व्यंग्यः तरह तरह के गुरु – प्रभाकर चौबे

चेला के साथ चांटी लगे रहते हैं, इसलिए कहा जाता है – गुरु के चेला चांटी बहुत हैं। चेला का मतलब तो समझ मे आया। चांटी का क्या अर्थ। खींच-कींचकर अर्थ निकाला छत्तीसगढ़ी मे चींटी के चांटी कहते हैं। तो चेला का मतलब प्रमुख चेला और उसके साथ-साथ जो छोटे-छोटे लोग आएं, वे चांटी, इसका मतलब यह भी हुआ कि चेला कभी अकेला नहीं होता, चांटी के साथ होता है।

होना जरूरी है क्योंकि अकेला चेला अपने गुरु की कितनी सेवा करे, थक जाएगा, मुख्य सेवा चेला करता है, बाकी सहायक कार्य चांटी करते है। जैसे धोना है। चेला चरण धोए तो चांटी गमछा लेकर बाजू में खड़ा रहे। चेला कहे- ला गमछा गुरु के चरण पोछना है। गुरु स्नान करे तो चांटी पानी की व्यवस्था करें। चेला यह काम नहीं करेगा।

चेला का ओहदा चांटी से ऊपर है। जैसे मुख्तियार के नीचे कमइया। चेला अपने गुरु के लिए भोजन की सामग्री दे और चांटी भोजन बनाएं। गुरु लेंटे तो चांटी पैर चापन करें। चांटी धुनी बनाए। चिलम भरे। गुरु चेला चिलम का सोंटा मारें। गुरु प्रवचन दे तब चांटी पंखा झले और चेला हाथ जोड़े ज्ञान की बातें सुनें। जिस चेले के पास जितने यादा चांटी, गुरु की नजरों में उस चेला की उतनी इज्जत बढ़ जाती है। गुरु कहें – इस चेला का बड़ा प्रताप है। बड़ा प्रभाव है। इसके बीस चांटी है। गुरु उस चेला के पास सुख पाता है, उसके पास जाने को प्राथमिकता देता है जिसके चांटी यादा होते हैं। गुरु कहे – भक्त जयवर्धनकी कोठी में चलें, दो माह वहां रमन करेंगे। जयवर्धन के पास बीस चांटी हैं। हर्षवर्धन के घर नहीं जाना। उसके पास केवल पांच चांटी है। लेकिन एक बात तय है कि बिना चांटी के चेला का कोई अस्तित्व नहीं। चेला बनते ही चांटी  तलाशना पड़ता है। गुरु की नजरों में चढ़ना है तो चांटी चाहिए।

गुरु और चेला चांटी का रिवाज आज तक चल रहा है। पहले कान फुंकाएं और चेला बन जाते । कान फूंकने वाला गुरु बन जाता। आज गुरु- चेला बनना जरा टेढ़ा काम हो गया। विश्वविद्यालयों के गुरु अब चेला बनाने लगे हैं। अब जो कुछ दे सकता है, वह गुरु। उसी को गुरु बनाना है। रही ज्ञान की बात तो ज्ञान तो बातें पुस्तकों में भरा पड़ा है। ज्ञान के लिए गुरु की क्या जरूरत। आज तो नेट में सब है। बटन क्लिक करो, नेट गुरु से जो जानकारी चाहो वह प्राप्त करो।

विश्वविद्यालयों में गुरु सच्चा चेला तलाशता है। क्योंकि वह अनुभवी होता है ।इसलिए एक – दो भेंट में सच्चा चेला पकड़ा लेता है। सच्चा गुरु वह जो मैरिट में स्थान दिलाए। उसके बाद फेलोशिप दिलवाए। पीएचडी करो और कहीं अपाइंट करा दे। सच्चा चेला सच्चा गुरु की तलाश में भिड़ते ही पता लगाने लगता है। कि किस गुरु की पहुंच कितनी कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में है। जिसकी पैठ जितने यादा विश्वविद्यालयों में वह उतना सच्चा गुरु । अरे। फलां की पैठ बीस विद्यापीठो में है, पकड़ ले चरण। फुंकवा ले कान और डाल ले कंठी- ऐसी सलाह पूर्व चेला दे सकता है। 

”ऐसा, उसकी पैठ बीस विश्वविद्यालयों में है …”

”हां। लेकिन उसे तगड़ा चेला चाहिए। ऐसा चेला चाहिए जिसके चांटी भी अच्छे खासे हों।”

एक बार गुरु मिल गया, गुरु को चेला मिल गया उसके बाद ताजनम गुरु की चिंता मिटी । जिस शहर में जा रहे है वह चेले है। बढ़िया होटल में रूकवा रहे हैं। बढ़िया खान पान की व्यवस्था कर रहे हैं। गुरु घर से एक पैसा लेकर नहीं निकलते। पूरा देश घूम आते हैं। न टिकट की चिंता, न खाने -पीने की, न टैक्सी भाड़े की, न कुली को पैसे देने की चिंता । चेला कर रहा है। चेला के साथ चांटी भी लगे हैं। गुरु प्रसन्न होकर गए।

 ”महागुरु कहीं फिट करा देंगे, लगे रहे।”

 ”सेवा में कमी न आए”

 ”नहीं ला रहा कमी। अभी अपने शहर बुलाया था। एक गोष्ठी में प्रधान वक्ता बनाया। दस मिनट बोले। मैंने समाचार पत्रों में ऐसी विज्ञप्ति दी तीन कॉलम में भाषण छपा। खातिरदारी में कमी नहीं की। विदेशी पिलाते रहा और जाते समय पांच हजार का लिफाफा भी थमाया ।”

विश्वविद्यालयों में समीक्षक गुरु मिलते हैं, इसलिए लेखक चेलों की सेवा पाते हैं। कुछ संपादक भी गुरु का दर्जा प्राप्त कर लेते हैं। हर शहर में ऐसे गुरु के चेले होते हैं और चांटी के साथ सेवा धर्म निभाते हैं। चेला अपने चांटी से कहे-  ”कल वह संपादक पधार रहे हैं चलना। सेवा करें तो कुछ फल मिलेगा। ” ऐसा गुरु खाने-पीने, घूमने के साथ विज्ञापन पा जाएं तो परम सुख देते हैं- अगले अंक में रचना छप गई।

 ”कुछ संपादक गुरु झटके दे जाते हैं।”

 ”यह आदिकाल से चला आ रहा है।”

 ”कबीर ने ऐसों के लिए पहले ही कह रखा है- जैसा गुरु, वैसा चेला, नरक मे हो गया ठेलम-ठेला।”

ऐसा नहीं कि विश्वविद्यालयों में और संपादकों में ही गुरु हो। और भी जगह गुरु हैं। किताब छपवां दें और गुरु बन जाएं। सीएम से मिलवा देने वाले गुरु। गवर्नर से भेंट करवा देने वाले गुरु। लेकिन ये चेला नहीं बनाते। राजनीति में जिस तरह पट्ठा तैयार किया जाएं। उसी तरह ऐसे लोग पठ्ठा तैयार करते हैं-  ”आओ, मंत्री जी से मिलवा दें।” मिला दिया और  पठ्ठा बना लिया। राजनीति भी एक अखाड़ा है, इसलिए राजनीति में अखाड़ों की तरह पठ्टे तैयार होते हैं। बाद में कुछ पठ्ठे अपने गुरु को ही पटकनी देते दिख हैं। मंत्री से मिलवा देने वाला बाद में अपने पठ्ठे से पिछड़ जाता है। उसके मार्फत मंत्री से मिला अबप सीधे सीएम का खास बन बैठा। उसका गुरु, जिसने मंत्री से मिलवाया था, नये पठ्ठे की तलाश में है गुरु- चेला, चेला चांटी गुरु- पठ्ठा यह आदिकाल से चल आ रहा है। रूप- रंग में जरूर अंतर आ गया है। कुछ अतिरिक्त पा जाने का मोह कान फूंकवा कर चेला बनने विवश कर देता है। ऐसे ही चेले आगे गुरुपद प्राप्त कर चेला चांटी बनते हैं- यह क्रम चल रहा है।

प्रभाकर चौबे प्रसिद्ध व्यंग्यकार , साहित्यकार एवं संपादक रहे हैं। उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। यह पूर्व प्रकाशित व्यंग्य है।

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