पवन उप्रेती आज़ादी के बाद शायद ही कभी ऐसा हुआ होगा कि लाखों लोग अपनी मांगों को लेकर दिल्ली के बॉर्डर्स पर आकर बैठ गए हों और हालात सरकार के क़ाबू से बाहर चले गए हों। जम्हूरियत होने के चलते इस मुल्क़ में जेपी आंदोलन से लेकर अन्ना आंदोलन तक हुए हैं, जिनमें नेताओं के […]
Read Moreआम तौर पर प्रतीक का एक साझा अर्थ होता है। लेकिन क्या इन सारी नामवाचक, स्थानवाचक संज्ञाओं और कालसूचक संख्याओं का आशय या प्रतीकार्थ इस देश के सभी वासियों के लिए एक है? अगर एक के लिए ये सब उसके अपने वर्चस्व और दूसरे के लिए उसकी हीनता और उसके साथ की गई नाइंसाफी के […]
Read Moreशाहीन बाग़ में पहले आतंकवादियों की शह देखी गई, फिर नक्सलवादी होने का इल्ज़ाम लगा, फिर शांति भंग करने का आरोप लगा और अंततः उसके तार दिल्ली के दंगों से जोड़ दिए गए। किसान आंदोलन में भी खालिस्तानी तत्व खोज लिए गए, नक्सली हाथ देख लिया गया और यह सवाल भी पूछा गया कि इनकी […]
Read Moreमुकेश कुमार कोई पूछे कि क्या पिछले चार साल अमेरिका में लोकतंत्र था और अगर था तो वह कैसा लोकतंत्र था? वहाँ की तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं ट्रंप को रोकने में नाकाम रहीं। मीडिया अगर अपनी भूमिका निभा भी रहा था तो उससे ट्रंप की राजनीति पर क्या असर पड़ा, वह तो और भी मज़बूत होती […]
Read Moreराकेश वेदा नए कृषि कानून वापस होने की उम्मीद के साथ इप्टा और प्रलेस के कलाकारों और लेखकों ने वहां अपनी कला,गीत और कविताओं से जितना दिया उससे ज्यादा लिया।वहां से लिया लड़ने का हौसला,आंदोलन को उत्सव में बदलने का सलीका।दिल्ली की सीमाओं पर किसान इंसानियत की पाठशाला चला रहे हैं,संविधान का पुनर्पाठ कर रहे […]
Read Moreकिसान आंदोलन हकीकत में आर्थिक मुद्दे पर आधारित है। किसानों को उनकी उपज के लिए पर्याप्त पारिश्रमिक नहीं मिल रहा है। यह राम मंदिर बनाने जैसे भावनात्मक और भावुक मुद्दे जैसा नहीं है। इसे भारत के लगभग 75 करोड़ किसानों का समर्थन प्राप्त है, हालांकि ज़ाहिर है कि ये सभी दिल्ली के पास इकट्ठा नहीं […]
Read Moreआजकल हर पैट्रीअट शांतिनिकेतन की दौड़ लगा रहा है। कुछ नारदवृत्तिधारी इस तीर्थयात्रा में भी सांसारिक प्रयोजन सूंघ रहे हैं। सांसारिक कारण से ही सही, अगर कोई पवित्रता का स्पर्श पा ले तो क्या बुरा! लेकिन शांतिनिकेतन के ऋषि ने तो कहा था कि ‘पैट्रीअटिज़्म हमारा अंतिम आध्यात्मिक आवास नहीं हो सकता। वर्षारंभ पर एक […]
Read Moreमुकेश कुमार स्वतंत्रता, समानता और न्याय पर लगातार प्रहार होने के बावजूद कोई सार्थक हस्तक्षेप कहीं से होता नहीं दिख रहा है। इस साल ये चिंताएं बढ़ गई हैं कि कहीं दुनिया एक बर्बर भविष्य में तो दाखिल नहीं हो रही है। यह बर्बरता बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अदम्य भूख का नतीजा है क्योंकि वे अपनी […]
Read Moreरविकान्त भीमा कोरेगांव में महारों के शौर्य के 200वें जलसे के दौरान हुई हिंसा के बहाने हिंदुत्ववादी ताकतें मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों का दमन करने पर उतारू हैं। पूरी दुनिया के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों ने इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर जेल में होने वाली क्रूरता की निंदा की है। लेकिन दमन का सिलसिला थम नहीं रहा […]
Read Moreअनिल शुक्ल प्रधानमंत्री की 6 हज़ार रुपये की सालाना किसान राहत योजना पर नरेंद्र मोदी से लेकर पूरी बीजेपी को बड़ा रश्क़ है। इतराने वाले इस ‘अहसान के बोझ’ से इतर यदि केरल की तुलना की जाए तो वहाँ राज्य सरकार धान के किसान को अनुदान स्वरुप प्रति हेक्टेअर एक फ़सल का 55 सौ रुपये […]
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