31 जनवरी, 1948 को दिए इस वक्तव्य में विनोबा भावे बताते हैं कि क्यों जब गांधीजी जैसा पुरुष देह छोड़कर जाता है तो वह रोने का प्रसंग नहीं होता
अभी इस समय दिल्ली में जमुना नदी के किनारे पर एक महान पुरुष की देह अग्नि में जल रही है. हम यहां जिस तरह प्रार्थना कर रहे हैं, उसी तरह हिंदुस्तान भर में प्रार्थना चल रही है.
कल ही के दिन! शाम के पांच बजे थे. प्रार्थना का समय हुआ और गांधीजी प्रार्थना के लिए निकले. प्रार्थना के लिए लोग जमा हुए थे. गांधीजी प्रार्थना की जगह पर पहुंचे ही थे कि किसी नौजवान ने आगे झपटकर गांधीजी की देह पर गोलियां चलाईं. गांधीजी की देह गिर पड़ी. खून की धारा बहने लगी. देह का जीवन समाप्त हुआ. सरदार वल्लभभाई पटेल उनकी मृत्यु के थोड़े ही समय पहले एक घंटे तक गांधीजी से चर्चा करके लौटे थे. सरदार वल्लभभाई ने एक बड़े महत्व की बात कही. वो यह कि गांधीजी के चेहरे पर दयाभाव और माफी का भाव, यानी अपराधी के प्रति क्षमावृत्ति दिखाई देती थी. आगे चलकर वल्लभभाई ने कहा कि इस समय कितना ही दुख क्यों न हो, गुस्सा नहीं आने देना चाहिए. और यदि आए भी तो उसे रोकना चाहिए. गांधीजी ने जो चीज हमें सिखाई उसका अमल हम उनके जीते-जी नहीं कर पाए. लेकिन अब उनकी मृत्यु के बाद तो करें.
बड़े लोग अपनी रक्षा के लिए बॉडी गार्ड यानी देह-रक्षक रखते हैं. गांधीजी ने ऐसे देह-रक्षक कभी नहीं रखे. देह को वे तुच्छ समझते थे’
ऐसी घटना पांच हजार साल पहले हिंदुस्तान में घटी थी. भगवान कृष्ण की उम्र ढल गई थी. जीवनभर उद्योग करके वे थक गए थे. गांधीजी की तरह उन्होंने निरंतर जनता की सेवा की थी. थके हुए एक बार जंगल में वे किसी पेड़ के सहारे आराम कर रहे थे. इतने में एक व्याध यानी शिकारी उस जंगल में पहुंचा. उसे लगा कि कोई हिरन पेड़ के सहारे बैठा है. शिकारी जो ठहरा! उसने लक्ष्य संधान करके तीर छोड़ा. तीर भगवान के पांव में लगा. खून की धारा बहने लगी. शिकारी अपना शिकार पकड़ने के इरादे से नजदीक आया. लेकिन सामने प्रत्यक्ष भगवान को जख्मी पाया. उसे बड़ा दुख हुआ. भगवान श्रीकृष्ण तो थोड़े ही समय में चल बसे. लेकिन मरने से पहले उन्होंने उस व्याध से कहा- ‘हे व्याध! डरना नहीं. मृत्यु के लिए कुछ न कुछ निमित्त लगता ही है. तू निमित्त बन गया.’ ऐसा कहकर भगवान ने उसे आशीर्वाद दिया.
इसी तरह की घटना पांच हजार वर्षों के बाद फिर घटी है. यों देखने में तो ऐसा दिखाई देगा कि उस व्याध ने अज्ञानवश तीर मारा था और यहां इस नौजवान ने सोच-समझ कर, गांधीजी को ठीक पहचानकर, पिस्तौल चलाई. इसी काम के लिए वह दिल्ली आया था. वह दिल्ली का रहनेवाला नहीं था. गांधीजी के प्रार्थना के लिए जाते हुए वह उनके पास पहुंचा और बिल्कुल नजदीक जाकर उसने गोलियां छोड़ीं. ऊपर से तो यों दिखाई देगा कि गांधीजी को वह जानता था. लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं था. जैसे वह व्याध अज्ञानी, वैसा ही यह युवक भी अज्ञानी था. उसकी यह भावना थी कि गांधीजी हिंदू धर्म को हानि पहुंचा रहे हैं और इसलिए उसने उन पर गोलियां छोड़ीं.
लेकिन दुनिया में आज हिंदू धर्म का नाम यदि किसी ने उज्ज्वल रखा है तो वह गांधीजी ने ही रखा है. उन्होंने खुद ही कहा था कि ‘हिंदू धर्म की रक्षा करने के लिए किसी मनुष्य को नियुक्त करने की जरूरत यदि भगवान को महसूस हुई तो इस काम के लिए वह मुझे ही नियुक्त करेगा.’ इतना आत्मविश्वास उनमें था. उन्हें जो सत्य मालूम होता था, वह साफ-सीधे कह देते थे. बड़े लोग अपनी रक्षा के लिए बॉडी गार्ड यानी देह-रक्षक रखते हैं. गांधीजी ने ऐसे देह-रक्षक कभी नहीं रखे. देह को वे तुच्छ समझते थे. मृत्यु के पहले ही वे मरकर जी रहे थे. निर्भयता उनका व्रत था. जहां किसी फौज को भी जाने की हिम्मत न हो, वहां अकेले जाने की उनकी तैयारी थी.
‘मां हमें छोड़कर जाती है, उस समय जैसा लगता है, वैसा गांधीजी के मरने से लगेगा जरूर, लेकिन उससे हममें उदासी नहीं आनी चाहिए’
जो सत्य है, लोगों का हित है, वही कहना चाहिए. भले ही किसी को अच्छा लगे, बुरा लगे या उसका परिणाम कुछ भी निकले— ऐसी थी उनकी वृत्ति. वे कहते थे, ‘मृत्यु से डर का कोई कारण नहीं है; क्योंकि हम सब ईश्वर के ही हाथ में हैं. हमसे जब तक वह सेवा लेना चाहता है, तब तक लेगा और जिस क्षण वह उठा लेना चाहेगा, उस क्षण उठा लेगा. इसलिए जो सत्य लगता है वही कहना हमारा धर्म है. ऐसे समय में मैं यदि अकेला भी पड़ जाऊं और सारी दुनिया मेरे खिलाफ हो जाए तो भी मुझे जो सत्य दिखाई देता है, वही मुझे कहना चाहिए.’
उनकी इस तरह की निर्भीकतापूर्ण वृत्ति रही. और उनकी मृत्यु भी किस अवस्था में हुई! वे प्रार्थना की तैयारी में थे. यानी उस समय उनके चित्त में भगवान के सिवा दूसरा कोई विचार नहीं था. उनका सारा जीवन ही आपने सेवामय तथा परोपकारमय देखा है. परंतु फिर भी प्रार्थना की भावना और प्रार्थना का समय विशेष पवित्र कहना चाहिए. राजनैतिक आदि अनेक महत्व के कामों में वे रहते थे. लेकिन उनका प्रार्थना का समय नहीं टला. ऐसे प्रार्थना के समय ही देह में से मुक्त होने के लिए माने भगवान ने आदमी भेजा. अपना काम करते हुए मृत्यु हुई. इस विषय में उनके दिल का आनंद और निमित्त मात्र बने हुए गुनहगार के प्रति दयाभाव, इस तरह का दोहरा भाव उनके चेहरे पर मृत्यु के समय था, ऐसा सरदार पटेल को दिखाई दिया.
गांधीजी ने उपवास छोड़ा, उस समय देश में शांति रखने का जिन्होंने वचन दिया, उनमें कांग्रेस, मुसलमान, सिख, हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आदि सब थे. हम प्रेम के साथ रहेंगे ऐसा उन्होंने वचन दिया. और लोग उस तरह रहने भी लगे थे कि एक दिन प्रार्थना सभा में गांधीजी को लक्ष्य करके किसी ने बम फेंका. वह उन्हें लगा नहीं. उस दिन प्रार्थना में गांधीजी ने कहा, ‘मैं देश की और धर्म की सेवा भगवान की प्रेरणा से करता हूं. जिस दिन, मैं चला जाऊं, ऐसी उसकी मर्जी होगी, उस दिन वह मुझे ले जाएगा. इसलिए मृत्यु के विषय में मुझे कुछ भी विशेष मालूम नहीं होता है.’ दूसरा प्रयोग कल हुआ. भगवान ने गांधीजी को मुक्त किया है.
हम सब देह छोड़कर जानेवाले हैं. इसलिए मृत्यु के विषय में तनिक भी दुख मानने का कारण नहीं है. माता की अपने दो-चार बच्चों के विषय में जो वृत्ति रहती है, वह दुनिया के सब लोगों के विषय में गांधीजी की थी. हिन्दू, हरिजन, मुसलमान, ईसाई या फिर जिन राज्यकर्ताओं यानी अंग्रेजों से वे लड़े, इन सबके प्रति उनके दिल में प्रेम था. सज्जनों पर जिस तरह प्रेम करते हैं, वैसे दुर्जनों पर भी करो, शत्रु को प्रेम से जीतो, ऐसा मंत्र उन्होंने दिया.
‘गांधीजी ने जो काम रख छोड़ा, वह हमें पूरा करना चाहिए. हमारे देश में अनेक धर्म हैं, अनेक पंथ हैं. यह हमारा वैभव है, मैं ऐसा समझता हूं. लेकिन हम सब प्रेम के साथ रहेंगे, तभी यह वैभव सिद्ध होगा’
उन्होंने ही हमें सत्याग्रह सिखाया. खुद आपत्तियां झेलकर सामने वालों को जरा भी खतरा न पहुंचे, ऐसी शिक्षा उन्होंने हमें दी. ऐसा पुरुष देह छोड़कर जाता है, तब वह रोने का प्रसंग नहीं होता. मां हमें छोड़कर जाती है, उस समय जैसा लगता है, वैसा गांधीजी के मरने से लगेगा जरूर, लेकिन उससे हममें उदासी नहीं आनी चाहिए.
गांधीजी मृत्यु से डरने वाले गुरु नहीं थे. जिस सेवा में निष्काम भावना से देह लगाई जाए, वह सेवा ही भगवान की सेवा है. उसे करते हुए जिस दिन वह बुलवाएगा, उस दिन जाने के लिए तैयार रहें, ऐसी सिखावन उन्होंने हमें दी. तदनुसार ही उनकी मृत्यु हुई. इसलिए यह उत्तम अंत हुआ, ऐसा हम पहचान लें और काम करने लग जाएं.
कुछ दिन पहले ही आश्रम के कुछ भाई गांधीजी से मिलने गए थे. उस समय उनका उपवास जारी था. उपवास में वे जिंदा रहेंगे या मर जाएंगे, इसका किसको पता था? आश्रम के भाइयों ने उनसे पूछा, ‘आप यदि इस उपवास में चल बसे तो हम कौन-सा काम करें?’ गांधीजी ने जवाब दिया- ‘इस तरह का सवाल ही आपके सामने कैसे खड़ा हुआ? मैंने तो आपके लिए काफी काम रखा है. हिंदुस्तान में खादी करनी है. खादी का शास्त्र बनाना है. इतना बड़ा काम आपके लिए होते हुए भी, “क्या करें”— ऐसी चिंता क्यों होती है?’
इसलिए हमारे लिए उन्होंने जो काम रख छोड़ा, वह हमें पूरा करना चाहिए. हमारे देश में अनेक धर्म हैं, अनेक पंथ हैं. यह हमारा वैभव है, मैं ऐसा समझता हूं. लेकिन हम सब प्रेम के साथ रहेंगे, तभी यह वैभव सिद्ध होगा. हम प्रेम से रहें यही गांधीजी ने अपने अंतिम उपवास में हमें सिखलाया है. बच्चे एक-दूसरे के साथ प्रेम से रहें, इसलिए जिस तरह माता भोजन छोड़ देती है, वैसा ही उनका वह उपवास था. सारे मनुष्य एक हैं यह उन्होंने हमें सिखाया. हरिजन-सेवा, खादी-सेवा, ग्राम-सेवा, भंगियों की सेवा आदि अनेक सेवा कार्य हमारे लिए वे छोड़ गए हैं. एक-दूसरे को बोध देते हुए और एक-दूसरे पर प्रेम करते हुए हम सब मिलकर गांधीजी की सिखावन पर चलें.
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