लगातार हो रही हिंसा का यह पैटर्न क्या फासीवाद की आहट है?

मुकेश कुमार

क्या गुंडों की ये टोलियाँ फासीवादी अभियान के शुरुआती दस्ते हैं? अभी इस तरह की भविष्यवाणी को अनुचित और जल्दबाज़ी कहा जाएगा। बहुत से लोगों को यक़ीन है कि भारत के लोगों का सामूहिक विवेक अभी उस हद तक नहीं गिरा है जहाँ हम मान लें कि लोकतांत्रिक व्यवस्था ढह जाएगी और फासीवाद सत्ता के शिखर पर चढ़कर अट्टहास करने लगेगा।

29 जनवरी को सिंघु बॉर्डर पर हुए पथराव की तमाम सचाइयाँ सामने आ गई हैं। यह साफ़ हो गया है कि किसानों के आंदोलन से नाराज़ स्थानीय लोग इस प्रायोजित हिंसा में शामिल नहीं थे। जिन्होंने इस वारदात में हिस्सा लिया था वे बाहर से आए थे और आरोप है कि ये बीजेपी और उससे जुड़े कार्यकर्ता थे। वीडियो और तस्वीरों की शक्ल में इसके कई प्रमाण सामने आ चुके हैं।

ऑल्ट न्यूज़ ने अपनी पड़ताल से कई चेहरों को बेनक़ाब कर दिया है। किसानों पर हमले में शामिल अमन डबास नामक व्यक्ति की उसने विभिन्न स्रोतों से तस्दीक करके बताया है कि वह बीजेपी का सक्रिय कार्यकर्ता है और इस तरह के उपद्रवों में पहले भी हिस्सा लेता रहा है। इसी तरह बीजेपी के एक और कार्यकर्ता कृष्ण डबास की भी उसने पक्की खोज-ख़बर ली है। 

सत्यहिंदी के पास एक ऑडियो क्लिप है जो साबित करती है कि बीजेपी के नेता किस तरह लोगों को संगठित करके लोगों को सिंघु बॉर्डर पर उपद्रव करने के लिए लाए थे।

इसके अलावा कुछ और चीज़ें भी साबित हो चुकी हैं। इनमें से एक यह है कि जिस सिख को तलवार चलाने का दोषी बताया जा रहा है वह तो दरअसल, बीजेपी के गुंडों की हिंसा का शिकार व्यक्ति था। पूरा वीडियो देखने से साफ़ पता चलता है कि बीजेपी के गुंडों ने जब उसके टेंट में घुसकर ग़ाली-गलौज़ की तो वह सिख उन्हें डराने के लिए तलवार लेकर निकला था, लेकिन उसका इरादा किसी पर वार करने का नहीं था। इसीलिए झगड़ा शांत करने की गरज़ से वह चुपचाप वापस लौटने लगा था। लेकिन तभी उसे पुलिसवालों ने खींच लिया और फिर भीड़ के साथ मिलकर बड़ी बेरहमी से पीटा।

लेकिन विडंबना यह है कि केंचुआ मीडिया ने इसके ठीक उलट पेश किया। उसने यह प्रचारित किया कि उस सिख किसान ने तलवार से हमला किया था। बाक़ी की बात वे गोल कर गए, क्योंकि उन्हें ऐसा नैरेटिव बनाना था जो किसानों के ख़िलाफ़ और सरकार के पक्ष में जाए। उसने बार-बार तलवार दिखाते किसान को दिखाया, जिससे लोगों में किसानों के प्रति ग़ुस्सा भड़के। 

तीन दिन पहले गणतंत्र दिवस पर हुए उपद्रव को लेकर भी केंचुआ मीडिया ने यही किया था। बीजेपी समर्थक लोगों द्वारा लाल क़िले पर किए गए हंगामे को आंदोलनकारियों के मत्थे मढ़ दिया गया था।

ट्रैक्टर परेड पर निकले लोगों को पुलिस ने किस बेरहमी से पीटा उसे ग़ायब कर दिया और आंदोलनकारियों द्वारा पुलिस को पीटे जाने की ख़बरें बढ़ा-चढ़ाकर दिखाईं।

इससे नैरेटिव यह बना कि किसानों ने देश को कलंकित करने वाला उत्पात मचाया, राष्ट्रीय ध्वज का अपमान किया (जो कि बिल्कुल भी नहीं किया गया था) और इन्हें तुरंत भगा देना चाहिए।

लेकिन सिंघु बॉर्डर की घटना कोई पहली नहीं है और न ही आख़िरी। वास्तव में यह एक सिलसिले की कड़ी है। यह सिलसिला पिछले चार-पाँच साल से चल रहा है। यह एक पैटर्न है जो बार-बार दोहराया जा रहा है। हर जगह बीजेपी के लोग पुलिस के संरक्षण में सरकार का विरोध करने वालों के ख़िलाफ़ हिंसा करते हैं। उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की जाती।

जेएनयू की हिंसा को लीजिए। हर तरह के प्रमाण साबित करते हैं कि एबीवीपी के गुंडों ने डंडों और घातक हथियारों से लैस होकर दिन दहाड़े हमला किया था और उनका यह अभियान घंटों चलता रहा। न तो कुलपति ने और न ही वहाँ तैनात पुलिस ने हस्तक्षेप किया। घटना के बाद सारा दोष वामपंथी छात्रों पर मढ़ दिया गया। आज तक इस हमले के दोषी लोगों को ग़िरफ़्तार करना तो दूर, मामला तक दर्ज़ नहीं किया गया है। 

सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान भी आरोप लगे कि बीजेपी-पुलिस की मिलीभगत से हमलों को दिल्ली, यूपी और मध्यप्रदेश में अंजाम दिया गया। दिल्ली में शाहीन बाग़ निशाने पर था। वे उस पर तो हमले नहीं कर सके। फिर आरोप लगा कि उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगे करवाकर उन्होंने अपना एजेंडा पूरा किया। जामिया पर तो पुलिस ने ख़ुद ही हमला बोल दिया था। कोरोना काल में तबलीग़ी जमात के नाम पर मुसलमानों को भी इसी तरह निशाने पर रखा गया था। जगह-जगह उन पर हमले किए गये और पुलिस ने हमलावरों का साथ दिया।

आज इस आरोप को ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि जब भी सरकार के विरोध में कोई प्रदर्शन आकार लेता है तो सरकार बीजेपी के कार्यकर्ताओं के ज़रिए पुलिस की मदद से प्रदर्शनकारियों पर हमले करवाती है और फिर मीडिया के ज़रिए प्रचारित करवाती है कि हिंसा हो रही है या देश विरोधी ताक़तें सक्रिय हैं।

यह रणनीति नई नहीं है। जर्मनी और इटली में अपने विरोधियों से निपटने के लिए यही रणनीति अपनाई गई थी। इसके लिए बाक़ायदा ख़ास तरह के संगठन थे जो यहूदियों, कम्युनिस्टों या तानाशाही विरोधियों पर हिंसक हमले करते थे। यह एक तरह की राजनीतिक सेना थी। हिटलर की सेना ‘गेस्टापो’ के नाम से जानी जाती थी और इटली में मुसोलिनी ने ‘ब्लैक शर्ट्सके’ नाम से इसी तरह का संगठन बनाया था।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता हिटलर और मुसोलिनी के प्रशंसक रहे हैं और उनसे बहुत कुछ उन्होंने सीखा है। वास्तव में उनका राष्ट्रवाद नस्ली श्रेष्ठता के हिटलरी राष्ट्रवाद पर ही आधारित है। संघ के एक नेता बीएस मुंजे तो बाक़ायदा इटली जाकर मुसोलिनी के काम करने का अध्ययन करके लौटे थे और उन्होंने स्वयंसेवकों को ‘ब्लैक शर्ट्स’ की नक़ल पर ढालने की वकालत की थी।

तो क्या हम ये मानें कि ये जो जगह-जगह विरोधियों पर हमला करने की रणनीति है, वह भी हिटलर-मुसोलिनी से प्रेरित है और आगे चलकर हम इन हमलावरों को गेस्टापोया ब्लैक शर्ट्सके रूप में संगठित सेना का रूप धरते हुए देखेंगे?

क्या गुंडों की ये टोलियाँ फासीवादी अभियान के शुरुआती दस्ते हैं?

अभी इस तरह की भविष्यवाणी को अनुचित और जल्दबाज़ी कहा जाएगा। बहुत से लोगों को यक़ीन है कि भारत के लोगों का सामूहिक विवेक अभी उस हद तक नहीं गिरा है जहाँ हम मान लें कि लोकतांत्रिक व्यवस्था ढह जाएगी और फासीवाद सत्ता के शिखर पर चढ़कर अट्टहास करने लगेगा।

लेकिन ऐसे भी लोगों की संख्या बहुत है जो मानते हैं कि फासीवाद आ चुका है और वह धीरे-धीरे विकट रूप धारण करता जा रहा है। विरोधियों पर हो रही हिंसा को इसी तरह देखा जाना चाहिए और अगर आज इस ख़तरे को तुरंत पहचान कर रोकने की कोशिश न की गई तो हमें उसका शिकार बनने से कोई नहीं रोक सकेगा।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।सौज- सत्यहिन्दीः लिंक नीचे दी गई है-

https://www.satyahindi.com/opinion/violence-at-singhu-border-against-farmers-protest-116400.html

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