
यह कोई महान फिल्म नहीं है, लेकिन बेहद ज़रूरी फिल्म है। ‘छावां’ जैसी सांप्रदायिक दुष्प्रचार में मददगार और ‘सिकंदर’ जैसी खोखली फिल्मों के दौर में यह फिल्म बहुत सहजता से इस देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब की याद दिलाती है जिसमें हर त्योहार मिलजुल कर मनाने का रिवाज रहा है।
बदनसीबी से यह वह कथ्य है जिसको हाल के दिनों में पूरी ताकत से झुठलाने और बदलने की कोशिश चल रही है।
ऐसा कम होता है कि जो काम सब
कर रहे हों उसमें शामिल होने की इच्छा होती हो। लेकिन ‘इन्हीं गलियों में’ को पहले न देख पाना जैसे कोई अपराध-बोध जगा रहा था। शायद इसलिए कि यह फिल्म छोटे भाई जैसे अविनाश ने बनाई है और यश मालवीय परिवार का इससे वास्ता है जिनके साथ आत्मीय संवाद और संबंध रहा है।
तो जैसे फिल्म दुबारा आई, मैंने देख ली और देखकर तृप्त हुआ- आंखें जुड़ा गईं। नहीं, यह कोई महान फिल्म नहीं है, लेकिन बेहद ज़रूरी फिल्म है। ‘छावां’ जैसी सांप्रदायिक दुष्प्रचार में मददगार और ‘सिकंदर’ जैसी खोखली फिल्मों के दौर में यह फिल्म बहुत सहजता से इस देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब की याद दिलाती है जिसमें हर त्योहार मिलजुल कर मनाने का रिवाज रहा है।
बदनसीबी से यह वह कथ्य है जिसको हाल के दिनों में पूरी ताकत से झुठलाने और बदलने की कोशिश चल रही है। इसके लिए पाठ्य पुस्तकें बदली जा रही हैं, विश्वविद्यालयों में शिक्षक बदले जा रहे हैं, मीडिया का चरित्र बदला जा रहा है, राजनीतिक विमर्श बदला जा रहा है, और सामाजिक ताना-बाना बदला जा रहा है। इस घनघोर बर्बर, सांप्रदायिक रूप से बदरंग और खौलते हुए समय पर यह फिल्म ठंडे पानी के छींटे नहीं, बल्कि गुलाब जल छिड़कती है, रंग और अबीर फेंकती है, शेरों-शायरी और संवाद के ज़रिए अल्फ़ाज़ का जादू डालती है और दो गलियों में बसे मामूली लोगों की मार्फ़त आपसी मोहब्बत और भाईचारे का ऐसा समानांतर संसार बना डालती है जिसमें हम सब बसना चाहते हैं। यह कोई यथार्थवादी फिल्म भले न हो, लेकिन इसकी कल्पना में वह जादुई यथार्थ है जो हज़ार बरस से इस देश की मिट्टी को अलग रंगत दे रहा है।
बेशक इस फिल्म से कई लोग नाराज़ या शर्मिंदा होंगे – कुछ को अपने लगाए नारे याद आएंगे और कुछ को यह लज्जा घेरेगी कि इन नारों के पीछे वे भी चलते रहे हैं। इस लिहाज से यह शुद्ध राजनीतिक फिल्म है जो सांप्रदायिकता के मंसूबों को तार-तार करती है। फिल्म का एक पात्र कहता है -‘भारत की राजधानी दिल्ली है और दिल्ली की राजधानी’…तब तक सेंसर की कैंची चल जाती है और ‘नागपुर’ सुनाई पड़ने से रोक दिया जाता है। भारत को खोजता हुआ यह दीवाना फिल्म के अंत में खो गया है।
फिल्म की जान उसके गीत-संगीत और संवाद में भी है। गीतों के बोल सुनते हुए मुझे यश मालवीय याद आते रहे- बेशक इस जानकारी की वजह से कि फिल्म उनके भाई दिवंगत वसु मालवीय के बेटे पुनर्वसु ने बनाई है और अपने पिता की कहानियों पर बनाई है, लेकिन इस वजह से भी कि इन गीतों में यश मालवीय के सधाव की छाप दिखती रही। इन दिनों ऐसा कम होता है कि संगीत गीत के बोलों से न्याय करे, लेकिन इस फिल्म में वह गीतों में जैसे नई जान डाल देता है। पुनर्वसु इस पूरे संयोजन के लिए बधाई के पात्र हैं।
और अविनाश- अब उसका हैरत में डालना हमें हैरत में नहीं डालता। बहुत किशोर उम्र से उसके पास पानी जैसी बहती भाषा रही है। उसने जोखिम उठाए हैं, संघर्ष किया है और मनचाहा काम करने का आनंद ले रहा है। ‘अनारकली आरा वाली’ से मिली कीर्ति के बाद उसने एक और बढ़िया फिल्म बनाई थी- ‘रात बाक़ी’- इत्तिफाक से जिसकी चर्चा कम हुई। फिर ‘शी’ जैसी वेब सीरीज़ आई। और अब ‘इन्हीं गलियों में’ उसकी नई उपलब्धि है। इस पूरी फिल्म और इसके अनुभव के लिए अविनाश, पुनर्वसु, यश मालवीय सहित सभी कलाकारों और सहयोगियों को बधाई!
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