शहनाज़ इमरानी की कविताएं-

1तालाबंदी  

एक सुबह दुनिया नियमबद्ध होकर घड़ी बनी 

घर पर रहें कोविड-19, दूरी बना कर रखें 

हाथ बार-बार धोएं ,मुंह ढककर खांसें 

अद्भुत है हमारी व्यवस्था 

एक तरफ मजबूर लोगों का हुजूम 

दूसरी तरफ बंद घरों के ड्रॉईंग रूम में बैठे लोग 

जो डर गए इनके पलायन से 

सरकार के वफ़ादार मिडिया पर शुरू हुआ है तर्क-वितर्क  

कितने ग़ैर-ज़िम्मेदार हैं यह लोग 

सड़कों पर बिना मास्क लगाए आ गए 

अनपढ़ हैं वायरस फेलायेंगे 

जहाँ थे वहीं पड़े रहते 

विचलित करने वाले दृश्यों के बीच 

व्यवस्था कुर्सी पर और ग़रीब जनता सड़कों पर 

विदेशों में फंसे समर्थ लोगों के लिए विमान का इंतज़ाम 

मगर ग़रीबों और मज़दूरों के लिए कोई ठोर-ठिकाना नहीं 

किसी ने नहीं सुनी इनकी गुहार इनका निःशब्द रुदन 

कोई छत नहीं थी इनके पास 

रोज़ कुआं खोदना रोज़ पानी पीना 

नये भारत की कल्पना में शामिल ही नहीं यह लोग 

आबादी में ज़्यादा मगर हाशिए पर छोड़ दिए गये 

रोटी की तलाश में दिन में कमाने और रात में खाने वाले 

पुलों के नीचे, झुगियों में बड़े -बड़े पाइपों में 

पैरों को मोड़ कर गुज़ारा करते लाखों लोग 

दिहाड़ी बंद हुई तो गाँव जाने पर मजबूर हुए  

अपनी ज़िन्दगी का सारा हासिल

माल-असबाब पोटलियों में बाँध कर 

सैकड़ों किलोमीटर पैदल ही निकल पड़े 

अपने हौसलों के साथ भूखे-प्यासे 

अपने बच्चों को सिर पर कांधे पर बिठाये 

रोटी का विकल्प बना वही गाँव का घर 

जिसे कभी रोटी की तलाश में छोड़ा था  

यह मरती हुई संवेदनाओं का समय

हम घिरे हैं अनिश्चतताओं से भय से 

किस ज़ुबान में किस अदालत में दायर होगा 

इनका मुक़दमा, कहाँ मिलेगा इन्हें इंसाफ़

तालाबंदी ही महामारी मज़दूरों और ग़रीबों के लिए। 

2 – मेंरे देश में

समय के साथ खेत मैदान बन जाते 
और फिर सड़कें दौड़ने लगती हैं
जब भी मौक़ा मिला सांस लेने का 
तो पाया इस में शामिल होती है चतुराई 

जो राजनीति के बारे में ज़्यादा नहीं जानता 
वो ही तो नेता बन जाता है 
चुनाव जीतना भी 

दहशतगर्दी का लाइसेंस मिल जाने जैसा हुआ 
देशवासियों को खाना नसीब नहीं 
और वो पार्टी के बाद का बचा खाना फेंकते 
ट्रकों में भरवा कर  

रोज़ाना कई लोग 
खाली पेट सरकारी अस्पतालों के फर्श पर 
बिना दवा इलाज के दम तोड़ देते 

अब पहले से ज़्यादा होते है 

खून,बलात्कार, हिंसा, अन्याय, अत्याचार

देश में आज भी राष्ट्र से पहले धर्म आता है 

अणु-परमाणु से चलकर न्यूट्रोन-प्रोटोन तक 

विज्ञान और तकनीक विकास के युग में 

मेंरे देश में 

प्रजा तो पीछे रह गयी

तंत्र बुलेट प्रूफ़ कारों में आगे निकल गया !

3 – स्थिति नियंत्रण में है 

पुलिस कि गश्त 

चौराहों, सड़कों, गलियों में 

अफवाओं का ज़ोर है और दहशत तारी 

तलवार,चाकू या कोई भी हो हथियार 

सभी को चाहिये तेज़ धार 

किस नस्ल का ख़ून है रग़ों में 

वहशीपन और बर्बरता के शिकार 

गोरे, काले सभी कि रगों में है लाल ख़ून 

क्या प्रतिशोध और प्रतिज्ञायें देती हैं 

लहूलुहान हाथों को सुकून 

सड़कें भागते क़दमों से थक कर 

आहटें बन गयीं 

क़त्लगहा बन गया शहर 

और वो मेहफ़ूज़ जगहों पर बैठे 

कहते है की स्थिति नियंत्रण में है

सारे शहर में आग, धुँआ फ़ायरिंग चीख़ और ख़ून 

और हर तरफ “रास्ता बंद है” कि लगी हैं तख्तियां।

4 – वेवलेंथ

कैसी हो? बस इतना ही तो पूछता है 

कैसी हो सुनते ही 

गुज़र जाता है हवा का झोंका

आत्मा को सहलाता सा 

इस आसान से सवाल का जवाब

देती तो हूँ कि ठीक हूँ  

मगर वो जान लेता है कहने के बाद भी

कि कुछ भी ठीक नहीं है

मेरे आस-पास उड़ती धूल को 

मुझसे भी ज़्यादा साफ़ देख लेता 

महसूस होकर भी न होने का भाव लिए 

पढ़ लेता है मेरे भीतर का अनकहा 

खामोशियाँ हमेशा से थी आस-पास और भीड़ में ज्यादा

दो सिरों से बंधे खामोशियों के तार 

ख़ामोशी जानती है टूटने से पहले 

अंदर तक उतर जाना। 

5 – ख़ुदाओं की इस जंग में 

रात ने देखी हैं हजारों निर्दोष लोगों की मौतें 

यातना केंद्र की दीवारों ने सुनी हैं चीखें 

दिन ने देखें हैं वो पदक और पदोन्नति 

मिलते हैं जो मोैत के सौदागरों को 

शब्दों और तकरीरों से फ़ैल रही नफ़रतें में 

इंसान ने क़त्ल किया और 

इंसान ही क़त्ल हुआ 

इंसान से जानवर होते जाने के वक़्त में 

राजनीति और धर्म के बदल हैं मायने

किये जा रहे हैं छल 

एक दूसरे को निगल जाने के षड्यंत्र 

उगला जा रहा है ज़हर

निकाले जाने के अपने ही देश से

बुलन्द हो रहे हैं नारे 

खाने के लिए साग-सब्जी ठीक है या मांस 

जबकी हमारे देश में 

रोज़ नहीं जलता है चूल्हा हर घर मे 

कोई सूखी रोटी खाता 

कोई भूखा ही सो जाता 

भूख और हाथ के बढ़ते जाते फ़ासले के बीच 

बाज़ारवादी,राष्ट्रवादी पत्रकारों के हाथ में मीडिया की कमान 

विषय उनकी बहस का है “धर्म” 

अँधेरा रात में ही नहीं दिन में भी हो जाता 

भयावह है जब आवाज़ों को सुनना भी नमुमकीन हो 

शर्मिनाद है विरासत की बोला जाए कैसे सच 

सिली हुई ज़बानों के साथ 

आज़ादी के इस नये इतिहास में  

लहू से लहू का हिसाब… 

शाहनाज़ इमरानी  सुपरिचित कवि ।  जन्म- भोपाल (मध्य प्रदेश )  विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।  पहला कविता संग्रह  “दृश्य के बाहर “। कविता संग्रह का उर्दू में लिपियांतर मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी द्वारा।  कविताओं पर आधरित दो नाटक “तारीखें” और “स्टिल लाइफ़” ।पुरस्कार – लोक चेतना की साहित्यिक पत्रिका “कृति ओर ” का प्रथम सम्मान !

संप्रति – भोपाल में अध्यापिका 

संपर्क – shahnaz.imrani@gmail.com 

2 thoughts on “शहनाज़ इमरानी की कविताएं-

  1. शहनाज़ , सहज शब्दों में आपने कितना तीखा और गहरा तंज कसा है सत्ता , मोहरों की गठरी में बिकी मीडिया ,स्वार्थी , मतलबी और नासमझ आम आदमी को धर्म के नशे का आदी बनाते धर्म के ठेकेदार – सबों पर एकसाथ ! आम इंसान जिसे न सत्ता से कुछ लेना – देना है , न धर्म – जाति और महामारी का संत्रास जिनके लिए बेमानी हैं , अगर मायने रखता है तो भूख मिटाने के लिए रोटी की व्यवस्था ! आपकी कविताओं का फलक जितना व्यापक है उतना ही विषयानुकूल बिंबों का आपने चयन किया है ! मन के बहुत गहरे घुस तिलमिलाहट से भर देने वाली कविताएं हैं आपकी शहनाज़ ! बहुत बढ़िया

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