने उन्‍हें कत्‍ल नहीं किया। हम उनकी इज्‍जत कर रहे थे क्‍योंकि वे आखिरी दम तक लड़े थे।’

अब मेरी समझ में आया कि आखिरी दम से उसका मतलब आखिरी साँस से नहीं, उस एक क्षण से है जब संकल्‍प टूटने लगता है और आदमी यह निश्‍चयपूर्वक नहीं कह सकता कि वह सिर्फ जिंदा रहने के लिए जिंदा रहना चाहता है या दोबारा लड़ने के लिए। जो हो, वह बोल कुछ इतने गौरव से रहा था जैसे कि निहत्‍थों को कत्‍ल करने का भी श्रेय उसे मिलना चाहिए।

अफसर ने किसी को आवाज दी और उसके आ जाने पर पूछा कि वह बुड्ढा कहाँ है और क्‍या कर रहा है? वह बैठा है, यह सुनकर अफसर मुझे टीले के ऊपर ले गया। वहाँ वह धूप सेंकता बैठा था। या तो वह जमीन को ताक रहा था, या बुढ़ापे से उसकी गर्दन ही झुकी रह गई थी।

‘क्‍यों मियाँ, कैसे हो?’ किसी ने पूछा।

उसने बड़ी मेहनत से गर्दन उठाई। यही उसका जवाब था। या तो ‘अच्‍छा हूँ आपकी दुआ से’ कहते-कहते वह थक चुका था या निर्जन गाँव में, अपने निर्जन गाँव में अपने ध्‍वस्त घर के बाहर शत्रु के बीच लगातार जिंदा रखे जाते-जाते वह जड़ हो चुका था। ‘यह अकेला यहाँ क्‍यों पड़ा है?’ मैंने पूछा। मूर्खता का प्रश्‍न था कि नहीं। क्‍या यह काफी स्‍पष्‍ट न था कि वह एक इंसान वहाँ न रहा होता तो इंसानियत के सलूक का अवसर कहाँ से आता?

मगर चूँकि मैंने पूछा था इसलिए किसी ने माकूल जवाब दिया, ‘वह अपना घर छोड़कर कहीं जाना नहीं चाहता।’

अनजाने में सैनिक ने एक बड़ी बात कह ड़ाली थी। वह नहीं जानता था कि उसका यह वाक्‍य सेना के खिलाफ कितना बड़ा वक्‍तव्‍य है। हे ईश्‍वर, वह न जाने तो ही अच्‍छा है क्‍योंकि जान जाने पर वह इसे कभी दोहराएगा नहीं।

उपमंत्री शत्रु की टुटरूटूँ एक अदद प्रजा का सलाम पाकर खुश हुए। वहाँ से आगे बढ़े तो हम कपास के खेतों में खड़ी फूली फसल के बीच थे और एक ऐसे गाँव की ओर जा रहे थे जिस पर वाकई जमकर हमला हुआ था।

गाँव में घुसते ही एक लंबी गली में कदम पड़ा। इसमें यहाँ से लेकर वहाँ तक बीचोबीच एक साफ-सुथरा रास्‍ता बना हुआ था जैसा मंत्रियों के कहीं जाने पर बनाया जाता है। यह रास्‍ता विचित्र भी था और किसी कदर भयानक भी, क्‍योंकि वह जली हुई छन्नियों, चौखटों और झुलसी हुई र्इंटों का मलबा दोनों तरफ सरकाकर बनाया गया था। हमें बताया गया कि मलबे के नीचे अब कोई लाश नहीं है। यह सच था, पर एक दिन पहले पानी पड़ चुका था और झुलसे हुए अनाज और काठ से उठकर एक गंध-भरा सन्‍नाटा हवा में छा गया था। उसमें लाशों की जो गंध कल तक रही होगी वह आज भी कहीं अटकी लटक रही थी।

यह गली गाँव का बाजार रही होगी, क्‍योंकि इसके दोनों ओर एक-एक दर के दो कमरे थे। एक में तले-ऊपर बुनी हुई मिट्टी की हँडियों का एक स्तंभ खड़ा था जो गोला गिरने के पहले सीधा खड़ा रहा होगा। धमाके से वह खसक गया था और खसका ही खड़ा था। कटोरों का भी एक ढेर था पर उसमें कोई अदद चकनाचूर नहीं हुआ था, सबके सब चटखकर रह गए थे। एक दुकान में मटके में जौ थे, एक पोटली में लाहौरी नमक था और एक कनस्‍तर से गुड़ बाहर आ रहा था और मिट्टी में घुलमिल गया था। 
आगे-आगे जगह-जगह सूँघता और सिर्फ बहुत पसंद आ जाने पर मूतता एक कुत्ता चला। वह वहाँ अकेला प्राणी था जिससे जाना जा सकता था कि जिंदगी का अपना एक आजाद ढर्रा भी होता है।

गली पार करते ही एक अजब दृश्‍य दिखाई दिया। गाँव के इस कोने पर इत्तफाक से कोई राकेट नहीं गिरा था। यहाँ एक चौपाल थी जिसके सामने खड़े पेड़ की सूखी पत्तियों से जमीन ढकी हुई थी। जरा परे हटकर निराले में एक चौकोर कोठरी खड़ी थी जिसका दरका हुआ शिखर स्‍पष्‍ट ही बमबारी से नहीं दरका था क्‍योंकि उसमें एक पीपल उगा हुआ था।

इस कोठरी के भीतर मंत्रीजी भी गए। वहाँ उन्‍होंने दीवारों पर राम और कृष्‍ण की लीलाओं के चित्र देखें जो लाल-पीले तैलरंगों से हरी वार्निश की जमीन पर अँके हुए थे। उन्‍होंने कोठरी के मध्‍य में एक चौतरा देखा। उस पर कोई मूर्ति न थी।

निकास गाँव के दूसरे छोर से था। इस बार एक ढहे हुए घर के भीतर से गुजर कर जाना पड़ा। सब विशिष्‍ट अतिथि लाँघते-फाँदते निकल गए। मैंने अपने को एक बड़े कमरे में खड़े पाया जिसकी छत का एक कोना दीवार के एक अंश को साथ ले गया था और उसमें से अक्‍टूबर का नीला आकाश दिखाई दे रहा था। फर्श पर मिट्टी और चूने की तह से कूड़ा इस तरह ढका पड़ा था जैसे इसी तरह बिछाया गया हो। यह उस घर के रहनेवालों की गिरस्‍ती थी। एकाएक जाने किस लालच से मजबूर होकर मैंने उसे खखोलना शुरू कर दिया।

मुझे हाईस्‍कूल पास करने का एक प्रमाणपत्र मिला जिस पर का नाम फटकर अलग हो चुका था। एक आठवें दर्जे की भूगोल की कॉपी मिली। इसमें किसी ने पाकिस्‍तान की जलवायु का नक्‍शा बनाया था जो हिंदुस्‍तान का नक्‍शा साथ में खींचे बगैर बना ही नहीं सका था। छोटे पैर की एक नन्‍हीं चप्‍पल मिली। गुलाबी प्‍लास्टिक की सस्‍ती किस्‍म की थी जैसी चाँदनी चौक में भी मिलती है – जिस पर तितली टँकी रहती है। मुझे लपककर विशिष्‍ट अतिथियों को पकड़ना था : क्‍या मैं एक पैर में चप्‍पल, एक में नदारद, दौड़ जाऊँ? मैं ठिठक गया। चप्‍पल को मैंने कूड़े में सबके ऊपर इस तरह रखा कि जैसे ही बच्‍ची कमरे में आए उसे मिल जाए। एक पैर की लापता चप्‍पल को घर-भर में ढूँढ़ते, हल्‍ला मचाते बच्‍चों को क्‍या आपने कभी नहीं देखा?

बंदीघर भारतीय प्रदेश में एक स्‍कूल था। इसके अहाते को शेर जितना फलाँग न सके, इतने ऊँचे कँटीले तार से घेर दिया गया था। भीतर कई कमरों में जहाँ अब भी सेब और आम की बड़ी-बड़ी तस्‍वीरें लटक रही थीं वे लोग जमा थे जिन्‍हें अधिकृत गाँवों से लाया गया था। गौंजी हुई दरी पर ये पसरे पड़े थे। फिर भी न जाने क्‍यों, सारी जगह अस्थिरता से भरी हुई थी जैसे हवा में जान हो। औरतें नीचे आँगन में कई जगह रोटी पका रही थीं। गालियाँ देनेवाली बुढ़िया वहीं थी। बुलाकर लाई गई। किसी ने उसे छेड़ा ताकि वह कहना शुरू करे कि अय्यूब मुए का नास हो जिसने यह आग लगाई। इतने बड़े-बड़े आदमियों को देखकर वह पहले तो सकते में आ गई, फिर एकाएक दहाड़ें मार-मारकर रोने लगी। रो-रोकर वह कह रही थी, ‘मेरा लड़का कहाँ ले गए हो तुम लोग? मुझे सच-सच क्‍यों नहीं बता देते?’

उपमंत्री को बताया गया कि यह आधी पागल है, पर आप इससे कह दीजिए कि गाँव छोड़ने के पहले पाकिस्‍तानी फौज तुम्‍हारे लड़के को सबके साथ लारी में भरकर ले गई थी।

‘बगल के कमरे में भी दो मिनट के लिए तशरीफ ले चलिए, हुजूर,’ मेजर साहब ने विषय के साथ-साथ स्‍थान भी बदलना चाहा! वहाँ एक बड़ा कमरा-भर के हिंदू थे। ये मुसलमानों से अलग रखे गए थे। बंदीघर के प्रबंधकों ने शायद यह नियम माना था कि चूँकि पाकिस्‍तान बन चुका है, इसलिए मुसलमान और हिंदू अलग-अलग रखे जाएँगे। इतना ही संभव यह कारण हो सकता था कि चूँकि जेलखाना हिंदुस्‍तान में है, इसलिए हिंदू-मुस्लिम फसाद बचाने के लिए वे अलग-अलग रहें।

उपमंत्री ने पूछा, ‘पाकिस्‍तान में आपको कोई तकलीफ है?’

मंद गति से काफी देर तक सोचने के बाद एक आदमी, जिसके कान में सोने की बालियाँ थीं, कुछ कहनेवाला था कि दूसरा सवाल आया, ‘क्‍या आपको अपने धर्म-कर्म के पालन की छूट है?’

इतना सुनना था कि एक कोई आदमी कोने से लपका हुआ सामने आ खड़ा हुआ और कहने लगा, ‘मुझसे पूछिए, मैं इन सबका पुरोहित हूँ’ कहकर उसने टीन का एक संदूक खोला। उसमें भजनों की चौपतियाँ किताबें भरी हुई थीं, ‘यह देखिए, हमें पूजा नहीं करने देते पर इनके सहारे किसी तरह हम जिंदा हैं।’

‘यह झूठ बोलता है,’ पुरोहित के बिल्‍कुल बगल में खड़ा हुआ एक नौजवान बोला। मंत्री के स्‍वागत से जो हलचल शुरू हुई थी उसमें न जाने कैसे वह मुसलमानों के कमरे से यहाँ आ गया था। ‘यह गलत है,’ उसने कहा, ‘इनके पुजारी हैं और इनका मंदिर भी है। चौबारा गाँव में आप जाएँ तो खुद देख सकते है।’

सब चुप रहे। पुरोहित ने कहा, ‘बड़ी सख्‍ती है हम पर साहेब, तिथि-त्यौहार बाजा नहीं बजा सकते, मूर्ति नहीं रख सकते – मंदिर में।’

मुसलमान नौजवान जरा गरम होकर बोला, ‘इनकी शादियाँ होती हैं, बच्चे पैदा होते हैं, सब काम होते हैं – अपने मजहब के भीतर।’

पुरोहित का चेहरा अस्‍वीकार से और कड़ा हो आया।

उपमंत्री मुड़कर चल दिए। अमला साथ-साथ रेंग गया।

एक बार मैं फिर पीछे छूट गया था। पुरोहित के कंधे पर हाथ रखकर मैंने पूछा, ‘अब तुम हिंदुओं के बीच में आ गए हो तो यहीं क्‍यों न रह जाओ – सब कष्ट कटें!’

वह चौंका। अविश्‍वास से उसने मुझे ताका। दरवाजे की तरफ देखकर उसने अंदाजा लगाया कि उसको कोई ताड़ तो नहीं रहा है।

‘नहीं साहेब, वहीं चले जाएँगे।’

‘तुम तो कहते हो, बड़े बंधन हैं वहाँ!’

‘हाँ साहिब, हैं तो, पर अपना घर वहीं है, बच्‍चे को पालने का सहारा है, अपना जो कुछ है वहीं है साहिब, अब और कहाँ जाएँ?’

एक पल हम दोनों चुप रहे। फिर उसने जाने क्‍या सोचकर मुझसे मानो कोई भेद खोला, ‘हम 1947 में भी वहीं थे। हमने अपना घर नहीं छोड़ा।’

मुझे कोई गलतफहमी न हो गई हो, सिर्फ इस खयाल से मैंने पूछा, ‘हिंदू होकर भी तुम वहीं बने रहे?’

‘हिंदू तो हिंदुस्‍तान चले गए थे,’ उसने कहा, ‘हम हरिजन हैं।’

विशिष्‍ट अतिथियों की मंडली दबंग युवती को देखने आगे बढ़ रही थी जैसे वे सब पुरुषपुंगव हों और उनके ऊपर सुनहरी जीन कसी हुई हो। मैं उधर नहीं गया। मेरा दिल बेकरार हो उठा, इस आदमी को एक पैर की उस नन्‍हीं चप्‍पल की बात बता डालने को, जिसे मैं नसीमन के लिए वहीं सँभालकर रख आया था।’ 

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