कहानीः उज्ज्वल भविष्य- स्वयं प्रकाश

स्वयं प्रकाश हिन्दी साहित्य का चिरचरिचित नाम है । समाज को जड़ता से बाहर निकाल उसे प्रगतिशील मूल्यों की तरफ चलने को प्रेरित करती सामाजिकता के सरोकार से भरी उनकी कहानियाँ  पढने में जितनी सरलता का बोध कराती है उतनी ही ज्यादा वे भीतर से झकझोरती हैं । स्वयं प्रकाश की कहानियाँ पूरे भारतीय समाज को अपने दायरे में लेती हैं और आम जन के हर्ष-विषाद, उथल-पुथल और मामूली समझी जाने वाली स्थितियों का सटीक विश्लेषण करती हैं। आज पढ़ते हैं उनकी कहानी ‘उज्ज्वल भविष्य’। ( जीवेश चौबे-संपादक) 

उज्ज्वल भविष्य

गाड़ी ने प्लेटफॉर्म छोड़ा तो ऊबते हुए स्पेक्ट्रा इंजीनियरिंग ग्रुप के अध्यक्ष, प्रबंध निदेशक और मालिक मित्तल साहब ने टाटा करने वालों को प्रत्युत्तर दिया और जूते उतारकर टाँगें पसार लीं। चलो! अब अपन हैं और यह यात्रा। बाजू की खाली वर्थ पर नजर डालो। कूपे की तीनों बर्थ खाली थीं और खाली ही रहने वाली थीं। इससे तो कोई होता! पर क्या पता कौन होता? कोई बोर करने वाला होता तो? नहीं, ऐसे ही ठीक है।

अभी कूपे का दरवाजा बंद करने की सोच ही रहे थे कि एक लड़का दौड़ता हुआ आता दिखाई दिया। वह प्लेटफॉर्म के ऐन सिरे पर रफ्तार पकड़ चुकी गाड़ी में उछलकर चढ़ गया – इसी डिब्बे में – और सीधा मित्तल साहब के कूपे में घुस गया और पीछे से दरवाजा बंद करने लगा।

‘क्या बात है? क्या बात है? क्या चाहिए?’ मित्तल उखड़ गए।

लड़के ने हाथ जोड़े, हँफनी सँभाली, बोला, ‘घबराइए नहीं, चोर-डाकू नहीं हूँ, प्लीज! दो मिनिट का मौका दीजिए।’

मित्तल बैठे रह गए। टकटकी लगाकर लड़के को देखते रहे। उसने कूपे का दरवाजा पीछे हाथ कर बंद जरूर किया है, लेकिन बोल्ट नहीं किया है। किसी भी समय चिल्लाकर कंडक्टर को बुलाया जा सकता है… वैसे पानी की सुराही हाथ के बिल्कुल पास है। लड़के ने हमला करने की कोशिश की तो दे मारेंगे। फिर भी दिल धकधक कर रहा है। शायद माथे पर पसीना भी छलक आया है।

दो मिनिट तक कुछ नहीं होने से मित्तल साहब का आत्मविश्वास लौटने लगा। बोले, ‘कौन हो? क्या चाहिए?’

लड़के ने कमीज की बाँह से माथे का पसीना पोंछा, थूक गटका और हाथ जोड़कर बोला, ‘नौकरी चाहिए।’

क्षणांश को मित्तल साहब को विश्वास नहीं हुआ कि उन्होंने ठीक से सुना है। बोले, ‘ऐं?’

‘नौकरी।’ लड़के ने दोहराया।

मित्तल साहब एकदम रिलेक्स हो गए, बल्कि उन्हें मजा आने लगा और वे मुस्कराए। मुस्कराहट अनायास एक मिनी ठहाके में बदल गई। बोले, ‘ओह! क्या नाटकीय स्थिति है! वाह! रीयलि ड्रामेटिक! थिएट्रिकल रादर। जिंदगी में कभी किसी ने इस तरह चलती ट्रेन में दौड़कर मुझसे नौकरी नहीं माँगी! हाँ, हवाई जहाज में एक बार एक आदमी ने जरूर नौकरी माँगी थी। पर अपने लिए नहीं, अपने एक नालायक भतीजे के लिए। नालायक लोग मुझे बहुत अच्छे लगते हैं, सो मैंने उसे रख भी लिया। आज वह मेरी एक फर्म में चीफ मैनेजर है। अभी कुछ दिनों पहले यह किस्सा मैं किसी को इंटरव्यू में बता रहा था। तुमने जरूर कहीं वह इंटरव्यू पढ़ लिया है और नौकरी माँगने का यह तरीका अख्तियार किया है। एम आई राइट? पर जरा सोचो, कितना खतरनाक है यह तरीका? मान लो गाड़ी पकड़ने की हड़बड़ी में गिर ही जाते! या अभी मैं कंडक्टर को बुलाकर कहूँ कि… फर्स्ट का टिकट तो क्या होगा तुम्हारे पास?’

लड़का बगलें झाँकने लगा।

‘तो तुम दफ्तर में क्यों नहीं आ गए?’

‘आया था। उन लोगों ने आपसे मिलने नहीं दिया।’

‘तो घर आ जाते।’

‘घुसने नहीं दिया।’

क्लब?’

‘कपड़े नहीं थे।’

पार्किंग?’

‘आपके सुरक्षा-कर्मचारी हर बेरोजगार को आतंकवादी समझते हैं।’

‘हाँ, यह बात तो है। तुम टेलीफोन…’

‘आपका पी।ए। बात नहीं कराता।’

तब तो खैर यही तरीका बचा। खैर, चलो। बैठो।’

लड़का जमीन पर बैठने लगा।

‘अरे नहीं-नहीं, सामने बैठो।’

लड़का सामने की बर्थ पर टिक गया। इस तरह कि यह भी नहीं लगे कि एकदम बैठ ही गया है और यह भी नहीं कि उसने मित्तल साहब के आदेश की अवहेलना की है।

मित्तल साहब ने सुराही से पानी निकालकर पीते-पीते लड़के की तरफ बढ़ा दिया, ‘लो, पानी पियो!’

‘जी, बस ठीक है। मैं पीकर ही चला था।’

‘अरे पियो-पियो! कोई बात नहीं। जूठा कर लो। और कप है। कहता हूँ पियो। थूक गटक रहे हो कब से।’

लड़के ने पानी पिया। उतने से पानी से क्या होता, पर उसने और नहीं माँगा। मित्तल ने भी और के लिए नहीं पूछा। इतनी इंसानियत काफी है। खुद पीने लगे। लड़का कप हाथ में लिए बैठा रहा। दोनों हाथों में। मानो धारण किए। वापस कैसे दे? जूठा कप मित्तल साहब को कैसे दे? वहाँ रखे भी कैसे? बाहर के पानी से धोकर लाने से भी कैसे चलेगा? तो हाथ में ही पड़ा है। धारण किए है।

मित्तल साहब ने जेब से इलायची निकालकर मुँह में डाली। मजा लेते हुए बोले –

‘तुम्हें पता कैसे चला कि मैं इस ट्रेन से सफर कर रहा हूँ? मैं तो कभी ट्रेन से सफर करता नहीं।’

‘सर, आपको कौन नहीं जानता?’ लड़के ने कहा।

इस जवाब में कोई तुक नहीं थी। पर मित्तल सुनकर संतुष्ट हुए। लड़का थोड़ा-बहुत बात करना जानता है। दस-पंद्रह मिनिट इससे ही बात करके टाइम पास करेंगे, फिर कपड़े बदलेंगे और क्रासवर्ड पजल्स निकालेंगे जो खूब सारी मित्री ने भर दी हैं रास्ते के लिए। अथवा सोचेंगे।

‘हाँ! तो तुम्हें नौकरी चाहिए?’

‘जी!’

‘अरे भाई, आराम से बैठो।’

‘जी, बस ठीक है।’

‘फिकर मत करो, कंडक्टर तुम्हें नहीं उठाएगा। ये चारों बर्थ मैंने रिजर्व करा रखी हैं। बैठ जाओ। कंडक्टर पूछेगा तो कह दूँगा तुम मेरे साथ हो। हालाँकि पूछेगा नहीं।’

लड़का कुछ ठीक से बैठ गया।

‘हाँ! तो? तो तुम्हें नौकरी चाहिए? क्यों?’ मित्तल ने फिर पूछा और लड़के को सिर से पाँव तक ध्यान से देखा। कुछ भी विशेष नहीं। सिर से पाँव तक बेरोजगार। हिंदुस्तान में कहीं भी ऐसे दृश्य देखे जा सकते हैं। अपनी भूख मारनी हो, तो। अपना मूड ऑफ करना हो; तो। नहीं, कुछ भी खास नहीं।

मित्तल ने तीसरी बार कहा, ‘तो? नौकरी चाहिए?’ और सोचने लगे कि जब इसमें कुछ भी खास नहीं है तो वे इसे तुरंत भगा क्यों नहीं दे रहे? क्या उनकी अनुभवी आँखें धोखा खा रही हैं? उन्हें लगा, कोई कठिन लेकिन दिलचस्प क्रासवर्ड पजल सामने पड़ गई है। भिड़ जाएँ? सुलझाने में? घड़ी देखी। हाँ, कुछ देर भिड़ा जा सकता है।

‘क्या पढ़ाई की है?’

‘जी, एम।कॉम।, एलबी।, आई।सी।डब्लू।ए। का इंटरमीडिएट। डिप्लोमा इन जरनलिज्म…’

‘ऐसी बेतुकी क्वालिफिकेशंस तो बहुतों के पास होती हैं। देश में इतने विश्वविद्यालय खुल गए हैं कि जिधर पत्थर उछालो, किसी डिग्रीधारी पर ही गिरेगा। तुममें क्या खास बात है?’

‘एक बार मौका देकर देखिए, मैं अपनी काबिलियत साबित कर दूँगा।’

‘ओह! तो तुम काबिल हो?’ विलंबित गायन का-सा अंदाज। व्यंग्य।

‘जी!’

लेकिन मुझे तो काबिल नहीं, होशियार आदमियों की जरूरत होती है!’

लड़का कुछ समझा नहीं। बिटर-बिटर ताकने लगा।

मित्तल ने समझाया –

‘काबिल आदमी अच्छा काम कर सकता है, पर होशियार आदमी के मुकाबले में आता है तो बौखला जाता है और हार जाता है। होशियार आदमी चाहे उतना काबिल न हो, काबिल लोगों से अपना काम निकलवाना जानता है। कहिए? क्या कहते हैं?’

लड़का मित्तल की बात का मतलब समझने की कोशिश करता रहा।

‘और जिसे आप काबिलियत समझते हैं, वह क्या है?’ मित्तल ने पूछा।

लड़के से कोई जवाब देते नहीं बना।

‘शायद आप कैशबुक बराबर मेंटेन कर सकते हैं, लेजर अपटुडेट रख सकते हैं, बैलेंस शीट पढ़ सकते हैं, एस्टीमेट ठीक से चैक कर सकते हैं, कॉस्ट शीट तैयार कर सकते हैं… पैसे-कौड़ी, लेन-देन, जमा-खर्च का हिसाब इतना साफ रख सकते हैं कि एक पैसे की भी गड़बड़ी न हो पाए।’

‘जी, जी!’ लड़का बोला।

‘और जिसे अनाड़ी भी देखे तो उसकी समझ में आ जाए।’

‘जी, जी!’ लड़का उत्साहित हो उठा।

‘और इसे आप काबिलियत समझते हैं!’

लड़का फिर फक।

मित्तल और आराम से पसर गए। बोले, ‘समझिए, एक सोने का पहाड़ है हमारी इन्वेंटरी में। इसकी कीमत पता लगानी है। कैसे लगाएँगे?’

‘सर, एक तरीका तो यह है कि बाजार भाव में उपलब्ध माल की मात्रा का गुणा कर दो… और अगर लागत मूल्य पता लगाना है तो…’

‘सिंपल आनसर है। एक रुपया।’

‘जी?’

‘सोने के इस पहाड़ की कीमत एक रुपया!’

‘जी, यदि असंप्शन ही करना है तो संभव है कि बुक बेल्यू…’

‘मैं कहता हूँ एक रुपया!’ इस बार मित्तल ने लगभग डाँटकर कहा। फिर बात को खोलते हुए कहा, ‘मेरा अकाउंटेंट बोर्ड मीटिंग के ऐन पहले मेरे हुक्म के मुताबिक साल-भर के नफा-नुकसान, उत्पादन-बिक्री, जमा-खर्च के हिसाब हिसाब-किताब में गड़बड़ियाँ पैदा कर सकते हो या नहीं? अगर हाँ, तो कितनी देर में? और वह भी ऐसे कि गड़बड़ी में कोई गड़बड़ी न रहे!’

लड़का फिर कोई जवाब नहीं दे पाया।

‘अच्छा छोड़ो! यह बताओ कि जब इसी काबिलियत के पाँच आदमी और मिल रहे हों तो तुम्हीं को क्यों लिया जाए?’

‘जी, मैं ईमानदार हूँ। आप आँख मूँदकर मुझ पर भरोसा कर सकते हैं।’

मित्तल थोड़ा चौंके। फिर मुँह बिचकाकर बोले, ‘अब तक तुम मुझे हँसा रहे थे, पर अब तो तुम मुझे डरा रहे हो। मैंने इतने साल में जो एंपायर खड़ी की है, उसे एक ईमानदार आदमी पर भरोसा करके मिट्टी में मिल जाने दूँ? क्या मेरा सिर फिर गया है? नहीं, शायद तुम मजाक कर रहे हो।’

क्यों सर? ईमानदार होना कोई बुरी बात है क्या?’

मित्तल साहब ने फिर बुरा-सा मुँह बनाया और खिड़की से बाहर देखने लगे। मानो सोच रहे हों – यह क्रासवर्ड पजल तो बहुत ही बोरिंग है!

कुछ पल ऐसे ही बीत गए। लड़का हाथ धोने की तरह हाथ को हाथ से मलता रहा। रेलगाड़ी अब द्रुत ताल में चल रही थी। उसकी छकपक का सुर सध गया था और बात करने के लिए आवाज ऊँची नहीं करनी पड़ती थी।

‘तुम्हारे कंसेप्ट बहुत पुराने हैं। कहीं तुम किसी अध्यापक के बेटे तो नहीं?’ कुछ देर बाद मित्तल ने पूछा।

लड़का क्या कहता? वह सचमुच अध्यापक का ही बेटा था।

‘मेरी लड़की भी तुम्हारी ही तरह है। चौदह साल की हो गई, अब तक आदर्शवाद की चपेट में है। देखा जाए तो उसी के कारण मुझे तुम-जैसे… क्या कहना चाहिए… ‘कल्पना पाखी’ के साथ माथा खपाना पड़ रहा है। कहती है, जब डॉक्टरों ने मना कर रखा है तो मुझे हवाई जहाज में सफर नहीं करना चाहिए। उसे ने ये सारी, ‘लंबे-चौड़े ताम-झाम की तरफ इशारा करते हुए, ‘व्यवस्था की है। सारा कूपा मेरे लिए रिजर्व करा दिया। समझती नहीं कि डॉक्टर भी धंधा कर रहा है। अब कहिए?’

लड़के को समझ में नहीं आया कि उसे क्या कहना है?

मित्तल साहब ने फिर जेब से इलायची निकालकर मुँह में डाली और उसे दाढ़ से फोड़कर बोले, ‘पहले कहा जाता था कि ईमानदारी से काम करना आदमी किताबों से सीखता है और बेईमानी से काम करना तजुरबे से। पर आज तो हमें इतना टाइम नहीं है कि आपको अनुभवी बनाने के लिए दस साल आपकी चाइल्डिश ईमानदारी भुगतें! आज तो इंडस्ट्री को ऐसे यंगस्टर्स चाहिए जो बेईमानी से काम करने में कुशल हों। जिसे कहते हैं प्रेग्मेटिक। इथिक्स की जगह चर्च में है, बिजनेस में नहीं। इसलिए ब्रीडिंग ही ऐसी होती है कि… अच्छे घरानों में बच्चों को बचपन से सिखाया जाता है, कैसे दूसरों से काम लेना… कब क्या बोलना, कब क्या नहीं बोलना… किसको मन की बात बताना, किसको नहीं… यानी तुम्हारी भाषा में बेईमानी कैसे करनी, चीटिंग कैसे करनी? खास स्कूलों में उन्हें भेजा जाता है… वहाँ सिखाया जाता है कि तुम्हारे काम क्या-क्या हैं, औरों के काम क्या-क्या हैं? तुम्हारे लिए सही-गलत क्या है, औरों के लिए सही-गलत क्या है, वगैरह। तो देखो, उन बच्चों के सामने कभी अंतरात्मा का संकट नहीं होता। दे आर रीयली ब्रिलिएंट एंड ऑफकोर्स सक्सेसफुल। इन मोस्ट ऑफ द केसेस।’

‘लेकिन सर, ईमानदारी…??’

‘कहाँ है ईमानदारी इस देश में? पॉलीटीशियंस? नौकरशाही? न्यायपालिका? पत्रकार? कलाकार? सामाजिक कार्यकर्ता? सामाजिक संस्थाएँ? कौन है ईमानदार? किसे जरूरत है आपकी ईमानदारी की?’

‘लेकिन सर, ये ही तो सब कुछ नहीं है। देश में करोड़ों आदमी हैं। और वे बेईमान नहीं हैं। खेत में हल जोतता किसान, मशीन पर काम करता आदमी… गाँव के स्कूल में बच्चों को पढ़ाता अध्यापक… सड़क पर झाड़ू लगाता मेहतर, रसोई में रोटी सेंकती औरत… क्या हम इन सबको बेईमान कह सकते हैं? और क्या हमारा देश इन लोगों की सम्मिलित बुद्धि, सम्मिलित बल से ही नहीं बनता? ईमानदारों के चर्चे नहीं होते। वे अखबारों की खबरें नहीं बनते। एक आदमी जेब काटता है… वह खबर बन जाता है… नौ सौ निन्यानवे आदमी जेब नहीं काटते। वे खबर नहीं बनते। क्या आसमान ऐसे ही टिका हुआ है सर! जरूर इतनी बड़ी चीज को उठाए रखने के लिए कुछ खंभे होते होंगे। ये लाखों-करोड़ों गुमनाम ईमानदार आदमी वैसे ही खंभे हैं सर!’

लड़के की इस अचानक और चपल वक्तृता से मित्तल हतप्रभ रह गए। पैंतरा बदलकर बोले, ‘देखो, कितने अच्छे विचार हैं तुम्हारे! कितने सुलझे हुए। तुम्हें तो पॉलिटिक्स करनी चाहिए।’

लड़के को तुरंत अपनी भूल का एहसास हुआ और वह रुआँसा हो गया।

मित्तल चुपचाप उसकी दुर्दशा का मजा लेते रहे। फिर बिस्किट निकालकर खाने लगे। लड़के से पूछा तक नहीं।

कुछ देर बाद लड़का बोला, ‘आयम सॉरी सर!’

मित्तल के मुँह में बिस्कुट था। चबाना रुक गया। आँखें गोल-गोल हो गईं। जैसे पूछ रहे हों – क्यों-क्यों?

गाड़ी धीमी हो गई। शायद कोई स्टेशन आ रहा था।

अचानक लड़का उठा खड़ा हुआ। संकल्प की-सी मुद्रा में बोला, ‘सर! मैं सक्सेसफुल बनूँगा। मैं बेईमान बनूँगा! बहुत बड़ा बेईमान! आप देखिएगा सर!’ और बाहर जाने लगा।

मित्तल आवाज मारकर बोले, ‘फिर गलती कर गए। एक बात ध्यान से सुनो। किसी भी इंटरव्यू में जाओ, तो सारे सवालों के सही जवाब कभी मत देना। आते हों तो भी नहीं। वरना नौकरी देनेवाले को तुम पर एहसान करने का सुख कैसे मिलेगा? कुछ गुंजाइश छोड़ना उस बेचारे के लिए भी। इसके अलावा कोई भलाई का काम उसे नहीं आता।’

लड़का बगैर कोई जवाब दिए चला गया और उतर गया।

मित्तल अदम्य सुख से मुस्कराए। उन्होंने सोचा – अब लड़का अगर उनसे मिलने आया – आ सकता है – तो वे जरूर उसे मित्री से मिलवाएँगे। मित्री को अच्छा लगेगा। बल्कि उनकी तो इच्छा है कि मित्री अपने लिए ऐसा ही कोई लड़का पसंद करे। बजरबट्टू। इसका भविष्य उज्ज्वल है। ढंग की ट्रेनिंग मिल गई तो आगे जाकर अच्छा बेईमान बन सकता है।

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