लॉकडाउन : न महुआ और न बांस की टोकरी बेच पा रहे हैं कमार जनजाति के लोग

हमारे समाज का एक ऐसा वर्ग है जो पहले से हाशिये पर है उनके आजीविका पर लॉकडाउन का असर दिखाई देने लगा है ।

 “तीन हफ्ते पहले हमारे यहाँ कोचिया आया था, और अब नहीं आ रहा है जिस से हमारे सुपा, टोकरी, टुकना कुछ भी बिक नहीं रहा है. हम तो अभी बनाना छोड़ दिए हैंयह बात मंगौतीन बाई ने कहा।

मंगौतीन बाई हमारे देश के हाशिये पर जी रहे कमार जनजाति की महिला हैं। बांस की टोकरी आदि बनाना कमार जनजाति की पारंपरिक आजीविका का साधन है। यह जनजाति जंगल के पास रहते हैं जहां बांस उपलब्ध हो और पूरा परिवार यह काम करते हैं। बाहर से कोचिया (व्यापारी) लोग आते हैं और यह सामान खरीदकर ले जाते हैं।

उनके पति घासीराम नेताम ने कहा – “यह महुआ का समय है, इसलिए हम पति-पत्नी आजकल महुआ फूल बीनने जंगल जा रहे हैं, लेकिन बाजार बंद है, इसलिए महुआ भी नहीं बिक रहा। सड़क किनारे एक दुकान खुली थी, उस दुकानदार ने 24/25 रुपए किलो के हिसाब से थोड़ा बहुत खरीदा है।

लॉकडाउन से पहले बाजार में महुआ के दाम 30 रुपए था, लेकिन बाजार बंद होने के कारण यह बिक नहीं रहा है और जहां कोई बेच भी पा रहा है तो इसके दाम नहीं मिल रहा है।

हालांकि धमतरी जिले के वन अधिकारी (डीएफओ) अमिताभ बाजपेयी का कहना है कि महुआ के फूल और जंगल जात उत्पादों को खरीदने के लिए धमतरी और जंगल व आदिवासी बहुल नगरी विकासखंड में 118 महिला समूह को यह सामग्री खरीदने की जिम्मेदारी दी गई है, जो जल्दी ही यह सामग्री खरीदने लगेंगे।

गौरतलब है कि देश में कुल 26,000 कमार आदिवासी हैं जो छत्तीसगढ़ और ओडिशा में रहते हैं, लेकिन विडम्बना यह है कि एक ओर छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को जहां जनजाति का दर्जा मिला हुआ है। वहीं ओडिशा के कमार आदिवासी जो पहरिया के नाम से भी जाने जाते हैं, उन्हें ओडिशा में आदिवासी का भी दर्जा नहीं है। जाहिर है कि इसके चलते उन्हें जनजातियों को मिलने वाला अधिकार से वंचित होना पड़ रहा है।

हमारे देश में 75 जनजातियां ऐसी हैं जो हासिये पर जी रहे हैं, जिनकी आबादी भी घट रही है। उनमें शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका की समस्या बाकी लोगों से ज्यादा गहरी है। इनमें ज्यादातर लोग और खासकर महिलाएं और बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। ऐसे में और ऐसे समय में सरकार और प्रशासन को इनकी देखभाल की खास जरूरत है।

पुरुषोत्तम ठाकुर की रिपोर्ट एवं फोटो- ( सौ. डाउनटुअर्थ)

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