प्रवासी मजदूर: नए दौर के नए अछूत

रिचर्ड महापात्रा

ग्रामीण क्षेत्रों में रिपोर्टिंग करते समय मुझे बहुत से ऐसे प्रवासी मजदूर मिले हैं, जो अक्सर कहते हैं, “परेशान होकर हम शहरों में आए हैं. हम गांव में थोपी गई जाति व्यवस्था के कारण अपना घर छोड़ने को मजबूर हुए हैं.”

ऐसा नहीं है कि केवल गांव ही “महान भारतीय जाति व्यवस्था” का पालन करते हैं, लेकिन इस व्यवस्था से सबसे अधिक पीड़ित वे गरीब हैं जो जाति के सबसे निचले पायदान पर खड़े हैं. यही लोग संकट की घड़ी में पलायन करते हैं. ये लोग सामाजिक दूरी के साथ बड़े होते हैं. हालात कभी उनके लिए अनुकूल अवसर पैदा नहीं करते. वे हमेशा केवल चंद साधन संपन्न, पैसे वालों की दया के भरोसे रहते हैं. इसी कारण वे घर छोड़ते हैं और अंतत: प्रवासी बन जाते हैं.शहरों/कस्बों में भी वे हमेशा गरीब ही रहते हैं, लेकिन किसी तरह जाति व्यवस्था कुछ दूरी जरूर बना लेती है. लेकिन अगर वे समाज में लंबे समय तक रहने को मजबूर होंगे तो क्या होगा?

ऐसे समय में जब एक वायरस सेक्युलर है और वह सामाजिक, धार्मिक और जाति व्यवस्था को नहीं मानता, तब प्रवासी मजदूर एक नए अछूत बनकर उभरे हैं. प्रवासी मजदूर और सामाजिक दूरी इस समय चर्चा में है. अगर सामाजिक दूरी ने किसी को सबसे अधिक प्रभावित किया है तो वह प्रवासी आबादी ही है.

सामाजिक दूरी से दूर भागकर, जब वे वापस आएंगे तो एक अन्य सामाजिक दूरी उन्हें प्रताड़ित करती है. ऐसे समय में जब लाखों प्रवासी गांव लौट रहे हैं, तब उन्हें दो प्रकार का भेदभाव झेलना पड़ रहा है.पहला, उन्हें कोरोनावायरस के वाहक के रूप में देखा जाता है. इसलिए क्वारंटाइन उनके लिए अनिवार्य है. अब इसका समय भी बढ़ाया जा रहा है. ओडिशा में क्वारंटाइन 28 दिन का कर दिया गया है.

आंशिक रूप से क्वारंटाइन जरूरी भी है क्योंकि हो सकता है कि वे जिस जगह से लौटे हैं वह वायरस से प्रभावित हो. बहरहाल, सामाजिक दूरी हमारे जीवन का नियम बन गई है.लेकिन यह धारणा काफी प्रबल हो गई है कि प्रवासी वायरस के वाहक हैं. यह धारणा उनके सामने और मुश्किलें खड़ी करती है. पिछले कुछ हफ्तों में ऐसी रिपोर्टें लगातार सामने आ रही हैं कि ग्रामीण अपने गांव के प्रवासियों को गांव में घुसने ही नहीं दे रहे.इतना ही नहीं, अपने गांव पैदल जा रहे सैकड़ों प्रवासियों को रास्ते में रोका जा रहा है. बहुत से लोग वायरस फैलने के डर से प्रवासियों को अपनी भौगोलिक सीमा से गुजरने से रोक रहे हैं.इस मामले में ओडिशा में कुछ लोग उच्च न्यायालय गए. न्यायालय ने फैसला सुनाया कि राज्य में केवल कोविड-19 से मुक्त प्रवासियों को ही घुसने दिया जाएगा. हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने इस आदेश पर रोक लगा दी.

दूसरा, जाति व्यवस्था के कारण समाज से उनकी दूरी जन्म से ही है. अब वह प्रबल होगी. वैसे भी सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित समूहों को विकास के लाभ से हमेशा दूर ही रखा गया है. इन प्रवासियों के पास सबसे कम जमीन है, सिंचाई के साधनों तक उनकी पहुंच भी सबसे कम है और शिक्षा का स्तर भी न्यूनतम है. अब, आजीविका खत्म होने पर वे उस दमनकारी पुरानी प्रणाली में वापस आ गए हैं जिसने असमानता को सींचा है.

कोई दलील दे सकता है कि बड़े पैमाने पर शुरू हुए राहत कार्य और पैकेज उनकी मदद करेंगे. कोई यह भी कह सकता है कि संकट से इस दौर में सेक्युलर सरकार और गैर सरकारी तंत्र जाति और वर्ग विभेद की सामाजिक दूरी नहीं बढ़ने देगा. लेकिन, महामारियों का इतिहास बताता है कि संकट की ऐसी घड़ी में असमानता को व्यापक किया गया है. महामारी ने पहले से गरीब और हाशिए पर खड़े लोगों को ही सबसे अधिक कष्ट दिया है.

शोध बताते हैं कि 1918 की महामारी सामाजिक रूप से तटस्थ थी, लेकिन वैज्ञानिक निष्कर्षों से पता चला कि जिन लोगों ने कमरे या अपार्टमेंट साझा किए, वही सबसे अधिक प्रभावित हुए. उनकी ही सबसे अधिक मौत हुई. सवाल उठता है कि वे कौन लोग थे जिन्होंने कमरे या अपार्टमेंट साझा किए? वास्तव में वे निचले तबके के प्रवासी श्रमिक थे.

प्रवासियों और गरीब मजदूरों के संदर्भ में वर्तमान महामारी अलग नहीं है. आईएमएफ के डेविड फुरसेरी, प्रकाश लोंगनी, जोनाथन डी ओस्ट्री और यूनिवर्सिटी ऑफ पालेरमो के पीट्रो पिज्जोटो का अध्ययन बताता है कि महामारी के खत्म होने के बाद असमानता और बढ़ेगी. यह शोध पिछली पांच महामारियों पर आधारित है. अध्ययन बताता है कि शीर्ष दो निधियों पर जाने वाली आय का हिस्सा औसतन 46 प्रतिशत है, जबकि नीचे की दो निधियों को जाने वाला हिस्सा केवल 6 प्रतिशत है.

यह सर्वविदित है कि गरीबों की अर्थव्यवस्था काफी हद तक समाज से उनके संबंधों पर निर्भर करती है. जैसे-जैसे यह अर्थव्यवस्था कमजोर होगी, दूसरों पर गरीबों की निर्भरता बढ़ती जाएगी. इसलिए सामाजिक दूरी गरीबों के लिए एक बड़ी सजा है.अगर आप पहले से देश की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के शिकार हैं तो महामारी का सामाजिक दुष्प्रभाव आपके दुख और परेशानियों को और बढ़ा देगा.

लेखक डॉउन टु अर्थ के मैनेजिंग डायरेकटर हैं । ग्रामीण व्यवस्था और गांव से जुड़े मसलों पर लगातार लिखते रहते हैं । सौज न्यूज़लॉंड्री

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