रिहाई के बाद नीमोलर ने जो मंथन किया उससे वे इस नतीजे पर पहुँचे कि यहूदियों का जो क़त्लेआम हुआ, उसमें उनकी तरह के जर्मनों की खामोश भागीदारी थी। उन्होंने सामूहिक अपराधबोध की बात की। इस कारण वे जर्मनी में अलोकप्रिय हो गए भले ही जर्मनी के बाहर उनकी शोहरत उनके इस सिद्धांत के कारण बढ़ी। उन्होंने इस जनसंहार में जर्मन चर्च की ज़िम्मेदारी का सवाल भी उठाया।
जब एक दूसरे से मिलने में भय नहीं था, वैसे समय में किसी एक दोपहर जॉन दयाल ने गपशप में मार्टिन नीमोलर की मशहूर पंक्तियाँ उद्धृत कीं। ये संभवतः पिछली सदी और इस सदी की भी सबसे ज़्यादा उद्धृत की जाने वाली पंक्तियाँ हैं। इनकी प्रसिद्धि का मुकाबला “दुनिया के मजदूरों एक हो” जैसे उद्धरण से ही किया जा सकता है। इनमें जो ‘अर्जेंसी’ का भाव है, वह इनको कविता के दर्जे में पहुँचा देता है। इन्हें पढ़कर अगर आप नीमोलर को कवि मान बैठें तो आपकी ग़लती नहीं। नीमोलर के बारे में कुछ आगे।
पहले यह सोचें कि यह उद्धरण या कविता है क्या? एक अफ़सोस, एक चेतावनी, एक विलाप; क्या है यह? मैंने जॉन दयाल से पूछा इनमें “मैं” कौन है। क्योंकि ये पंक्तियाँ उस “मैं” को ही तो संबोधित हैं।
पहले उद्धरण पूरा पढ़ लें:
वे पहले आए समाजवादियों के लिए, और मैं नहीं बोला
क्योंकि मैं समाजवादी नहीं था
फिर वे आए ट्रेड यूनियनवालों के लिए, और मैं नहीं बोला,
क्यों मैं ट्रेड यूनियनवाला नहीं था
फिर वे यहूदियों के लिए आए, और मैं कुछ नहीं बोला,
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
फिर वे आए मेरे लिए-और कोई बचा नहीं था मेरे लिए बोलने को
यह कहा गया है कि इस उद्धरण में काफी कुछ संपादित कर दिया गया है। एक और पाठ जो मूल माना जाता है इस प्रकार है:
जब नाज़ी कम्युनिस्टों के लिए आए
मैं चुप रहा
मैं कम्युनिस्ट नहीं था।
जब उन्होंने बंद किया सोशल डेमोक्रेट्स को
मैं चुप रहा
मैं सोशल डेमोक्रेट नहीं था।
जब वे आए ट्रेड यूनियनवालों के लिए
मैं चुप रहा
मैं ट्रेड यूनियनवाला नहीं था।
जब वे आए यहूदियों के लिए मैं चुप रहा
मैं यहूदी नहीं था
जब वे मेरे लिए आए, बोलने को कोई बचा नहीं था।
कट्टर राष्ट्रवादी थे नीमोलर
इस सम्पादन की राजनीति की आलोचना हुई है। दूसरे पाठ में जो कालक्रम है, कम्युनिस्टों के दमन से शुरू करके यहूदियों के दमन का क्रम मानीखेज है। इसे पहला पाठ धुँधला कर देता है। लेकिन अभी हमारे लिए वह उतना विचारणीय नहीं। दोनों ही पाठों से ऐसा लगता है कि ये पंक्तियाँ निजी अनुभव से उपजी हैं। इसीलिए इनमें इतनी प्रामाणिकता और बल है। यह बात एक हद तक सही भी है।
नीमोलर नौसैनिक थे। प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी की हार से उन्हें खासा सदमा हुआ था। कट्टर राष्ट्रवादी होने के साथ-साथ वे यहूदी-विरोधी भी थे। उन्होंने हिटलर का उत्साहपूर्वक स्वागत किया था। एक बार नहीं, दो दो बार। इसका मतलब यह है कि हिटलर के इरादे जब जगजाहिर थे तब भी नीमोलर मानते थे कि जर्मनी के लिए नाज़ी राज हितकर है। जानना दिलचस्प है कि नाज़ियों से उनका विरोध कैसे शुरू हुआ। वह यहूदी-विरोध के कारण जितना नहीं उतना नाज़ियों के नस्लवाद के कारण था।
ग़ैर-आर्य लोगों को चर्च में प्रवेश पर पाबंदी की वकालत जब जर्मन ईसाइयों ने करना शुरू किया तो नीमोलर ने उनका विरोध किया। उन्होंने 1933 में पैस्टर्स इमरजेंसी लीग की स्थापना की और बाद में कनफेसन्स चर्च की। चर्च के मामलों में राज्य की दखलंदाजी के वे ख़िलाफ़ थे और जर्मन इतिहास और संस्कृति को दैवीय बाना ओढ़ाने से भी उनका विरोध था। उनका मानना यह था कि यहूदियों को चर्च से बहिष्कृत करके बैपटिज्म की दैवीय सत्ता को नस्ल के तथाकथित विज्ञान के आगे हेठा साबित किया जा रहा था।
हिटलर के प्रशंसक थे नीमोलर
इसका मतलब यह है कि नीमोलर का विरोध नाज़ी राज्य से सिर्फ इस कारण था कि वह चर्च के भीतरी मामलों में हस्तक्षेप कर रहा था। लीग ऑफ़ नेशंस से जब हिटलर जर्मनी को बाहर निकाल लाया तो नीमोलर ने अपनी संस्था की तरफ से उसे मुबारकबाद दी। वे यहूदी-विरोधी बने रहे। दलील थी कि यहूदी ईसा के क़त्ल के गुनाहगार थे।
संयुक्त राष्ट्र संघ के हॉलोकास्ट स्मृति संग्रहालय ने नीमोलर के जीवन के बारे में जो जानकारी दी है उसके मुताबिक़, वे 30 के दशक के खासे हिस्से तक यहूदी-विरोधी बने रहे। 1935 के एक प्रवचन में उन्होंने कहा, “यहूदी अत्यंत ही प्रतिभाशाली लोग हैं।..लेकिन जिसे भी ये हाथ लगाते हैं वह ज़हर में बदल जाता है और वे अपमान और नफऱत के अलावा और कोई फसल नहीं काटते।”
एक समय तक वे उनके लिए अलग चर्च के भी हिमायती थे।
फिर वे हिटलर के विरोधी क्यों हुए? 1934 में दो और महत्त्वपूर्ण बिशपों के साथ उनकी हिटलर से मुलाक़ात हुई। उसमें उन्हें मालूम हुआ कि उनका फ़ोन सरकारी ख़ुफ़िया एजेंसी सुन रही थी। यानी उनके चर्च पर निगरानी रखी जा रही थी। इस बैठक के बाद उन बिशपों ने हिटलर के प्रति वफ़ादारी का बयान जारी किया। नीमोलर को यह समझ आ गया कि नाज़ी हुक़ूमत दरअसल तानाशाही है। वे इस तानाशाही को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। यहाँ से नाज़ी राज्य से उनकी मुख़ालिफ़त शुरू हुई।
कंसंट्रेशन कैंप
नीमोलर ने अपने प्रवचनों में अपनी समझ की चर्चा करना जारी रखा। इसके कारण वे हिटलर के कोपभाजन हुए। बार-बार उनकी गिरफ़्तारी हुई और आख़िरकार वे कंसंट्रेशन कैंप भेज दिए गए। 7 साल कैम्पों में गुजारने के बाद हिटलर की पराजय के कारण वे मुक्त हुए। इस बीच लेकिन उनका राष्ट्रवाद मंद नहीं पड़ा। कंसंट्रेशन कैंप से भी उन्होंने राज्य के अधिकारियों को ख़त लिखे कि वे जर्मनी की तरफ से लड़ना चाहते हैं।
रिहाई के बाद नीमोलर ने जो मंथन किया उससे वे इस नतीजे पर पहुँचे कि यहूदियों का जो क़त्लेआम हुआ, उसमें उनकी तरह के जर्मनों की खामोश भागीदारी थी। उन्होंने सामूहिक अपराधबोध की बात की।
की। इस कारण वे जर्मनी में अलोकप्रिय हो गए भले ही जर्मनी के बाहर उनकी शोहरत उनके इस सिद्धांत के कारण बढ़ी। उन्होंने इस जनसंहार में जर्मन चर्च की ज़िम्मेदारी का सवाल भी उठाया।
हिटलर-विरोध की वजह?
नीमोलर का उद्धरण इस चेतावनी से ख़त्म होता है कि वे मेरे लिए भी आ सकते हैं। इसलिए उनका उस समय से ही विरोध शुरू करना चाहिए जब वे किसी और एक लिए, जो न तो मैं हूँ, न जिनसे मेरा कोई रिश्ता है, आएँ। लेकिन जैसा खुद नीमोलर के जीवन के नाज़ी-विरोधी काल से भी पता चलता है, नाज़ी हुक़ूमत का चर्च के मामलों में दख़ल देना ही उससे नीमोलर के विरोध का मुख्य कारण बना रहा।
फ़र्ज कीजिए, नाज़ी राज्य ने चर्च को पूरी आज़ादी दी होती! फिर क्या नीमोलर हिटलर के ख़िलाफ़ कभी खड़े हुए होते? उनका राष्ट्रवाद उन्हें हिटलर को स्वीकार्य मानने की तरफ ले गया। और यहूदी-विरोध भी। अगर उन्हें यह यकीन होता कि नाज़ी हुक़ूमत उनकी स्वायत्तता का हनन नहीं करेगी तो क्या वे हिटलर का विरोध करते?
हालाँकि वे उन कुछ पहले जर्मन लोगों में थे जिन्होंने यहूदी जनसंहार में सामूहिक तौर पर जर्मन समाज की ज़िम्मेदारी का प्रश्न उठाया। नीमोलर को अपने भीतर के यहूदी-विरोध को स्वीकार करने में काफी वक़्त लगा। बहुत बाद में, 1963 में उन्होंने अपने यहूदी-विरोध को क़बूल किया।
बहुसंख्यक का हमला
इसी वजह से इस उद्धरण की अपील सीमित है। क्योंकि वे जो बहुसंख्यक “मैं” हैं, मुतमईन रहते हैं कि वे उनके लिए कभी नहीं आएँगे। नाज़ी हुक़ूमत जैसी हुक़ूमतों को न सिर्फ इस आश्वासन के कारण व्यापक समर्थन मिलता है बल्कि इसलिए भी कि वे जिनके लिए जाते हैं, खुद यह बहुसंख्यक “मैं” उनपर हमला करना चाहता रहा है। उसे इसकी तसल्ली होती है कि वह जो हिंसा नहीं कर सका था, कई संकोचों के कारण, वह अब उसकी तरफ से सत्ता कर रही है।
वे मेरे लिए कभी नहीं आएँगे। वे मेरी तरफ से काम कर रहे हैं। नीमोलर को यह जवाब बार-बार उनके बाद अनेक देशों के “मैं” ने दिया है। तो क्या यह ‘मैं’ कुछ बुद्धिजीवियों भर के लिए है? उनके लिए जो पहले यह सोचते हैं कि वे अगर अपने काम से काम रखें तो राज्य उनकी ज़िंदगी में नाक नहीं घुसेड़ेगा? फिर वे निराश हो जाते हैं कि उन्होंने तो राज्य का हमेशा सहयोग किया, फिर भी वह उन्हें अपनी दुनिया में भी चैन से नहीं रहने दे रहा!
इस उद्धरण में एक तार्किक क्रम है। वह ख़त्म इस चेतावनी से होता है कि सबको ख़त्म करने के बाद तुम पर हमला होगा और तब तुम अकेले होगे। लेकिन समस्या यही है। मुझे आख़िर आख़िर तक यह ख़तरा महसूस न हो तो? अगर मैं सत्ता का ही हिस्सा बना लिया जाऊँ तो?
नीमोलर का उद्धरण पारस्परिकता की आवश्यकता पर बल तो देता है, वह जो कहना चाह रहा है, वह यह कि अगर हमला उसपर हो रहा है, जिससे आपका विरोध भी हो, मसलन भारत में माओवादियों या खालिस्तान समर्थकों पर, आपको समझना होगा कि हमला समाज के अलग-अलग हिस्सों को एक दूसरे से काटने के लिए किया जा रहा है। “मैं” खंड-खंड का ही जोड़ है। हरेक खंड से मैं सम्बद्ध हूँ। इस मैं को हासिल करने की आकांक्षा इस उद्धरण या कविता की है।
अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं।ये उनके निजी विचार हैं। सौज- सत्यहिन्दी