कोविड-19 का चढ़ता हुआ ग्राफ किस ऊंचाई पर पहुंचकर दम तोड़ेगा, ये साफ होने में तो अभी थोड़ा वक्त लगेगा लेकिन राष्ट्रव्यापी तालाबंदी ने नौकरियों का कितना नुकसान किया है इसे लेकर पहला आकलन आने के साथ तस्वीर बहुत कुछ साफ हो चली है. नौकरियों के नुकसान के आंकड़े बड़े भयावह हैं. शायद, दुनिया में ऐसा नुकसान पहली बार देखने को मिल रहा है. पिछले दो हफ्तों में देश में जितने लोगों ने रोजगार गंवाये हैं, वैसा देश के आर्थिक इतिहास में अब तक देखने में नहीं आया. रोजगार के मोर्चे पर अनिश्चितता झेल रहे लोगों की तादाद आज भारत में रुस की आबादी जितनी हो सकती है.
बेशक हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं जिसके बारे में पहले से सोच पाना तक मुश्किल था तो भी रोजगार के मोर्चे पर जो हालात हैं, वे ऐसे समय के लिहाज से भी अप्रत्याशित कहे जायेंगे. आइए, रोजगार के मोर्चे पर जो हालात हैं उन्हें हम एक-एक कर समझने की कोशिश करें.
पहले उन आंकड़ों पर गौर करते हैं जो सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इकोनॉमी (सीएमआइई) ने जारी किये हैं. सीएमआइई के ये आंकड़े आपको बेरोजगारी की दशा को जानने के बाबत हुए सर्वेक्षण अनएम्पलायमेंट ट्रैकर सर्वे में मिल जायेंगे. ये अपनी तरह का अनूठा सर्वेक्षण है जिसमें दैनिक, मासिक तथा तिमाही अवधि के बेरोजगारी के आंकड़े एकत्र किये जाते हैं. सीएमआइई अपने उपभोक्ता सर्वेक्षण के लिए रोजाना रैंडम रीति से चुने हुए 3500 लोगों का साक्षात्कार लेता है. लॉकडाउन के बाद, बाकी चीजों की तरह सर्वेक्षण भी बाधित हुआ. मार्च माह के आखिरी हफ्ते में सीएमआइई 2289 लोगों का ही साक्षात्कार ले पाया. लेकिन इस आंकड़ों को जारी नहीं किया गया क्योंकि सैम्पल (नमूना) बहुत ही छोटा था और मार्च का पिछला हफ्ता अपने स्वभाव में भी असामान्य की श्रेणी में आयेगा. मौका-मुआयना आधारित सर्वेक्षण को दोहरा पाना भी संभव नहीं था. ऐसे में सीएमआइई के फील्ड स्टॉफ ने 5 अप्रैल के दिन खत्म होने वाले हफ्ते के लिए 9429 लोगों से टेलीफोन पर साक्षात्कार लिये. ये सैम्पल भी छोटा ही कहा जायेगा तो भी इतना छोटा नहीं कि उससे शहरी/ग्रामीण तथा वर्गवार स्थितियों का आकलन नहीं किया जा सके. टेलीफोन के सहारे किये गये इस सर्वेक्षण के नतीजे पिछले हफ्ते के सर्वेक्षण से बहुत भिन्न नहीं थे. सो, बहुत सोच-विचार और सत्यापन के बाद सीएमआइई ने इस सोमवार को अपने पहले चरण के आंकड़े और विश्लेषण सार्वजनिक जनपद में लोगों के सामने रख दिये हैं.
आइए, अब जरा आंकड़ों पर गौर कर लें. आप ऐसे समझिए कि सीएमआइई का हाल का सर्वेक्षण अपनी तकनीकी शब्दावली के पीछे कोई भयावह बम छिपाये हुए है. सीएमआइई के मुख्य कार्याधिशासी तथा निदेशक महेश व्यास का कहना है, ‘इस हफ्ते बेरोजगारी की दर 23.4 प्रतिशत, श्रम-बल की प्रतिभागिता दर 36 प्रतिशत तथा रोजगार की दर 27.7 प्रतिशत है.’ मतलब, नौकरियों का सीधे-सीधे 20 प्रतिशत का नुकसान हुआ है और इतनी बड़ी तादाद में नौकरियों का खत्म होना किसी भी देश के लिए बड़ी बुरी खबर है. आंकड़े से निकलकर आती सबसे बुरी बात तो ये है कि जिस उम्र को काम-धंधे की उम्र माना जाता है, उस आयु-वर्ग के मात्र 27.7 प्रतिशत लोग ही किसी ना किसी रोजगार में लगे हैं.
अब जरा आंकड़ों को सीधा-सरल बनाकर समझें. फिलहाल भारत की आबादी है लगभग 138 करोड़. इस आबादी में लगभग 103 करोड़ लोग 15 साल या इससे ज्यादा उम्र के हैं यानि उन्हें उस आयु-वर्ग का माना जा सकता है जिसमें लोग काम-धंधे में लगे होते हैं. अब जरा रोजगार की एक व्यापक परिभाषा कर लें. मान लें कि किसी भी किस्म का ऐसा काम जिसमें कुछ आय-अर्जन होता है चाहे वो काम अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्र में हासिल हो या फिर असंगठित क्षेत्र में, दिहाड़ी का काम हो, नियमित वेतन का या फिर स्वरोजगार का— उसे हम यहां रोजगार कह रहे हैं. अगर रोजगार की ऐसी परिभाषा लेकर चलें तो कोरोना-काल तथा तालाबंदी से पहले यानि फरवरी 2020 में भारत में लगभग 40 करोड़ (40.4 करोड़) लोगों को रोजगार हासिल था. ऐसा सीएमआइई की तत्कालीन रिपोर्ट में लिखा है. तालाबंदी से तुरंत पहले के वक्त में भारत में बेरोजगार लोगों की तादाद रिपोर्ट के मुताबिक 3.4 करोड़ थी.
अब जरा इस आंकड़े की तुलना पिछले हफ्ते के आंकड़े से कीजिए. सीएमआइई का आकलन है कि तालाबंदी घोषित होने के तुरंत बाद वाले हफ्ते में काम-धंधे के आयु-वर्ग वाली आबादी का मात्र 27.7 प्रतिशत हिस्सा रोजगार में लगा था. ये आंकड़ा 28.5 करोड़ लोगों का होता है. इसके मायने कि मात्र दो हफ्ते के भीतर आय-अर्जन के किसी भी काम में लगे लोगों की संख्या 40.4 करोड़ से घटकर 28.5 करोड़ पर पहुंच गई यानि रोजगार में लगे लोगों की संख्या में दो हफ्ते के भीतर 11.9 करोड़ की कमी. (अपने निष्कर्ष पर यकीन जमाने के लिए मैंने महेश व्यास को फोन किया और ये पूछा कि क्या मैं आपके आंकड़े के विश्लेषण के सहारे ठीक निष्कर्ष पर पहुंच रहा हूं. महेश व्यास का जवाब था- हां.)
इस बात को हजम करने के लिए बड़ा जतन करना पड़ेगा कि बीते दो हफ्ते में करीब 12 करोड़ भारतीयों ने रोजगार गंवाया है. मान लीजिए कि इनमें से 8 करोड़ लोग ऐसे हैं कि उन्हीं की कमाई पर उनके परिवार का भरण-पोषण निर्भर है. इसका मतलब हुआ कि देश के 25 करोड़ परिवारों में से एक तिहाई परिवार के पास अभी जीविका का संकट आन खड़ा हुआ है.
इस तस्वीर को अब एक बड़े परिप्रेक्ष्य में रखकर देखिए- अमेरिकी अखबारों और टेलीविजन पर पिछले दो हफ्ते से बढ़तीबेरोजगारी के आंकड़ों को लेकर सुर्खियां बन रही हैं क्योंकि लगभग 10 लाख अमेरिकियों ने इस अवधि में बेरोजगारी की दशा में दी जाने वाली सुविधाओं की मांग की है. अमेरिका में इतनी बड़ी तादाद में बेरोजगारी-भत्ते और सुविधा की मांग करने वाले निकट अतीत में कभी नहीं रहे. इस स्थिति की तुलना 1932-33 की महामंदी से कीजिए. उस वक्त अमेरिका में बेरोजगार लोगों की तादाद डेढ़ करोड़ थी. आर्थिक महामंदी के दौर में पूरे यूरोप में बेरोजगार लोगों की तादाद को भी शामिल कर लें तो आंकड़ा 5 करोड़ से ज्यादा नहीं पहुंचता. जाहिर है, तालाबंदी के कारण भारत में एक झटके में रोजगार गंवाने वाले लोगों की तादाद अब तक के दर्ज इतिहास में सबसे ज्यादा है.
इस भ्रम में मत रहिए कि यहां बेरोजगारी की परिभाषा में कोई हेरफेर करके आपको निष्कर्ष परोसे जा रहे हैं. दरअसल हम यहां वास्तविक रोजगार को हुए वास्तविक नुकसान की बात कह रहे हैं. सीएमआइई रोजगार की परिभाषा बड़े व्यापक धरातल पर करता है. वे सभी लोग जिन्हें नियमित काम-धंधा हासिल है या फिर जो तालाबंदी के कारण अभी काम नहीं कर पा रहे लेकिन तालाबंदी के खुलने के तुरंत बाद अपने काम-धंधे पर फिर से जा सकते हैं, उन्हें सीएमआइई रोजगारशुदा मानता है. यानि सीएमआइआई के आकलन में उन सभी लोगों को रोजगारशुदा माना गया है जिनके पास अभी नियमित वेतन वाला काम है या फिर जो अनुबंध पर काम कर रहे हैं. इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो अभी घर में रहते हुए काम तो नहीं कर रहे लेकिन स्थिति में सकारात्मक बदलाव आते ही काम पर जा सकते हैं. इसी तरह वे सभी पेशेवर तथा दुकानदार जो तालाबंदी की हालत में घर में बे-काम होकर बैठे हैं, उन्हें सीएमआइई के सर्वे में रोजगारशुदा ही माना गया हैं. इसी तरह किसान और खेतिहर मजदूरों को भी रोजगारशुदा मानकर चला गया है.
बेशक जीविका का ये संकट स्थायी किस्म का नहीं है. लेकिन ये भी नहीं मानकर चल सकते कि लोग तीन हफ्ते की छुट्टी पर चले गये हों या फिर उन्होंने तीन हफ्ते के लिए ही काम-धंधे से हाथ धोया हो. लॉकडाउन के खत्म होने के बाद, हो सकता है रोजगार गंवाने वाले लोगों में से कुछ चंद रोज के भीतर फिर से काम पर लग जायें. कोई-कोई ऐसा भी होगा जिसे काम तलाशने और पाने में महीनों लगेंगे. और, अगर अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में चली जाती है जैसा कि विश्व के तमाम मुल्कों की गति और स्थिति को देखते हुए शंका जतायी जा रही है तो फिर बहुत से लोग ऐसे भी होंगे जो अपनी गंवा चुकी नौकरी को फिर दोबारा हासिल नहीं कर पायेंगे.
यहां गौर करने की एक जरूरी बात ये भी है कि लेख में प्रस्तुत निष्कर्ष आंकड़ों में किसी किस्म की बाजीगरी के सहारे नहीं निकाले गये. ये बात सही है कि सीएमआइई का सर्वेक्षण एनएसएसओ के सर्वेक्षण से अलग तस्वीर दिखाता है और कुछ शुद्धतावादी एनएसएसओ के सर्वेक्षण को तरजीह देकर चलते हैं. लेकिन, यहां सीएमआइई के सर्वेक्षण को लेकर किसी नुक्ताचीनी का कोई खास मतलब नहीं क्योंकि हम सीएमआइई के डेटा-ऋंखला के दो बिन्दुओं की आपसी तुलना के आधार पर यहां निष्कर्ष निकाल रहे हैं. ध्यान रहे कि ये लॉकडाउन के बाद का दूसरे दौर का सर्वेक्षण है और इसके निष्कर्ष पहले वाले सर्वेक्षण से मेल खा रहे हैं. या, ये कह सकते हैं कि सर्वेक्षण टेलीफोन पर साक्षात्कार के सहारे हुआ हो और सैम्पल का आकार छोटा हो तो भूल-गलती की आशंका ज्यादा होगी. सो ये मानकर चलें कि सीएमआइई के सर्वेक्षण में रोजगार की स्थिति को कम करके आंका गया हो सकता है और सैम्पल अगर ज्यादा बड़ा और मौका-मुआयना आधारित होता तो रोजगारशुदा लोगों का आंकड़ा दो प्रतिशत ज्यादा निकलकर आ सकता था. ऐसा मान लें तो भी हम देखते हैं कि बीते दो हफ्ते में 10 करोड़ लोगों ने रोजगार गंवाया है.
सीएमआइई के सर्वेक्षण के नतीजों से जो तस्वीर उभरती है वो यूं भी साधारण से आकलन से पुष्ट हो जायेगी. देश में 11 करोड़ कामगार ऐसे हैं जिन्हें जीविका खेती-बाड़ी से अलग के क्षेत्र में रोजगार हासिल है. कुल 6 करोड़ लोग स्वरोजगार में लगे हैं और 2.5 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें वेतनभोगी तो कहा जा सकता है लेकिन जिनकी नौकरी स्थायी किस्म की नहीं है. न्यूज रिपोर्ट्स पर नजर रखें और सामान्य सूझ का इस्तेमाल करें तो भी ये स्पष्ट हो जायेगा कि गैर खेतिहर कामों में लगे इन्हीं तीन श्रेणी के लोगों ने सबसे ज्यादा रोजगार गंवाया है.
साथ ही ये बात भी याद रखें कि लॉकडाउन से तुरंत पहले के वक्त में 3.4 करोड़ लोग बेरोजगार थे. लॉकडाउन के बाद नौकरी गंवाने वाले 12 करोड़ लोगों में इस संख्या को जोड़ दीजिए तो आंकड़ा 15 करोड़ तक पहुंच जाता है. साथ ही, ये भी हो सकता है कि सीएमआइई के मौजूदा सर्वेक्षण में बहुत से लोगों ने अपने को बेरोजगार ना माना हो लेकिन लॉकडाउन के बाद के वक्त में अगर उन्हें कंपनियां नौकरी पर नहीं रखतीं तो वे अपने को बेरोजगार की दशा में पायें. रेहड़ी-ठेला चलाने वाले बहुत से लोग ऐसी दशा में हो सकते हैं कि उनके पास लॉकडाउन की अवधि के बाद इतनी पूंजी ही ना बचे कि वे अपना काम-धंधा फिर से शुरू कर सकें. दूध-उत्पादन और मुर्गीपालन सरीखे कामों में लगे बहुत से किसान, मुमकिन है कि लाभदायक कीमत ना मिलने के कारण बहुत से मजदूरों की छंटनी करने पर मजबूर हों. सो, मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि कम से कम 15-20 करोड़ भारतीय ऐसे हैं जिनके पास अभी जीविका का संकट है या जिन्हें जल्दी ही जीविका के संकट का सामना करना पड़ेगा.
फिलहाल हम ये नहीं जानते कि कोरोनावायरस से पैदा स्वास्थ्य-संकट कितना गहन होगा और देश इससे कैसे निपटेगा लेकिन हम ये जरुर जानते हैं कि बेरोजगारी का संकट अभी ही सिर चढ़कर बोल रहा है. लोगों के जीवन और जीविका को बचाने के लिए सरकार को जल्दी ही लोक-कल्याण के मोर्चे पर कुछ वैसा करना पड़ेगा जैसा आर्थिक महामंदी के दौर में न्यू डील के सहारे अमेरिका में किया गया था.
योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. लगातार सामयिक मुद्दों पर लिखते है ।ये उनके निजी विचार है।