दिन-रात भूख के मोर्चे पर डटे 6 राज्यों के ‘भोजन योद्धाओं’ की कहानी

ऐसे उदात्तम विचार आज हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मानवता की पहचान बन चुके हैं। एक तरफ कोरोना महामारी से दुनिया लड़ रही है लेकिन उसी लड़ाई में दुनिया के समक्ष एक और मोर्चा है, वह मोर्चा ‘भूख’ से लड़ने का है। दुनिया के अमीरतम देश आज भुखमरी के कगार पर खड़े हैं। हमारे सामने यह चुनौती है कि तालाबंदी के दौर में बेकार पड़े लाखों-करोड़ों मजदूरों और गरीब-गुरबा के पेट कैसे पाले जाएँ। मानवता यही कहती है कि व्यक्ति में अपनी भूख के बराबर ही दूसरे के भूख की भी फिक्र होनी चाहिए। और न केवल फिक्र ही बल्कि उसे दूर करने का सायास प्रयास भी। कोरोना महामारी से लड़ाई के पहले मोर्चे पर दुनिया भर के वैज्ञानिक और डॉक्टर, स्वास्थ्यकर्मी, पुलिसकर्मी तो लड़ ही रहे हैं, लेकिन दूसरे मोर्चे पर कुछ ऐसे लोग, समूह और संगठन सक्रिय हैं जिन्हें हम ‘भोजन योद्धा’ (फ़ूड वारियर्स) कह सकते हैं। यह रिपोर्ट हिंदुस्तान के कुछ राज्यों में ऐसे ही योद्धाओं की कहानी बयां करती है जो अपने स्तर से जरूरतमंद लोगों को मदद पहुंचा रहे हैं।

देश भर से तस्वीरें आ रही हैं कि बड़ी संख्या में सामाजिक संस्थाएं और लोग मदद के लिए सामने आए हैं। कोई समूह अपने आसपास लोगों के बीच राशन बांट रहा है, कोई समूह खाने के पैकेट बांट रहा है तो कोई मास्क बांट रहे हैं, दूसरी ओर लोग अपने मुहल्ले और गावों को सेनिटाइज करते भी नज़र आ रहे हैं।

हमने इस रिपोर्ट में कई राज्यों का सफ़र किया है, जिसके जरिये हमने सामाजिक सरोकार और राज्य की पहुंच की सीमा का भी अवलोकन किया। यदि समाज पूरी तरह राज्य द्वारा उपलब्ध कराई जा रही सहायता, सब्सिडी और भोजन की व्यवस्था पर निर्भर होता तो क्या कोरोना महामारी से अधिक मौतें भूख से न हो जातीं? इन्हीं सवालों के तह तक जाने की कोशिश हमने इस रिपोर्ट में की है।

उत्तर प्रदेश

फैज़ाबाद, इलाहाबाद (प्रयागराज), लखनऊ और वाराणसी, जैसे कई जिलों में हमने मदद करने वाले लोगों से बात की। लोग कोरोना महामारी के डर को भुलाकर घरों से बाहर भूखे परिवारों की भूख मिटाने के लिए निकले हैं। लोगों का एकमात्र उद्देश्य है लोगों को भूख से कैसे बचाया जाय! इसके साथ ही सरकारी योजनाएं जरूरतमंद लोगों तक पहुंच रही हैं या नहीं, देखने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता और मददगार समूह वाचडॉग की भूमिका भी अदा कर रहे हैं।

इस संबंध में इलाहाबाद के सामाजिक कार्यकर्ता और कवि अंशु मालवीय कहते हैं कि सामाजिक संस्थाएं या मददगार लोग वहां भी पहुंच रहे हैं जहां सरकार भी नहीं पहुंच पा रही है। लॉन्ग टर्म के लिए यह स्थिति और विकराल होती सकती है। ऐसे में ये सारे प्रयास यहां तक पहुंचने में काम आएंगे कि हम लोग इसी बीच स्टेट को ज्यादा ज़िम्मेदार बना पाएं, जो राजकीय सहायता है, हर जरूरतमंद तक पहुंच पाए।

आपका यह समूह ‘इलाहाबाद हेल्प ग्रुप’ इस तरह से व्यक्तिगत स्तर पर कब तक मदद कर सकता है?

इस सवाल पर अंशु मालवीय कहते हैं कि हम लोग एक महीने की भूख का इंतजाम कर सकते हैं, हो सकता है कि अगले छह महीने साल भर लोगों को नौकरी या कोई काम न मिले, उस समय हम कैसे मदद पहुंचाएंगे इस रणनीति पर हमें काम करना होगा।

इलाहाबाद हेल्प ग्रुप की ही एक टुकड़ी इलाहाबाद के झूंसी क्षेत्र में लोगों तक राशन पहुंचाने का काम पिछले तेरह दिन से कर रही है। क्राउड फंडिंग के माध्यम से ईश्वर शरण डिग्री कॉलेज में सहायक प्रोफेसर अंकित पाठक गरीब, प्रवासी मजदूर और ठेला-खुमचा लगाने वालों तक मदद पहुंचाने का काम कर रहे हैं। हमने उनसे बात की, वे बताते हैं कि हम अपने अभियान के तहत मूलतः प्रवासी मजदूरों और राशनकार्ड विहीन लोगों को ही लक्षित कर रहे हैं, क्योंकि ऐसे लोगों को किसी भी तरह की सरकारी सहायता नहीं मिल रही है। सरकारी दस्तावेजों में पंजीकृत लोगों के लिए भी मुश्किलें हैं, उन्हें मिलने वाली सरकारी मदद से उनके महीने भर का काम नहीं चल पा रहा है। कोरोना से उपजी स्थिति बेहद संकटपूर्ण है, लेकिन ऐसे में समर्थ लोग और जन सरोकार रखने वालों को उन लोगों के साथ खड़े होने की जरूरत है, जिनके लिए पेट पालने की समस्या विकराल बनती जा रही।

अंकित पाठक चूंकि एक शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं इसलिए हमने उनसे जानने की कोशिश की कि इस संक्रामक बीमारी में उपजी भुखमरी की समस्या से कैसे निपटा जाय? इस सम्बन्ध में अंकित पाठक इन दिनों परिवारों की मदद के दौरान खुद के प्रयोग किये गए मॉडल का जिक्र करते हैं। वे बताते हैं कि “अपने वितरण अभियान में हमने राशन का जो अनुपात तय किया है वह औसतन पांच से छः लोगों के परिवार में दस दिन के लिए पर्याप्त है। जिसे तैयार करने में खर्च लगभग पांच सौ रुपये आ रहे हैं, इस तरह महीने भर का राशन एक परिवार के लिए पंद्रह सौ रुपये में उपलब्ध हो सकता है।” सरकार को तत्काल जमीनी स्तर पर योजना बनाने की जरूरत है। इस कार्य में सरकार को नागरिक समाज और समाजकर्मियों की मदद लेनी चाहिए। यदि यह तत्काल न संभव हुआ तो लोग कोरोना से पहले भुखमरी से मरने लगेंगे।

उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले में आफाक भी एक टीम बनाकर ‘पीपुल्स एलाइंस’ के तहत लोगों तक मदद पहुँचा रहे हैं। आफाक यह मदद दो स्तर पर कर रहे हैं पहला यह कि यदि उन तक यूपी के किसी भी शहर से किसी के भूखे होने की सूचना मिलती है तो उन तक अपने मित्रों के माध्यम से मदद पहुंचाने का काम करते हैं। दूसरा अयोध्या क्षेत्र में क्राउड फंडिंग के माध्यम से लोगों तक मदद पहुंचा रहे हैं। आफाक बताते हैं कि हम लोगों ने 134 परिवारों को चिह्नित किया है जो असम से हैं। इन लोगों तक अभी तो हम मदद पहुंचा दिए हैं। लेकिन आगे हम प्रशासन से बात करके तीन महीने तक राशन उपलब्ध कराए जाने की अपील करेंगे। 

उत्तराखंड

उत्तराखंड की स्थिति मैदानी इलाकों से बिल्कुल भिन्न है। ट्रांसपोर्ट की मदद से रोजमर्रा की जिंदगी को आसान बनाया जाता है। अचानक लॉकडाउन से ट्रांसपोर्ट से होने वाली सप्लाई ब्रेक हो गयी। इससे पहाड़ी जीवन मैदानी इलाकों की अपेक्षा अधिक कठिन हो गया। लोग बताते हैं कि धीरे-धीरे स्थिति पटरी पर आ रही है। बाज़ारों में जरूरत का समान पहुंचने लगा है। लेकिन लॉकडाउन से गरीब, किसान और प्रवासी मजदूर की समस्याएं और गहराती चली जा रही हैं। पौढ़ी, गढ़वाल जिले के कॉपरेटिव बैंक डायरेक्टर नरेंद्र नेगी भूखे लोगों तक मदद और लोगों के बीच कोरोना महामारी सम्बंधी जागरूकता फैलाने का काम व्यक्तिगत स्तर पर कर रहे हैं। नरेंद्र नेगी बताते हैं कि मैं व्यक्तिगत स्तर पर आस-पास के लोगों तक सेनिटाइजर, साबुन, मास्क और भूखे लोगों तक खाना राशन पहुंचा रहा हूँ लेकिन बहुत दिन तक मैं यह काम इसी तरह से नहीं करता रह पाऊंगा। लेकिन सबसे बड़ी समस्या है जो स्थानीय प्रशासन से कार्ड धारकों को जो राशन मिल रहा है वह अपर्याप्त है, उतने राशन से एक परिवार महीने भर अपना पेट नहीं भर सकता है।

हमने नरेंद्र नेगी से सवाल किया कि आप क्या सोचकर इस तरह से मदद के लिए सामने आये? इस सवाल पर नेगी कहते हैं कि हमारे पिता जी एक किसान थे हमारे परिवार के लिए पर्याप्त भोजन नहीं हो पाता था। एक रोटी या दो रोटी बनती थी उसमें हम भाई बहन खाते थे। हमारी माँ भूखी रह जाती थी। हम उस स्थिति से निकल चुके हैं लेकिन हम जानते हैं भूख की पीड़ा क्या होती है। इसलिए हम लोगों की भूख मिटाने के लिए यह काम कर रहे हैं।

उत्तराखंड के पौढ़ी, गढ़वाल के कोटद्वार, गुमखाल, सतपुल, चौबट्टाखाल जैसे क्षेत्रों में मदद कर रहे एक दूसरे समूह के सामाजिक कार्यकर्ता कवींद्र इस्टवाल से हमने बात की। कवींद्र पौढ़ी गढ़वाल के कुछ क्षेत्रों में व्यक्तिगत स्तर पर पिछले दस दिनों से लोगों तक मदद पहुँचा रहे हैं। लेकिन लम्बे समय तक मदद कर पाएंगे इसे लेकर आशंकित हैं। सिलाई में प्रशिक्षित गांव की महिलाओं से बड़े स्तर पर मास्क बनवा रहे हैं। इस मास्क को स्थानीय लोगों और अस्पतालों में डॉक्टरों तक पहुंचा रहे हैं। कवींद्र कहते हैं हम उत्तर-प्रदेश, बिहार, नेपाल के मजदूरों और स्थानीय मजदूरों के बीच खाद्य सामग्री पहुँचा रहा हूँ। हजारों की संख्या में सेनिटाइजर और मास्क बांट चुका हूँ। लेकिन हम यह मदद कुछ दिन ही कर सकते हैं। जो जरूरतमंद हैं उनकी सूचना हम स्थानीय प्रशासन तक पहुँचा रहे हैं।

बिहार

बिहार के ग्रामीण हिस्सों में मेडिकल सुविधाएं लगभग नदारद है। बिहार में लगभग दस करोड़ जनसंख्या के बीच सौ से भी कम वैंटिलेटर की व्यवस्था है। हालांकि अभी बिहार में कोरोना संक्रमण की गति अन्य राज्यों की अपेक्षा कम ही है। बिहार में भी विभिन्न समूह, लोग और  राजनीतिक दल मदद के लिए निकलकर आये हैं। बिहार के बेगूसराय से सामाजिक कार्यकर्ता जहाँगीर एक मिसाल पेश कर रहे हैं। जहाँगीर के घर में शादी थी। शादी के पैसे घर में रखे थे जहाँगीर उस पैसे से लोगों तक खाद्य सामग्री पहुंचाने में लगे हैं। जहाँगीर बताते हैं कि इतने लम्बे समय के लिए लॉकडाउन हुआ तो मैं समझ गया इससे दिहाड़ी मजदूरों और उन गरीब लोगों को जो रोज कमाते हैं फिर खाते हैं उन्हें बहुत समस्या होने वाली है। मेरे घर में शादी थी, लॉकडाउन की वजह से शादी कैंसिल हो गयी। शादी के लिए रखे पैसे से 24 मार्च से 3 अप्रैल के बीच तीन हजार परिवारों तक राशन पहुंचाने का काम किया।

पश्चिम बंगाल

पश्चिम बंगाल में मददगार कुछ समूहों से हमने बात की। लोग व्यक्तिगत स्तर पर लॉकडाउन के बाद से ही गरीब, मजदूर और प्रवासी मजदूरों  तक खाद्य सामग्री पहुँचाने का काम कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल में कई लोगों से बात करने पर पता चला कि लोग राज्य सरकार के काम से संतुष्ट हैं। जबकि केंद्र सरकार के काम से असंतुष्ट नजर आये। हमने पश्चिम बंगाल के आसनसोल से सामाजिक कार्यकर्ता तशहीर उल इस्लाम से बात किया। तशहीर काज़ी नज़रुल पार्क में  चल रहे सीएए आंदोलन की मुख्य भूमिका में भी रहे हैं। तशहीर बताते हैं लोगों तक मदद पहुंचाने में लगभग डेढ़ सौ लोग हैं ये सभी सीएए और एनआरसी का विरोध करने वाले लोग हैं। हम लोगों ने खाने के पांच सौ पैकेट से मदद का काम शुरू किया था देखते-देखते कब बाइस सौ पैकेट तक पहुँच गया पता ही नहीं चला। 

तशहीर बताते हैं कि खाना पहुंचाने के दौरान हमने देखा कि लॉकडाउन से सिर्फ गरीब और मजदूर परेशान नहीं हैं इसमें मिडिल क्लास परिवार भी घर में राशन न होने की समस्या से जूझ रहा है। इसके लिए हम लोगों ने एक टीम बनाई जिसने घूम-घूम कर आसपास के मुहल्ले में यह पता लगाया कि किसके घर में खाने की दिक्कत है और वह मांग भी नहीं रहा है। फिर हमारे सामने एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की आई। अंततः हम उन घरों तक भी पहुंचे।

इतने लोग मदद के लिए सामने आए और दिन रात मेहनत कर रहे हैं इसके पीछे तशहीर मुख्य कारण नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ आंदोलन को मानते हैं। तशहीर कहते हैं कि इसमें से कोई सामाजिक कार्यकर्ता नहीं था। सीएए के मूवमेंट में लोगों को संविधान के बारे में इतना ज्ञान दिया गया, इतना समझाया गया कि इन सभी के भीतर इंसानियत का स्तर काफी ऊँचा हो गया है। इस आंदोलन में हर धर्म को सम्मान देना सिखाया गया, हर धर्म को एक जैसा बताया गया। इस वजह से लोगों में इंसानियत और ज्यादा जाग गई।

आसनसोल के ही पेशे से एक वकील प्रमोद सिंह से बात हुई। प्रमोद सिंह अपने मित्रों के साथ आसनसोल में लॉकडाउन के बाद से ही प्रशासन के साथ मिलकर मदद में लगे हैं। गरीबों, कामगारों तक हर सम्भव मदद पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। वे बताते हैं कि लॉकडाउन की रात आसनसोल में लगभग 45 मुसाफिर फंस गए। उन्हें प्रशासन की मदद से काली पहाड़ी धर्म चक्र सेवासमिति, घाघरबुड़ी मंदिर में उन मुसाफिरों को ठहराया गया है। प्रमोद सिंह आगे कहते हैं कि स्टेट गवर्नमेंट यानी ममता बनर्जी जमीन पर काम कर रही हैं। लेकिन सेंट्रल गवर्नमेंट को जिस तरह काम करना चाहिए उस तरह नहीं कर रही है।

महाराष्ट्र

महाराष्ट्र में अन्य राज्यों की अपेक्षा कोरोना का संक्रमण तीव्र गति से हुआ है। रिपोर्ट लिखे जाने तक 1426 लोग संक्रमित हो चुके हैं और 127 लोगों की जान जा चुकी है। हमने महाराष्ट्र में मदद कर रहे कुछ लोगों से सम्पर्क किया। इसमें कुछ एनजीओ भी शामिल थे। महाराष्ट्र के वर्धा में हमने अमीर अली अजानी से बात की। जमात-ए इस्लाम हिन्द की तरफ से वर्धा क्षेत्र में लोगों तक मदद पहुंचाई जा रही है। अमीर अजानी बताते हैं कि बहुत सारे लोग मदद कर रहे हैं। इसमें बहुत सारे संगठन और एनजीओ लगे हैं। वर्धा क्षेत्र में अभी तक हम लोग लगभग एक हजार परिवारों तक मदद पहुंचा चुके हैं। वर्धा के बुरड में जो आदिवासियों की बस्ती है वहां की स्थिति बहुत दयनीय है तो हम वहां राशन का पैकेट बनाकर पहुंचा रहे हैं।

जमात-ए इस्लामी हिन्द से जुड़े नियाज अली बताते हैं हम प्रशासन के साथ मिलकर लोकल एरिया तक मदद पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। 31 मार्च तक पूरे महाराष्ट्र में हम एक करोड़ चौंतीस लाख रूपये तक की मदद कर चुके हैं। हम अवेयरनेस फैलाने के लिए मस्जिद के मौलाना की गाड़ी से मुहल्लों-मुहल्लों में भेज रहे हैं और लोगों तक सूचना पहुँचा रहे हैं।

हमने महाराष्ट्र के जलगांव में अभेद्य फाउंडेशन से जुड़ी वैशाली सिंधु (24) से बात की। वैशाली बीस साल की उम्र से ही जलगांव में बच्चों को स्कूल तक पहुंचाने की लड़ाई लड़ रही हैं। जलगांव में लोग वैशाली को विद्रोही लड़की के नाम से जानते हैं। लॉकडाउन में वैशाली भूखों तक खाना पहुंचाने का काम कर रही हैं। वैशाली बताती हैं कि मैं 23 मार्च की रात में ही काफी राशन इकट्ठा कर ली थी। रातभर उसकी पैकिंग की। मैंने उन चालीस घरों को चिह्नित किया जो कचरा बीनने का काम करते हैं। उन तक राशन पहुंचाया। 

छत्तीसगढ़

इसी कड़ी में हमने छत्तीसगढ़ राज्य के आदिवासी क्षेत्रों में मदद पहुंचाने वाले लोगों से सम्पर्क किया। छत्तीसगढ़ राज्य में कोरोना संक्रमण के मामले न्यूनतम हैं। अभी संख्या सैकड़े में नहीं पहुंची है। इस सम्बंध में बस्तर के पत्रकार विकास तिवारी (रानू तिवारी) बताते हैं कि जब कोरोना संक्रमण का मामला सामने आया तो मैं बेहद चिंतित था कि आदिवासी इलाकों में लॉकडाउन कैसे सफल होगा? आदिवासियों तक इस महामारी की जानकारी कैसे पहुंचेगी? लेकिन लॉकडाउन के पांचवे दिन तक बस्तर के लगभग 120 गांव सील कर दिए गए। गांव के दो-दो, चार-चार लोग गांव के बाहर पहरा दे रहे हैं कि कोई गांव का आदमी बाहर न जाये और कोई बाहर से गांव में न आये। इसके पीछे का मुख्य कारण रानू तिवारी पहले फैली महामारियों के कहानी किस्सों को मानते हैं। इसीलिए आप एक भी वीडियो या ख़बर नहीं पाएंगे कि पुलिस आदिवासियों पर लाठी भांज रही हो।

छत्तीसगढ़ के जगदलपुर क्षेत्र में मदद पहुंचा रहे मिथिला समाज के सम्पत झा से हमने सम्पर्क किया। सम्पत झा बताते हैं कि यहां सभी समाज के लोग मदद कर रहे हैं। हम भी मदद कर रहे हैं। लेकिन हम खुद गांव-गांव तक नहीं जा रहे हैं। हम राशन का पैकेट जिसमें आटा, चावल, तेल, नमक, हरी सब्जी, एक साबुन होता है, पुलिस प्रशासन को दे देते हैं। पुलिस प्रशासन गांव-मुहल्लों में जा-जा कर जरूरतमंद आदिवासी परिवारों तक पहुँचा देती है। इससे एक लाभ यह होगा कि आदिवासी लोगों का विश्वास पुलिस प्रशासन में बढ़ेगा। वे मुख्यधारा से जुड़ेंगे।

इसी तरह भारत के सभी राज्यों में लोग एक दूसरे की मदद करने के लिए सामने आए हैं। यदि इतने बड़े स्तर पर समाज स्वयं अपने लोगों के साथ न खड़ा होता तो कोरोना महामारी से अधिक मृत्यु भूख से होनी निश्चित थी। फिर भी क्या कोरोना संकट और दुनिया के कई देशों में तालाबंदी और वैश्विक मंदी के संकट ने हमें हमारे विकास के मॉडल पर फिर से सोचने के लिए नहीं मजबूर किया है? क्या हमने पिछले सौ सालों में हुए विकास की सस्टेनेबिलिटी को तय किया है? क्या हमने कभी सोचा है कि इन वर्षों में हमने पर्यावरण को कितनी व्यापक क्षति पहुंचाई है? जिस गंगा और यमुना को सरकारों की वर्षों से चल रही हजारों करोड़ की योजनायें नहीं साफ़ कर पाई वे इन्हीं तालाबंदी के दिनों में काफी हद तक स्वच्छ हो गई, ऐसा कैसे हो पाया? कोरोना संकट ने हमें मौजूदा मानव सभ्यता के बुनियादी आधार ‘उपभोक्तावाद’ का विकल्प तलाशने पर मजबूर कर दिया है।

गौरव गुलमोहर- (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।) सौ. न्यूज क्लिक

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