1-

चाहत है तो ज़रा बता
वरना मेरी खता बता
बगुला बहुत मज़े में है
ज़रा हंस की व्यथा बता
काम नियम से ही होगा
नोट न मुझको बड़ा बता
सज़ा मुकर्रर भी कर दी
अब तो मेरी खता बता
गज़लें उनकी बेहतर पर
हम सा ग़ज़ल-सरा बता
2 –
ग़लत सवालों में उलझे हैं
किन बेतालों में उलझे हैं
तेज़ करी उसने तलवारें
हम बस ढालों में उलझे हैं
जीत मिलेगी कैसे इनको
अपने पालों में उलझे हैं
लुटे घरों के लोग अभी भी
टूटे तालों में उलझे हैं
तल्ख़ बड़ी है आज हक़ीक़त
आप रिसालों में उलझे हैं

3-
जितने ये तैयार खड़े हैं
बिकने को क़िरदार खड़े हैं
नज़र न आया फ़र्ज़ कहीं भी
हाथ उठा अधिकार खड़े हैं
सर को ज़रा झुका कर गुज़रो
रस्ते में सरकार खड़े हैं
एक फूल की नीलामी है
काँटे सब तैयार खड़े हैं
4-
बचती कब तक नाव मियाँ
कातिल रहा बहाव मियाँ
आप वहाँ थे फिर कैसे
लगता अपना दाव मियाँ
ऊन वही पर सर्दी में
बढ़ जाता है भाव मियाँ
बेबस – हम तुम दोनो हैं
तुमसे कौन दुराव मियाँ
तब की तब ही देखेंगे
होगा जब बदलाव मियाँ
आज कुरेदो मत फिर से
भरा बमुश्किल घाव मियाँ
प्रदीप कान्त – देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में गज़लें व नवगीत प्रकाशित। विभिन्न साहित्यिक पोर्टल एवं वेब साइट्स पर रचनाएँ संकलित। “क़िस्सागोई करती आँखें” (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशित । सम्पर्क – 24, सत्यमित्र राजलक्ष्मी नेचर, सूर्य मंदिर के पास, रंगवासा रोड़, इंदौर – 453 331 संपर्क- फोन – 94074 23354 ईमेल-kant1008@rediffmail.com,