किस्सागो के संस्मरण -पल्लव

वे बोले, ”ठीक है। केवल इस बात का ध्‍यान रखना कि जो कुछ भी लिखो, वह अधिकतर तुम्‍हारे अपने ही अनुभवों के आधार पर हो। व्यर्थ की कल्‍पना के चक्कर में कभी न पड़ना।”  (शरत के साथ बिताया कुछ समय – अमृतलाल नागर ) 

एक समय था जब अमृतलाल नागर को हिंदी कथा लेखन का आखिरी मुग़ल कहा गया था और मान लिया गया था कि अब उनके सरीखे लेखन का युग बीत गया। बूँद और समुद्र की विशालता के आधार पर भी यह निष्कर्ष तुरंता साबित हुआ। देखने की बात यह है कि अमृतलाल नागर जितने बड़े किस्सागो थे क्या उतने ही बड़े लेखक वे अनौपचारिक विधाओं में भी हैं? मसलन संस्मरण। उनके लिखे संस्मरणों की एक किताब छपी थी – ‘जिनके साथ जिया’ जो स्वतंत्र पुस्तक के अतिरिक्त अमृतलाल नागर रचनावली के खंड बारह में  भी संकलित है। नागर जी के संस्मरण स्वतंत्रता संघर्ष कालीन साहित्यिक संसार के छाया चित्र हैं तो स्वतंत्रता के बाद बन रहे नए भारत की छवियाँ भी इनमें आई हैं। उस जमाने के प्रसिद्ध लेखकों के साथ अनेक भूले बिसरे लोगों को नागर जी अपने संस्मरणों में याद करते हैं। उनका इरादा होता है कि संस्मृत का शालीन और जीवंत चित्र खींच दिया जाए। इसके लिए वे कुछ घटनाओं का उल्लेख करते हैं तो संस्मृत के बहाने अनेक अन्य लोग भी उनके संस्मरणों में चले आते हैं। वहीं इस प्रक्रिया में लेखक का अपना आत्मचित्र भी निर्मित होता जाता है जिसे देखना कम रोचक नहीं। 

संस्मरणों की शुरुआत महाकवि जयशंकर प्रसाद से हुई है। नागर जी उनसे हुई मुलाकातों का उल्लेख करते हैं और जहाँ आकर उनकी लेखनी अपना रंग दिखाती है, वह अंश द्रष्टव्य है – ‘प्रसाद जी की कविता चोरी-छिपे शुरू हुई। उन दिनों बड़े घर के लड़कों का कविता आदि करना बड़ा खराब माना जाता था। लोगों का ख्याल था कि इससे लोग बरबाद हो जाते हैं और वाकई बरबाद ही हो जाते थे। रीतिकाल अवसान के समय ब्रजभाषा के अधिकांश कवियों के पास काव्‍य के नाम पर कामिनियों के कुचों और कटाक्षों के अलावा और बच ही क्‍या रहा था। ऐसे कवियों में जो गरीब होते थे, वे मौके-झप्‍पे से अपनी नायिकाओं को हथियाने की कोशिश करते थे और अमीर हुए तो फिर पूछना क्‍या! रुपयों के रथ पर चढ़कर नायिकाएँ क्‍या, उनके माँ-बाप, हवाली-मवाली तक सब कविजी के दरबार में जुट जाते थे। इसलिए बड़े भाई शंभूरत्‍नजी ने इन्‍हें कविता करने से बरजा, परंतु प्रसाद की काव्‍य-प्रेरणा में कोरा जवानी का रोमांस ही नहीं था, उपनिषदों के अध्‍ययन के कारण ज्ञान से उमगी हुई भावुकता भी थी। इन्‍हीं दोनों विशेषताओं ने प्रसाद को आगे चलकर रहस्‍यवादी कवि बनाया, परंतु रहस्‍यवादी के नाते वे उलझे हुए नहीं थे। प्रसाद का एक सीधा-सादा मार्ग था जिस पर चलकर उन्‍होंने अपनी महाभावना का स्‍पर्श पाया।’ अकारण नहीं कि हिंदी समाज में उपन्यास पढ़ना भी उस दौर में बिगड़ जाने की निशानी समझा गया। पंडित गयाप्रसाद शुक्ल सनेही पर लिखे संस्मरण का शीर्षक है- ‘रससिद्ध कवीश्वर : सनेही जी’, यहाँ नागर जी लिखते हैं – ‘वे बीसवीं सदी में होने वाले हिंदी साहित्य के विकास के जीवित इतिहास हैं। यदि उनके आसपास रहने वाले नौजवान उनसे पुरानी बातें सुनकर लिख लें तो हमारे इतिहास की बहुत सी बहुमूल्य सामग्री सुरक्षित हो जाए।  सनेही जी की स्मरणशक्ति अद्भुत है। इसी संस्मरण में वे नाथूराम शर्मा शंकर और राधवल्लभ बंधु जैसे विस्मृत कवियों का आदर से उल्लेख करते हैं।’ विचार कीजिये तो इधर यह दुर्घटना इस तेजी से हुई है कि हमारे देखते देखते हिंदी के विद्यार्थी और अध्यापक भी पिछली पीढ़ी के कवियों और लेखकों के नाम तक भूलने लगे हैं। बावजूद संचार के सारे आधुनिकतम उपकरणों के हमारे पास न रिकार्डिंग्स हैं न बढ़िया इंटरव्यूज। असल बात यही है कि स्मृतियों को सहेजने में हम कमज़ोर हैं।       

औपचारिक ढंग से लिखे गए संस्मरणों के इत्र जिन संस्मरणों को नागर जी ने सचमुच दिल से लिखा है उनमें अपने अभिन्न मित्र रामविलास शर्मा पर लिखा गया संस्मरण है।  1964 में लिखे इस संस्मरण का शीर्षक है – ‘तीस बरस का साथी : रामविलास शर्मा’, जिसके शुरू में रामविलास जी हुई उनकी मुलाक़ात और मित्रता के प्रसंग आए हैं – ‘सन 34-35 के वर्ष मेरे लिए आसान न थे। उन दिनों यानी सन 34 में मैं कुछ उखड़ा-उखड़ा अशांत मानस जीवन बिता रहा था; नई उम्र की रंगीन कमजोरियाँ अपनी राहों पर चोरी-छिपे बढ़ रही थीं। इस वर्ष मैं साहित्यिक मित्र-मंडली में अधिक उठ-बैठ न सका। उस समय तक मेरी अपनी मंडली ही क्‍या थी – बड़े बुजुर्गों के यहाँ जाना, उनकी बातें सुनना-कविरत्‍न रूपनारायणजी पांडेय या कभी कभी स्‍वनामधन्‍य मिश्र-बंधुओं के यहाँ। अक्‍सर दुलारेलालजी भार्गव के ‘गंगा पुस्‍तकमाला’ कार्यालय में और अधिकतर शामें निरालाजी के साथ बीतती थीं। अपनी मंडली का आभास मुझे केवल निरालाजी के यहाँ होता था, क्‍योंकि समवयस्‍क प्रतिभाशाली नवयुवक उनके यहाँ बराबर आते रहते थे। मैं उन दिनों उन गोष्ठियों में बहुत कम शामिल हो सका और जब कभी हुआ भी तो बानक सदा ऐसे बने कि रामविलास मुझे वहाँ न मिल सके। एकाध बार यह भी सुना कि अभी-अभी बाहर गए हैं। रामविलास को देखने की उत्‍कण्‍ठा मेरे मन में सवार हो गई। फरवरी 35 में मेरे पिता का स्‍वर्गवास हुआ। निरालाजी उन दिनों जल्‍दी-जल्‍दी मेरे घर का चक्‍कर लगा जाते थे। एक दिन होली के बाद मैं सवेरे ही उनके घर चला गया। तब वे नारियल वाली गली में रहते थे और शायद ‘तुलसीदास’ लिख रहे थे या लिखने की तैयारी में थे। रामविलास उस दिन निरालाजी के घर पर ही मिले। निरालाजी ने बड़े तपाक से परिचय कराया। रामविलास रिजर्व टाइप के आदमी लगे। जोश आने पर निरालाजी में दिखावे की भावना भी खूब आती थी। रामविलास के अंग्रेजी साहित्‍य के ज्ञान से वे चित्‍त हो चुके थे और अपने काव्‍य पर उनकी विद्वत्‍तापूर्ण प्रशंसायुक्‍त आलोचना से गद्गद। मेरे सामने उन्‍होंने रामविलासजी से पंजा लड़ाया और शायद शेक्‍सपियर या किसी अन्‍य अंग्रेजी कवि को लेकर उनसे कुछ चोंचें भी लड़ाईं। हम लोग घर से उठकर हीवेट रोड, पैरागॉन रेस्‍ट्रां में चाय पीने के लिए आए। वहाँ देर तक बैठे, निरालाजी से खुलकर हँसते-बोलते हुए हम दोनों बीच-बीच में बाअदब कुछ आपस में भी बोल-बतिया लिया करते थे। मेरे मिजाज में तकल्‍लुफ और उनके मिजाज में संकोच, लिहाजा दोस्‍ती की गाड़ी रुक-रुककर आगे बढ़ती रही। निरालाजी के साथ रामविलास अब कभी-कभी मेरे घर पर भी आने लगे। मेरे बचपन के साथियों में ज्ञानचंद जैन, राजकिशोर श्रीवास्‍तव और स्‍व, गोविंद बिहारी खरे इंटेलेक्‍चुअल और साहित्यिक अभिरुचि के लोग थे। कभी-कभी मुझमें, रामविलास और गोविंद में शब्‍दों को लेकर मजेदार खोद-विनोद होने लगती थी। मेरे और रामविलास के बीच यह कड़ी शुरू से ही बड़ी मजबूत रही है। आगे चलकर यही शब्‍द-विलास रामविलास को भाषा-विज्ञानी बना गया।’  निराला ऐसे चरित्र हैं जो पंडित विनोद शंकर व्यास की तरह नागर जी के संस्मरणों में बार बार आते हैं। रामविलास जी के प्रसंग में वे बहुत आए हैं – ‘रामविलास के प्रति निरालाजी का प्रेम अबाध और अगाध था। बहुतों को शायद यह बात अटपटी-सी मालूम होगी पर यह हकीकत है कि निरालाजी को यदि मैंने किसी के सामने झुकते देखा है तो रामविलास के सामने ही। मेरी यह आदत थी कि निरालाजी जब गर्माने लगते थे तो मैं उनसे बहसबाजी करना बंद कर देता था। इससे निरालाजी और भी अधिक हुमस-हुमसकर गर्जा करते थे, मगर मुझे निरुत्तर पाकर थोड़ी देर में ही चुप हो जाया करते थे। रामविलास मेरी जैसी चुप्‍पी के कायल न थे, जहाँ निरालाजी ने गर्जन-तर्जन आरंभ किया नहीं कि रामविलास ने उन्‍हें और चकहाना शुरू कर दिया। विलास की टेकनीक यह रहती थी निरालाजी के उबाल पर ठंडे पानी के चुल्‍लू जैसा एक छोटा-सा वाक्‍य फेंक देते थे। विरोध पाकर निरालाजी और उबलते, रामविलास फिर एक फुलझड़ी छोड़ देते। निरालाजी फिर तो जी खोलकर अपने लंबे-लंबे बालों और यूनानी देवताओं जैसे शरीर को बार-बार झटका दे-देकर बबर शेर की तरह दहाड़ने लगते। रामविलास मौका साधने लगते, जहाँ निरालाजी के एक वाक्‍य के पूरा होने और दूसरे वाक्‍य की उठान के बीच में जरा-सा भी थमाव आता, वहीं एक चुभता हुआ फिकरा अपने ठंडे स्‍वर में और छोड़ देते। बस फिर तो निरालाजी क्रोध से बावले हो उठते थे। अपने क्रोध के लिए अपने अंदर कोई जोरदार तर्क न पाकर वह बेचारे उत्‍तर तो दे न पाते थे, हाँ हारे हुए पहलवान की तरह घूर-घूरकर रामविलास को देखते हुए वे बड़बड़ाने लगते थे। रामविलास अपने स्‍वभाव से विवश हैं। बेतुकी बात सुनकर उनसे बगैर जवाब दिए रहा ही नहीं जाता।’ रामविलास जी के स्वभाव को नागर जी खूब पकड़ते हैं – 

‘हाँ, उनमें एक प्रबल दोष है, जब कोई उनसे बेजा तौर पर नाराज होता है तो वे ठेठ देहाती की तरह उसको ‘टि-ली-ली-भों’ वाली मुद्रा में चिढ़ाने लगते हैं। जब वो चिढ़ता है तो ये और तेज होते हैं। रामविलास की तीखे व्‍यंग्‍य-भरी फिस-फिसवाली हँसी ने बहुत-से-कलेजों पर तलवार से वार किया। रामविलास का क्रोध भीतरी है, पर घुन्‍ना नहीं। उनके क्रोध का बहिर्प्रदर्शन आमतौर पर उनकी जहरीली हँसी और व्‍यंग्‍य वचनों के रूप में ही होता है। निरालाजी क्रोध की तेज बाढ़ में विवश होकर में बहते नहीं बल्कि तैरते हैं। बहने वाला उनके इसी संयम से आतंकित होता है। रामविलास जब चिढ़ते हैं, तब उनका तर्कजनित व्‍यंग्‍य और भी सधता है।’ ऐसे ही आगे फिर लिखते हैं कि ‘आप उनकी मातृभाषा की अगर एक कमजोरी दिखलाएँगे तो जब तक वह आपकी मातृभाषा या अपनाई हुई भाषा की एक दर्जन कमजोरियाँ न दिखला लेंगे तब तक उनको चैन नहीं पड़ सकता। यहाँ रामविलास सीधे लठैत हो जाते हैं। उन्‍हें यह भी परवाह नहीं रहती कि वह न्‍याय कर रहे हैं अथवा अन्‍याय। रामविलास अपने विरोधियों को स्‍वपक्ष में पड़ने का प्रयत्‍न कभी नहीं करते। सत्‍य और न्‍याय ऐसे अवसरों पर उनके हाथ में तलवार बनकर आता है जिसके द्वारा अपने विरोधी की हत्‍या किए बगैर वो रुक ही नहीं सकते।’ इसी स्वभाव की एक और झलक देखने योग्य है – ‘उर्दू के प्रति उनके मन में दुर्भावना तनिक भी नहीं। हाँ, यह अवश्‍य कहा जा सकता है कि उर्दू के हिमायती आंदोलनकारियों की हिंदी के प्रति हिकारत-भरी नजर से चिढ़ते अवश्‍य रहे और रामविलास जब चिढ़ते हैं तो चिढ़ाने वाले की नाक पिच्‍ची किए बिना उसे छोड़ते नहीं। हिंदी के प्रति उर्दू के हिमायतियों, काले साहबों और दूसरी भाषाओं के ‘स्‍नाब स्‍कालरों’ की बगैर पढ़ी-समझी अन्‍यायपूर्ण आलोचनाओं से वे तड़प उठते हैं। सेर के जवाब में यदि वे सवा सेर फेंकते तो शायद इतने बदनाम कभी न होते, लेकिन सेर पर ढैया, पसेरी या दससेरा बटखरा खींच मारना रामविलास का स्‍वभाव है। बैसवारे के लोग बड़े अक्‍खड़ और जबर्दस्‍त लट्ठमार होते है – विलास हैं तो आखिर ठेठ बैसवारे के ही।’ अंत में नागर जी की शुभकामनाएं हैं – ‘रामविलास को अभी बहुत-बहुत जीना चाहिए। रामविलास के मन में अभी बीस अच्‍छी किताबों की योजना बड़े सुलझे और साफ तरीके से सँजोई हुई मौजूद है और मेरी इच्‍छा है कि वह ये सब कुछ लिख जाएँ। रामविलास संपूर्ण जीवन का आचमन कर जाने की तड़प रखने वाले अथक साधक हैं। उनकी इसी साधना पर तो मैं निसार हूँ।’ कहना न होगा कि डॉ रामविलास शर्मा ने अपने मित्र की इच्छा को पूरा करने में कोई कसर न रखी।  

निरालाजी पर लिखा संस्मरण उनकी कुछ मुलाकातों के माध्यम से निर्मित हुआ है लेकिन वहां एक मार्मिक बात नागर जी ने अंकित कर दी है जिसे देखना चाहिए -‘ निराला साधारण न हों पर सहज थे। अपनी महावेगवती अथाह भावुकता के कारण वे साधारण हो ही नहीं सकते थे। निरालाजी की मृत्यु पर मैंने ऐसे लोगों की प्रतिक्रियाएं भी सुनी थीं जिनके बारे में यह कहना तो दूर कि उन्होंने निराला जी की रचनाएं पढ़ी थीं,बल्कि यह कहना भी प्राय: कठिन है कि वे खुद अपना नाम भी लिख या पढ़ सकते थे,’अरे निरालाजी रहे,बड़े भारी कवि रहे,बड़े भारी देवी के भगत रहे।’ इस तरह की बातें निराला जी के बारे में सुनने को मिलें तब सहज ही यह प्रश्न मन में उठता है कि ऐसे बेपढ़े-लिखे,असाहित्यिक जन का आखिर महाकवि निराला से क्या लगाव हो सकता है? …. इसका सीधा उत्तर यह है कि अपढ़ को भी अपनी भाषा से अचेतन और अगाध लगाव होता है।’  नागर जी की यह बात मामूली नहीं है और नए दौर में जब सबसे बड़ा हमला भाषा के बहाने विचार पर हो रहा है तब इस बात का महत्त्व अधिक बढ़ गया है।  ऐसा नहीं है कि नागर जी की दृष्टि संस्मृत के अलावा इधर उधर न जाती हो। एक जगह वे पंडित देवीदत्त शुक्ल के प्रसंग में लिखते हैं,  ‘पूज्य मालवीय जी की तरह मैं भी तब यही समझता था कि ब्राह्मण मांसाहारी भी होते हैं लेकिन अब जानता हूँ कि ब्राह्मणों में भी शाकाहारी कम हैं। इस देश को मुख्य रूप से शाकाहारी समझना भूल है।’  यह बात भले ही प्रकारांतर आ गई हो लेकिन हमारे बड़े काम की है क्योंकि अपने संस्मरणों में नागर जी ब्राह्मण होने को यदि छिपाते नहीं तो ब्राह्मण होने की स्थिति का आनंद लेने से भी नहीं चूकते हैं। मैथिलीशरण गुप्त जी पर लिखे संस्मरण में इस बात को देखा जा सकता है। नागर जी से सीखने योग्य बात यह है कि वे पिछली पीढ़ी के कम चर्चित और उपेक्षित किन्तु तपोनिष्ठ लोगों को याद करना नहीं भूलते हैं। पंडित देवीदत्त शुक्ल को वे बड़ा सम्पादक मानते हैं क्योंकि ये वही प्रतापी सम्पादक हैं जिहोने ‘सरस्वती’ में अवध उपाध्याय लिखित वे आलोचना लेख छापे जिनमें प्रेमचन्द के विरुद्ध आलोचना होती थी। नागर जी ने इस संस्मरण में अवध उपाध्याय प्रसंग का भी पूरी दिलचस्पी से वर्णन किया है। इसी अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी जी को वे संपादकाचार्य कहते हैं और उनकी बिखरी पड़ी पुस्तकों और लेखों के असंकलित रह जाने की बात लिखते हैं। 

नागर जी की लेखनी की मस्ती का पूरा आनंद जिस संस्मरण में मिलता है वह भगवतीचरण वर्मा पर लिखा गया संस्मरण है।  यहाँ नागर जी ने लिखा है, ‘भगवती बाबू यदि कवि न हुए होते तो आज वे आई सी एस अफसर भी हो सकते थे और राजनीतिक नेता -मंत्री भी। आरम्भ से यदि अनुकूल परिस्थितियां मिल जातीं तो शायद वे सफल उद्योगपति भी हो सकते थे। उनके व्यक्तित्व में तीनों विशेषताएं हैं, पर दुनियादारी की दृष्टि से दुर्भाग्य है कि भगवती बाबू शुरू से ही कवि निकल गए।’ कवि होना हम सब जानते हैं लेकिन कवि निकल जाना शुद्ध लखनवी अंदाज है जिसके अंतर्गत उन्होंने यह स्वीकार भी किया है कि भगवती बाबू मेरे नेता हैं और मैं उनकी जनता। एक अन्य प्रसंग में वर्मा जी के चुनाव लड़ने पर नागर जी के दो टूक इंकार कर देने का तनाव आया है लेकिन दूसरे दिन फिर सामान्य हो जाने की कथा भी आ गई है।

कविवर सुमित्रानंदन पंत पर लिखा संस्मरण उनके साथ नागर जी आत्मीय घरेलू सम्बन्ध को दर्शाता है तो  कवि पंत का प्रसन्न चित्र भी स्मृति में रह जाने वाला है। इसी तरह बलभद्र दीक्षित पढ़ीस और बेढब बनारसी को भी नागर जी बेहद आत्मीयता से याद करते हैं।  लखनऊ में स्थायी रूप से रहने के परिणामस्वरूप अनेक बड़े लेखकों के साथ उनके आत्मीय सम्बन्ध बने जो लखनऊ में रहते थे। इनमें यशपाल का नाम अनिवार्य है।  यशपाल पर लिखे संस्मरण में भगवतीचरण वर्मा के मुंह से वाक्य आया है – ‘कलम के मजदूर को कलम की यह मजदूरी अर्पित है।’ किस्सा यह है कि नागर जी को यह मौज आई कि यशपाल जी को जन्मदिन पर व्हिस्की की बोतल भेंट की जाए। अखबार के सम्पादक ने प्रस्ताव दिया कि उनके जन्मदिन 3 दिसम्बर पर  लेख दे दो और व्हिस्की ले लो। नागर जी ने लेख लिखा और पारिश्रमिक के रूप में मिली वही व्हिस्की नेताजी (भगवतीचरण वर्मा) के हाथों अर्पित कर दी।  

इन संस्मरणों में पंडित विनोद शंकर व्यास, आचार्य किशोरीदास वाजपेयी, भगवती प्रसाद वाजपेयी, कवि नरेंद्र शर्मा, नरोत्तम नागर, सोहनलाल द्विवेदी, फ़िल्मकार महेश कौल, धर्मवीर भारती, बाबूराव विष्णु पराड़कर और भंवरमल सिंघी जैसे विस्मृत लेखकों पर भी नागर जी ने लिखा है। आचार्य वाजपेयी और कथाकार भगवती प्रसाद वाजपेयी के स्वाभिमान को याद करना पाठकों को स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों की पावन याद दिलाता है। 

जैसा कि पहले कहा गया है इन संस्मरणों में नागर जी की आत्म छवियां भी मिलती हैं। महादेवी वर्मा पर लिखे संस्मरण में पंत जी लेखक को सावधान कर रहे हैं -‘आजकल ज़रा गोले-वोले कम चढ़ाइएगा।’ वहीं एक और प्रसंग में लेखक बताते हैं कि उन्होंने भगवती चरण वर्मा जी के जन्मदिन पर पंडित द्विवेदी जी को भी विजया चूर्ण लेने के लिए बाध्य कर दिया था। मिष्ठान्न प्रेमी होने के उल्लेख भी इन संस्मरणों में आए हैं तो कुछ आत्मस्वीकृतियाँ भी –  ‘मेरे पिता की बड़ी इच्‍छा थी कि मैं ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ पास करूँ, वह न पाया; उनकी कचोट आज तक मेरे मन में है और शायद जीवन भर रहेगी। इसके साथ ही साथ यह भी सच है कि रामविलास की डॉक्‍टरी मेरे उस जख्‍म पर मरहम-सा काम करती हैं।’ इसी बात कोफिर दुसरे ढंग से दोहराते हैं – ‘रामविलास की यह बड़ी तबीयत होती है कि वे उपन्‍यासकार और नाटककार के रूप में भी सफलता पा सकें, दूसरी ओर मेरे मन को डॉ. अमृतलाल नागर बनने की चाह ने बहुत भरमा रखा है।’ शरत चंद्र के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि उनकी रचनाओं को मूल भाषा में पढ़ने के लिए ही मैंने बाँग्‍ला सीखी। क्या यह दुर्लभ बात नहीं है? राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त पर भी नागर जी ने पूरी तबीयत से लिखा है। देखिये – ‘चिरगांव नाम में भी गाँव बोलता था।’ यहाँ दद्दा का दरबार आया है तो बासी पूरियों और लड्डुओं के भरे कनस्तर भी। लेकिन जो छवि अटकी रह जाती है वह वाकई नयी पीढ़ी के लिए नयी है – ‘कई लपेटों वाली बुंदेलखंडी पगड़ी और दुपट्टा,बगलबंदी पहले.बादशाह जार्ज पंचम जैसी छोटी नुकीली दाढ़ी वाले एक सज्जन बीड़ी पीते हुए बैठे चले जा रहे थे। पत्र-पत्रिकाओं में यह छवि अनेक बार देख चुका था इसलिए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण जी गुप्त को पहचानने में देर न लगी।’ खुद नागर जी का जीवन संघर्ष इन संस्मरणों के बहाने आया है जब आकाशवाणी की नौकरी छोड़कर वे स्वतंत्र लेखन का निर्णय लेते हैं और चकल्लस अखबार निकलते हैं। तमाम प्रसंग उनके संस्घ्रष और जिंदादिली की गवाही देते हैं जिन्हें लेखक मजे मजे में कहते गए हैं।  

अंत में जयशंकर प्रसाद पर लिखे संस्मरण की पंक्तियाँ दुहराना अप्रासंगिक न होगा -‘प्रसाद जी जैसे उदार महापुरुष की याद आज के दिनों में और भी अधिक आती है जब कि दूसरी लड़ाई के अंत में नाटकीय रूप से अवतरित होकर एटम बम ने सबसे पहले मानव-हृदय की उदारता का ही संहार कर डाला। इसी एटम बम की संस्‍कृति में पले हुए मुनाफाखोरी और एक सत्‍ताधिकार के संस्‍कार आज जन-मन पर शासन कर रहे हैं, पुस्‍तकालय सूने पड़े हैं। सिनेमाहाल मनोरंजन के राष्‍ट्रीय तीर्थ बन गए हैं। गली-मोहल्‍लों में प्रेम का सस्‍ता संस्‍करण फैल गया है। एक युग पहले तक जहाँ मैथिलीशरण की भारत-भारती और प्रसाद के आँसू की पंक्तियाँ गाते-गुनगुनाते हुए लोग शिक्षित मध्‍यम वर्ग के नवयुवकों में अक्‍सर मिल जाते थे, वहाँ अब प्रसाद का साहित्‍य पढ़ने वाले शायद मुश्किल से मिलें, उनकी बात जाने दीजिए जिन्‍हें परीक्षा से मजबूर होकर प्रसाद को पढ़ना ही पड़ता है। एटम बम की संस्‍कृति का हमारी सभ्‍यता पर यह प्रभाव पड़ा है।’ 

पल्लव :  जन्म  2 अक्टूबर । गद्य आलोचना में विशेष रुचि।  विगत दस वर्षों से ‘बनास जन’ का  सम्पादन। ‘कहानी का लोकतंत्र’ और ‘लेखकों का संसार’ शीर्षक से दो पुस्तकें ।  ‘मीरा: एक पुनर्मूल्यांकन’, ‘गपोड़ी से गपशप’, ‘एक दो तीन’ और ‘अस्सी का काशी’  शीर्षक से संपादित पुस्तकों का प्रकाशन। तीन खंडों में असगर वजाहत रचना संचयन का संपादन। ‘ मैं और मेरी कहानियां ‘ शीर्षक से हिंदी के दस प्रतिनिधि युवा कथाकारों के कहानी संग्रहों का चयन और संपादन। प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में आलेख, आलोचना और समीक्षा लेखों निरन्तर प्रकाशन।   भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता का युवा साहित्य पुरस्कार, वनमाली सम्मान, आचार्य निरंजननाथ सम्मान, राजस्थान पत्रिका सृजन पुरस्कार सहित कुछ और पुरस्कार – सम्मान।सम्प्रति  – दिल्ली के हिन्दू कॉलेज में अध्यापन।  

संपर्क- फ्लेट न. 393 डीडीए.ब्लॉक – सी एंड डी, कनिष्क अपार्टमेन्ट शालीमार बाग़, नई दिल्ली-110088

फोन- + 91-8130072004  ई- मेल- pallavkidak@gmail.com

One thought on “किस्सागो के संस्मरण -पल्लव”

  1. बहुत सुंदर पल्लव जी। धन्यवाद।
    संसमरण जीवन के कोटेशन होते हैं। और उन्हें लिखना वैसी ही सृजनात्मकता की मांग करता है जैसी कविता या कथा।
    बड़ों की संगत नहीं की तो किया क्या।
    और उसे लिखा नहीं तो लिखा क्या।

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