अफसर, इंजीनियर या शिक्षक नहीं, सिर्फ गरीब दलितों के घर खाना खाते हैं नेता

बेनसन नीतिपुडी

उग्र जातिवादियों के लिए ये तस्वीरें जाति की सर्वोच्चता के संकेत, तो उदार जातिवादियों को यह रक्षक होने एहसास देती हैं, जो उनमें नैतिक बड़प्पन का भाव जगाता है.दलित जुड़ाव सिर्फ एकतरफा नहीं होना चाहिए. राज्य विश्वविद्यालयों में दलित छात्रों से बात कीजिए कि कैसे सरकार उनके अकादमिक करिअर में मदद कर सकती है; दलित लड़कियों और महिलाओं से बात कीजिए कि कैसे जीवन में हर मोड़ पर उनके सामने खतरे और चुनौतियां होती हैं; दलित किसानों से वादा किए गए जमीन के पट्टों के बारे में बात कीजिए; सरकारी और निजी क्षेत्र में दलित पेशेवरों से उनके मौकों के बारे में बात कीजिए. दलित समुदाय को बराबरी के आधार पर जोड़िए सिर्फ फोटो खिंचवाने के लिए नहीं.

इस 26 जनवरी 2022 को भारत का 73वां गणतंत्र दिवस है. भारत के संविधान को लागू हुए और सभी नागरिकों के लिए न्याय, आजादी, समानता और भाईचारे का महौल दिलाने के वादे को 73 साल हो जाएंगे. गणतंत्र दिवस की धूमधाम की गर्दो-गुबार के बैठने के दो हफ्ते बाद पांच राज्यों के वोटर तय करेंगे कि संविधान के वादे को पूरा करने में उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों ने कैसा कामकाज किया. लगभग सभी पार्टियों के नेता अपने चुनावी अभियान के तहत दलितों से मेल-जोल के कार्यक्रम पहले ही शुरू कर चुके हैं. इसका एक आम नजारा किसी दलित के घर फर्श पर बैठकर भोजन करते फोटो खिंचवाने का है. हम उस दलित परिवार के ब्यौरे-उनका नाम, पेशा, आकांक्षाएं या सरकार से उनकी उम्मीदों वगैरह के बारे में कभी नहीं जान पाते. न ही हम यह जान पाते हैं कि किसने खाना बनाया, खाना खाते वक्त क्या बातचीत हुई (अगर हुई हो तो) या इससे क्या उनकी जिंदगी में कुछ बदला. हम बस यही जान पाते हैं कि नेता जी दलित भाई/बहन/बेटी के घर पहुंचे.

यह संभावना काफी है कि नेताओं के करीबी दायरे में दलित समुदाय के कई प्रोफेशनल हों. देशभर में ज्यादातर राज्य सरकारों में दलित अफसर, इंजीनियर, डॉक्टर, शिक्षक, पुलिस वाले, स्वास्थ्यकर्मी और राज्य के दूसरे विभागों के कर्मचारी होते हैं. अगर ग्रामीण दलित वोट हासिल करने का लक्ष्य है तो दलित सरपंच और जमीनी स्तर के नेता होते हैं, जो सुमदाय के सरोकारों को ढंग से बता सकते हैं. फिर भी फोटो खिंचवाने की बारी आती है तो हमारे नेता और उनकी मीडिया टीमें सबसे कमजोर और वंचित दलित परिवारों में पहुंचते हैं और उनके परिवार पर एहसान का वह बोझ लाद देते हैं, जिसे उन्होंने कभी मांगा ही नहीं होता है. कैसे इस झूठी उदारता, कमजोरी और अपमान की छवि को दलित वोटर स्वीकार कर पाते हैं?

हकीकत की तस्वीर

‘दलितों’ की छवि का ऑनलाइन सर्च दिल दहलाने वाली तस्वीरें सामने ला देती है. असहायता, अपमान और अछूत होने की छवियां; क्षत-विक्षत, उत्पीड़न की शिकार और अपमानित शवों की छवियां; मानव जीवन से गरिमा छीन लेने और जाति व्यवस्था को जबरन सर्वोच्च ठहराने की छवियां ही देखने को मिलेंगी. दलित जुड़ाव के नाम पर हमारे चालबाज नेताओं की तस्वीर खिंचाना भी इसी दायरे में आता है.

आज के दौर और दिन भी ऊंची जातियों में ढेरों लोग दलितों को समान मनुष्य नहीं मानते. उनके संकुचित नजरिए में दलित उनके सामने टेबल पर नहीं बैठ सकते, सम्मानित तरीके से खाना नहीं खा सकते या रोजाना की बातचीत में उनसे बराबरी की बात नहीं कर सकते. ऊंची जातियों का नजरिया उम्मीद करता है कि दलित जमीन पर बैठें, वे आएं तो खड़े हो जाएं, जब पूछा जाए तभी बोलें, जो कहा जाए वही करें, और जो दिया जाए वह चुपचाप ले लें. इसी वजह से जब भी दलित आकांक्षित समाज व्यवस्था को चुनौती देने की जुर्रत करते हैं, ऊंची जातियां अपने नियम-कायदों को लागू करने के लिए हिंसा पर उतर आती हैं.

इन सामाजिक सच्चाइयों के मद्देनजर, ऊंची जाति के उदार नेताओं की किसी कमजोर दलित परिवार के घर खाना खाने की तस्वीरें इरादतन लगती हैं. वह तस्वीर सत्ता और ताकत का इजहार करती हैं, जो ऊंची जातियों की विशाल बहुसंख्या को स्वीकार्य हैं. ये लोग अपनी ऊंची जाति की पूंजी पर ही जिंदगी जीते हैं.

किसी ऊंची जाति के आदमी की दलित आदमी से मेल-जोल की फोटो जाति विशेषधिकार को खतरे में डालती, वह जाति व्यवस्था को नीचा नहीं दिखाती, इससे जाति नहीं टूटती. उग्र जातिवादियों के लिए ये तस्वीरें जाति की सर्वोच्चता कायम रहने का संकेत हैं और उदार जातिवादियों को ये रक्षक होने का एहसास दिलाती हैं, जिससे उनकी नैतिक सर्वोच्चता कायम रहती है. दलितों के लिए, इसका इरादा यह याद दिलाने का होता है कि जाति में बंटे समाज में उनकी जगह क्या है, यानी वे सामाजिक पिरामिड के सबसे नीचे हैं, ऊंची जातियों की सेवा के लिए हैं और उनका वजूद ऊंची जातियों के एहसान पर आधारित है.

असली जुड़ाव क्या होगा

बाबा साहेब आम्बेडकर की सबसे प्रसिद्ध छवि नीले रंग के पहनावे में एक हाथ में भारतीय संविधान और दूसरे हाथ को आगे उठाए हुए है. उनकी यही छवि अनगिनत मूर्तियों में दोहराई गई है, जो देशभर में, संसद से सड़कों तक की शोभा बढ़ाती है. आज, दलित फिल्मकार, कलाकार, लेखक और एक्टिविस्ट हैं, जो ऐसी छवि बनाते हैं कि दलित अब असहाय नहीं, बल्कि ऊपर उठता समुदाय है. देश के कई हिस्सों में खास तरह से कपड़े पहनने से भी दलितों की हत्या हो सकती है, ऐसे में दलित नौजवान अपने हक-हुकूक को हासिल करने का जज्बा दिखा रहे हैं.

तो, फिर हमारे नेता क्यों दलित जुड़ाव के नाम पर वही अभिनय करते हैं? हर चुनाव के दौर में एक जैसी ही तस्वीरों की कल्पना, प्रचार और बार-बार दोहराया क्यों जाता है? कहने का मतलब यह नहीं है कि गरीब और वंचितों को हाई प्रोफाइल तस्वीरों में आने का हक नहीं है, लेकिन उनके साथ उस गरिमा से तो जुड़िए, जिसके वे हकदार हैं.

दलित जुड़ाव सिर्फ एकतरफा नहीं होना चाहिए. राज्य विश्वविद्यालयों में दलित छात्रों से बात कीजिए कि कैसे सरकार उनके अकादमिक करिअर में मदद कर सकती है; दलित लड़कियों और महिलाओं से बात कीजिए कि कैसे जीवन में हर मोड़ पर उनके सामने खतरे और चुनौतियां होती हैं; दलित किसानों से वादा किए गए जमीन के पट्टों के बारे में बात कीजिए; सरकारी और निजी क्षेत्र में दलित पेशेवरों से उनके मौकों के बारे में बात कीजिए. दलित समुदाय को बराबरी के आधार पर जोड़िए सिर्फ फोटो खिंचवाने के लिए नहीं.

(बेनसन नीतिपुडी सार्वजनिक क्षेत्र के कंसलटेंट हैं. उन्होंने हाल में ही कोलंबिया यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल ऐंड पब्लिक अफेयर्स से ग्रेजुएशन किया है. उनका ट्विटर हैंडल है @bNeethipudi. इस लेख में लेखक की राय निजी है और उनके नियोक्ताओं की राय या नजरिए से इसका कुछ लेना-देना नहीं है.) सौज- दप्रिंट

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