महिला-विरोधी फिल्मों के बीच पितृसत्ता की बेड़ियां तोड़ती ‘द लास्ट कलर’

श्रेया

हाल में ही एमज़ॉन प्राइम पर आई फिल्म ‘द लास्ट कलर’ इस पितृसत्तात्मक समाज की बेड़ियों को तोड़ती हुई महिलाओं, मूलतः विधवाओं के हकों की बात करती है। बनारस में फिल्माई गई यह फिल्म महिला केन्द्रित फिल्म है जो विधवाओं के साथ होने वाले अमानवीय बर्ताव के अलावा और भी कई संजीदा विषयों के बारे में बात करने की पहल करती है। इस पहल के लिए फिल्म के डायरेक्टर विकास खन्ना तारीफ के काबिल हैं।

हमारे पितृसत्तात्मक समाज में किसी औरत का विधवा होना उसके लिए शायद सबसे बुरा सपना है। उसके जीवनसाथी की मौत हो जाना इसकी वजह नहीं है बल्कि असली वजह है इस पितृसत्तात्मक समाज द्वारा विधवाओं के लिए बनाए गए अमानवीय सिद्धांत। हमारा समाज वह समाज है जो एक पत्नी को “मेरा पति मेरा देवता है” रट लेने पर मजबूर करता है। भारत एक ऐसा देश है जहां पति की मृत्यु के बाद एक औरत की ज़िन्दगी खुद-ब-खुद खत्म मान ली जाती है। उससे उसके जीवन के सभी रंग छीनकर, उसे औंधे मुंह बस एक ही रंग में डुबो दिया जाता है, तब तक जब तक वह मर नहीं जाती। यकीनन समाज ने तरक्की की है मगर इतनी नहीं कि विधवाओं के साथ होने वाले ऐसे अमानवीय सुलूकों पर सवाल पूछना बंद कर दिया जाए। विधवा होने के बाद उसके बाल कटवा दिए जाने पर चुप्पी साध ली जाए। एक विधवा के दोबारा शादी करने पर आज भी समाज की भोंहे तन जाती हैं। मगर एक विधुर (पुरुष जिसकी पत्नी की मौत हो चुकी हो) का दोबारा शादी करना न सिर्फ उसकी जरूरत मानी जाती है बल्कि उसे दोबारा शादी करने के लिए प्रोत्साहित भी किया जाता है।

एक विधवा के रंगीन कपड़े पहन लेने पर, उसके नेलपॉलिश लगा लेने पर, बिंदी लगा लेने पर या फिर सबके सामने खुश हो लेने पर आज भी लोगों को आपत्ति होती है। आखिर क्यों है ऐसा? पति के मरने में उसकी पत्नी का क्या दोष जो उसे सामान्य समाज से अलग एक कोठरी में मरने के लिए छोड़ दिया जाता है? दरअसल हिन्दू रिवाज़ में बिंदी, चूड़ी, बिछिया, पायल, मेहंदी आदि शादी के प्रतीक माने जाते हैं, मगर सिर्फ महिलाओं के लिए। ये वे बेड़ियां हैं जो सिर्फ एक महिला के पैरों में डाली जाती हैं, समाज को इंगित करने के लिए कि वह औरत शादीशुदा है। चूंकि हमारे समाज ने सभी वर्ग की औरतों के लिए अपने मन में एक ‘गाइड बुक’ तैयार कर रखी है, एक शादी-शुदा औरत को क्या करना चाहिए या क्या नहीं करना चाहिए, वह सबकुछ भी उन्होंने अपने हिसाब से इसमें लिख रखा है। अपने पति के अलावा और किसी भी पुरुष से न घुलना-मिलना और अपने पति को अपना देवता मानना इसी ‘गाइड बुक’ के नियम हैं। हालांकि पुरुषों के लिए ऐसी किसी भी दकियानूसी रीति की न तो कोई व्यवस्था है और न ही कोई पहल। ऐसे में जब एक औरत के पति की मौत होती है तो उस औरत की भी मौत मान बैठना हमारे पितृसत्तात्मक समाज को सही मालूम पड़ता है।  

ऐसे में हाल में ही एमज़ॉन प्राइम पर आई फिल्म ‘द लास्ट कलर’ इस पितृसत्तात्मक समाज की बेड़ियों को तोड़ती हुई महिलाओं, मूलतः विधवाओं के हकों की बात करती है। बनारस में फिल्माई गई यह फिल्म महिला केन्द्रित फिल्म है जो विधवाओं के साथ होने वाले अमानवीय बर्ताव के अलावा और भी कई संजीदा विषयों के बारे में बात करने की पहल करती है। इस पहल के लिए फिल्म के डायरेक्टर विकास खन्ना तारीफ के काबिल हैं। दुनियाभर में मशहूर एक सफल शेफ से डायरेक्टर बने विकास की यह पहली फिल्म है जो उन्हीं की किताब, ‘द लास्ट कलर’ पर आधारित है। अपने ‘कम्फर्ट स्पेस’ से बाहर निकलकर फिल्मों की दुनिया में कदम रखने वाले विकास फिल्म मेकिंग को अपना अब तक का सबसे कठिन अनुभव मानते हैं। विधवाओं की बेरंग दुनिया को देखकर वह कहते हैं कि, “मेरी ज़िन्दगी में मसालों और सब्जियों के रूप में बहुत सारे रंग हैं। किसी का मेरी ज़िन्दगी से इन सभी रंगों को छीन लेने का ख्याल ही मुझे पागल कर देता है।” और यही वो वजह रही जिसने विकास को अपनी ज़िन्दगी में बेहद व्यस्त होने के बावजूद ‘द लास्ट कलर’ का डायरेक्टर बना दिया।

फिल्म में छोटी का किरदार निभा रहीं अक्सा सिद्दीकी अपनी बातों से मन में छाप छोड़ जाती हैं। छोटी बनारस की गलियों और घाटों पर कूदती फांदती एक ‘अछूत’ मगर निडर और बेबाक बच्ची है जो इस समाज द्वारा गढ़े गए सभी रूढ़िवादी सिद्धांतों को बदल डालने की जिद और माद्दा दोनों ही रखती है। ‘द लास्ट कलर’ छोटी की जिद, उसके बेबाकीपन और उसके सपनों की भी कहानी है। छोटी का खुद में विश्वास मन मोह लेता है। नूर के किरदार में नीना गुप्ता किसी आलोचना की मोहताज़ नहीं हैं। उनका काम हमेशा की तरह इस फिल्म में भी बेहतरीन है। अनारकली के किरदार में ट्रांस एक्टिविस्ट रुद्रानी छेत्री ने भी अच्छा काम किया है। फिल्म के डायलॉग्स ऐसे हैं जो फिल्म खत्म हो जाने के बाद भी दिमाग में रह जाते हैं मगर फिल्म की रफ्तार कहीं-कहीं पर खटकती है। चाहे छोटी का बनारस के घाटों से नूर सक्सेना बनने तक का सफ़र हो या चाहे नूर की मौत हो, एक खालीपन लगता है जिसे कहानी को सही तरीके से गढ़ा गया होता तो फिल्म और बेहतर हो सकती थी।

मगर नारीवादी चश्मे से अगर इस फिल्म को देखा जाए तो यह बॉलीवुड की तमाम फिल्मों से बहुत आगे की फिल्म है। आज के परिवेश को देखते हुए बहुत ज़रूरी है कि हम ऐसे विषयों के बारे में बात करें जिनपर बाकी अन्य फिल्मों में मखौल उड़ाया जाता है। बॉलीवुड की लगभग सभी मेनस्ट्रीम फिल्मों में जहां महिलाओं का वस्तुकरण होता है, उनके प्रति असंवेदनशील और द्वेषपूर्ण डायलॉग्स बोले जाते हैं, महिला विरोधी गाने जहां दर्शकों को आकर्षित करते हैं, वहां ‘द लास्ट कलर’ इन सभी के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली फिल्म मालूम पड़ती है। कुल मिलाकर अगर आप नारीवादी हैं तो यह फिल्म आपके लिए है और इसे ज़रूर देखना चाहिए।

सौज- एफआईआई

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