आम धारणा है कि भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस की राजनीतिक सोच एक ही थी जबकि बोस और नेहरू, आजादी से पहले वाले भारत की राजनीति के दो विपरीत ध्रुव थे. एक बड़ा वर्ग है जो मानता है कि नेहरू ने आराम की जिंदगी जी थी जबकि बोस ने पहले इंडियन सिविल सर्विस की शानदार नौकरी और बाद में कांग्रेस में अपनी अहम कुर्सी छोड़ दी ताकि वे ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ ज्यादा वास्तविक राष्ट्रवादी लड़ाई छेड़ सकें. इस लिहाज से वे भगत सिंह की श्रेणी के क्रांतिकारी थे जिन्होंने जिंदगी की अपेक्षा मौत को गले लगाना बेहतर समझा. ऐसा मानने वाले यह भी कहते हैं कि इन दोनों की अपेक्षा अधिक समय तक जिए नेहरू चालाक थे जिन्होंने सत्ता का आनंद लिया. कहा यहां तक जाता है कि नेहरू ने ही सुनिश्चित किया कि बोस भारत न लौटें और वे बोस से इतना डरते थे कि उन्होंने खुफिया एजेंसियों से बोस परिवार की जासूसी भी करवाई.
लेकिन खुद भगत सिंह, बोस और नेहरू के बारे में क्या सोचते थे? अगर उन्हें फांसी नहीं हुई होती तो उन्होंने कौन सी राह पकड़ी होती? क्या सुभाष चंद्र बोस के कांग्रेस छोड़ने और आजाद हिंद फौज बनाने के बाद भगत सिंह उनके साथ मिल गए होते? भगत सिंह के आदर्श कौन थे? बोस या नेहरू?
1928 में भगत सिंह ने किरती नामक एक पत्र में ‘नए नेताओं के अलग-अलग विचार’ शीर्षक से एक लेख लिखा था. तब वे सिर्फ 21 साल के थे. इस लेख में उन्होंने बोस और नेहरू के नजरिये की तुलना की है. उन दिनों असहयोग आंदोलन की असफलता के चलते हर तरफ निराशा का माहौल था. ऐसे में भगत सिंह ने यह लेख इस मंतव्य के साथ लिखा था कि वे कोई राजनीतिक राह चुनने में पंजाब के युवाओं की मदद कर सकें.
भगत सिंह न कांग्रेस के नेता थे और न ही वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे. सांप्रदायिक विचार रखने के लिए तो उन्होंने आजादी की लड़ाई के प्रतिष्ठित नामों में गिने जाने वाले लाला लाजपत राय को भी नहीं बख्शा था. ऐसे में यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि भगत सिंह इन दो राष्ट्रवादी नेताओं के बारे में क्या सोचते थे.
अपने लेख में भगत सिंह बोस को एक भावुक बंगाली बताते हैं. उनके मुताबिक सुभाष चंद्र बोस भारत की प्राचीन संस्कृति के भक्त हैं जबकि जवाहरलाल नेहरू अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि वाले नेता. भगत सिंह के मुताबिक बोस कोमल दिल और रूमानी सोच वाले नेता हैं. दूसरी ओर वे नेहरू को परंपराओं से बगावत करने वाले नेता के तौर पर देखते हैं. अमृतसर और महाराष्ट्र में हुए कांग्रेस के सम्मेलनों में दोनों नेताओं के भाषण का अध्ययन करने के बाद भगत सिंह कहते हैं कि भले ही बोस और नेहरू, दोनों पूर्ण स्वराज के समर्थक हैं, लेकिन उन दोनों की सोच में जमीन-आसमान का अंतर है.
अपने लेख में भगत सिंह बॉम्बे में हुई एक बैठक का उदाहरण देते हैं जो नेहरू की अध्यक्षता में हुई थी और जिसमें बोस ने भाषण दिया था. अपने लेख में भगत सिंह ने बोस के उस भाषण को एक सनक भरा प्रलाप कहा है जिसमें टिप्पणी की गई थी कि विश्व के लिए भारत के पास एक विशेष संदेश है. अपनी टिप्पणी में भगत कहते हैं कि पंचायती राज से समाजवाद तक बोस हर चीज की जड़ प्राचीन भारत में देखते हैं और मानते हैं कि भारत का अतीत महान था. भगत सिंह को बोस का राष्ट्रवाद संकीर्ण और आत्ममुग्धता से भरा लगता है. वे बोस की इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि दूसरे देशों की तरह भारत का राष्ट्रवाद संकीर्ण नहीं है.
इसके बाद अपने लेख में भगत सिंह नेहरू के अध्यक्षीय भाषण की तरफ बढ़ते हैं. नेहरू बोस की बात काटते हैं. उनके मुताबिक हर देश को यह लगता है कि उनके पास दुनिया को देने के लिए कुछ विशेष और अनूठा संदेश है. वे कहते हैं, ‘मुझे अपने देश में कुछ विशेष नहीं लगता. ऐसी बातों में सुभाष बाबू यकीन रखते हैं.’
बोस और नेहरू की सोच में फर्क है. सुभाष चंद्र बोस इसलिए अंग्रेजों से आजादी चाहते हैं कि वे पश्चिम के हैं और हम पूरब के. जवाहरलाल नेहरू इसलिए आजादी चाहते हैं कि स्वशासन के जरिये हम अपनी सामाजिक व्यवस्था बदल सकते हैं. नेहरू के अनुसार हमें पूर्ण स्वतंत्रता और स्वशासन सामाजिक बदलाव के लिए चाहिए.
भगत सिंह कहते हैं कि बोस के लिए अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का महत्व सिर्फ उस हद तक है जहां तक इससे भारत की सुरक्षा और विकास का सवाल जुड़ा हो. जबकि दूसरी तरफ नेहरू राष्ट्रवाद के संकीर्ण दायरों से बाहर निकलकर अंतर्राष्ट्रीयतावाद नाम के खुले मैदान में आ चुके हैं.
दोनों नेताओं की सोच की तुलना करने के बाद अपने लेख में भगत सिंह सवाल करते हैं, ‘अब जबकि हम उनके विचार जान चुके हैं, हमें अपना विकल्प चुनना होगा.’ भगत सिंह के मुताबिक बोस के पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे युवाओं की बौद्धिक प्यास बुझ सके. भगत सिंह बोस के राष्ट्रवाद के नारे से प्रभावित नहीं थे. बौद्धिक रूप से उन्हें नेहरू ज्यादा चुनौतीपूर्ण और तृप्तिदायक लगते थे. उनके मुताबिक पंजाब के युवाओं को बौद्धिक खुराक की शिद्दत से जरूरत है और यह उन्हें सिर्फ नेहरू से मिल सकती है. भगत लिखते हैं, ‘क्रांति का सही अर्थ समझने के लिए पंजाबी युवाओं को उनके पास जाना चाहिए…युवाओं को अपनी सोच मजबूत करनी चाहिए ताकि हार और निराशा के इस माहौल में वे भटकें नहीं.’
यह देखकर आश्चर्य होता है कि भगत सिंह ने बोस के संकीर्ण और उग्र राष्ट्रवाद के खतरों को कितने साफ तरीके से देख लिया था. यही चीज उन्हें दूसरे क्रांतिकारियों से अलग करती है. इस लेख के छपने के तीन साल बाद भगत सिंह को फांसी हो गई थी. इसके करीब 12 साल बाद बोस ने भारत छोड़ दिया था और सबसे बड़े युद्ध अपराधियों में से कुछ के साथ हाथ मिला लिया था. सुभाष चंद्र बोस के बारे में भगत सिंह की आशंका सही साबित हो गई थी, लेकिन वे यह देखने के लिए मौजूद नहीं थे. लेकिन ऐसा कैसे है कि हम आज भी इसे नहीं देखना नहीं चाहते?
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