दीपक के. मंडल
सूक्ष्म,लघु और मध्यम उपक्रम यानी एमएसएमई क्षेत्र के लिए सरकार ने तीन लाख करोड़ रुपये के गारंटी फ्री लोन का ऐलान किया है. उम्मीद की जा रही है कि यह बेरोज़गारी के संकट को ख़त्म करने में मददगार साबित होगा और बाज़ार में मांग पैदा करेगा, लेकिन इस क्षेत्र के हालात ऐसे नहीं है कि सिर्फ एक लोन पैकेज से तस्वीर बदल जाए.
अर्थव्यवस्था को लेकर हमारे नेताओं का पुराना अंदाज बरकरार है. अर्थव्यवस्था जब भी मुश्किल में फंसती है, वे अपने इसी नजरिये से इसका इलाज खोजना शुरू कर देते हैं.
पिछले दिनों सूक्ष्म,लघु और मध्यम यानी एमएसएमई क्षेत्र के लिए सरकार ने जिस तीन लाख करोड़ रुपये के गारंटी फ्री लोन का ऐलान किया, उसमें इसके इस रवैये की झलक साफ दिख रही थी.
कोविड-19 की मार से बुरी तरह जख्मी अर्थव्यवस्था को दोबारा खड़ा करने के लिए एमएसएमई क्षेत्र के लिए तीन लाख करोड़ रुपये के लोन पैकेज को मीडिया का एक बड़ा हिस्सा मोदी सरकार का मास्टरस्ट्रोक बता रहा है.
उम्मीद की जा रही है कि यह बेरोजगारी के महासंकट को खत्म करने में मददगार साबित होगा. बाजार में मांग पैदा करेगा और प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भर भारत के ‘विजन’ को नई ऊंचाई तक ले जाएगा. लेकिन इस क्षेत्र के हालात ऐसे नहीं है कि सिर्फ एक गारंटी फ्री लोन पैकेज से तस्वीर बदल जाएगी.
एमएसएमई मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट (2018-19) के मुताबिक देश में 6.34 करोड़ सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग हैं. (पुराने मानकों के हिसाब से. सरकार ने हाल में एमएसएमई की नई परिभाषा प्रस्तावित की है, हालांकि इसे अभी लागू नहीं किया गया है).
इनमें से 51 फीसदी ग्रामीण इलाकों में मौजूद हैं और 49 फीसदी शहरी क्षेत्रों में. कुल मिलाकर यह क्षेत्र 11 करोड़ लोगों को रोजगार देता है. हालांकि कुल रोजगार में 55 फीसदी हिस्सेदारी शहरी इलाकों की है.
एक और अहम आंकड़े पर गौर कीजिये. देश की जीडीपी में एमएसएमई क्षेत्र की हिस्सेदारी 30 फीसदी है. जीवीए (GVA) में इसकी हिस्सेदारी 31.8 फीसदी है. देश से होने वाला 48 फीसदी निर्यात यह क्षेत्र करता है.
इन दोनों तथ्यों से किसी को भी लग सकता है कि सरकार ने अर्थव्यवस्था के इतने अहम क्षेत्र के लिए तीन लाख करोड़ रुपये के गारंटी फ्री लोन का इंतजाम कर काफी अच्छा कदम उठाया है. इस क्षेत्र के लिए तो और बड़े कदम उठाए जाने चाहिए.
एमएसएमई क्षेत्र की कड़वी हकीकत
ऊपर के आंकड़े देश की अर्थव्यवस्था में एमएसएमई क्षेत्र की खुशनुमा तस्वीर पेश करते हैं. लेकिन हकीकत कुछ और है. इसे रोजगार पैदा करने वाला सबसे बड़े क्षेत्र में से एक बताया जाता है, लेकिन हकीकत क्या है?
6.34 करोड़ इकाइयों वाले एमएसएमई क्षेत्र में अगर 11 करोड़ लोग काम कर रहे हैं तो इसका मतलब यह कि इसके हर इकाई में सिर्फ दो लोगों को रोजगार मिला हुआ है.
एक और जमीनी हकीकत. एमएसएमई क्षेत्र की 99.5 फीसदी इकाइयां माइक्रो यानी सूक्ष्म उद्योग (मौजूदा परिभाषा के हिसाब से 25 लाख रुपये से कम टर्नओवर) के दायरे में आती हैं. एमएसएमई क्षेत्र में छोटे और मझोले उद्योग सिर्फ 0.5 फीसदी है. लेकिन रोजगार में इसकी हिस्सेदारी 5 करोड़ से ज्यादा है.
यानी कुल 11 करोड़ रोजगार में से आधे से अधिक सूक्ष्म (Micro) की 99.5 फीसदी इकाइयों में बंटा है. इससे साफ हो जाता है कि सूक्ष्म उद्योग की इकाई एक या दो लोग चला रहे हैं.
इस तरह यह मिथक टूट जाता है कि एमएसएमई क्षेत्र में भारी तादाद में लोगों को रोजगार मिला हुआ. दरअसल यह क्षेत्र भी कृषि क्षेत्र की तरह छिपी हुई बेरोजगारी का शिकार है, जिसे हमारे नीति-निर्माता देखकर भी नजरअंदाज कर रहे हैं.
कितनी कारगर है क़र्ज़ की दवा
बड़ा सवाल यह है कि जिस तीन लाख करोड़ रुपये के गारंटी फ्री लोन को सरकार एमएसएमई के दर्द की दवा समझ रही है, वह कितनी काम आएगी? सरकार की यह दवा इस क्षेत्र के मर्ज के मुफीद है भी या नहीं?
क्या सरकार मर्ज का सही इलाज कर रही है? अगर लोन देना ही इस क्षेत्र के मर्ज का इलाज है तो पिछले कुछ सालों के दौरान उसने इसमें कितना फंड झोंका है? आरबीआई के आंकड़ों को देखें तो सारी तस्वीर साफ हो जाएगी.
दरअसल, पिछले चार साल के दौरान मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र को बैंक से मिलने वाले कर्ज में भारी कमी आई है और इसकी सबसे बुरी मार एमएसएमई क्षेत्र पर पड़ी है.
अप्रैल 2016 से लेकर मार्च 2020 के बीच बड़े उद्योग को बैंकों की ओर से मिले कर्ज में 1.73 लाख करोड़ रुपये का इजाफा हुआ. इस दौरान इसमें सिर्फ 1.9 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई. जबकि एमएसएमई क्षेत्र को कर्ज देने की रफ्तार में 0.69 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. इस दौरान इस क्षेत्र को बैंकों से सिर्फ 10,335 करोड़ रुपये का कर्ज मिला.
जबकि अप्रैल 2012 से अप्रैल 2016 के बीच इस क्षेत्र को 1.34 लाख करोड़ रुपये का कर्ज मिला था. सालाना बढ़ोतरी दर थी 11.9 फीसदी.
एमएसएमई क्षेत्र में बहार न आते देख मोदी सरकार ने 2015 में एक और बड़ी कोशिश की, मुद्रा योजना (PMYY) लाकर. इसके तहत छोटे सूक्ष्म उद्योग चलाने वालों को दस लाख रुपये का लोन दिया गया और आखिर में 2018 में एक बूस्टर डोज के तहत इस क्षेत्र के लिए 59 मिनट में लोन मंजूरी की स्कीम लाई गई.
इसके बावजूद इस क्षेत्र को मिलने वाले कर्ज में इजाफा क्यों नहीं हो रहा है? साफ है कि एमएसएमई क्षेत्र के लिए लोन की दवा काम नहीं कर रही है.
दरअसल मरीज को जब इलाज पर भरोसा न हो तो वह दवा क्यों लेना चाहेगा? सरकार को इस क्षेत्र का मर्ज समझ में नहीं आ रहा है. भारत में छोटे कारोबार और माइक्रो उद्योगों के लिए उद्यमी बैंकों के पास नहीं जाते. इसके बजाय वह रिश्तेदारों और प्राइवेट लैंडर्स से फंड लेते हैं.
बैंकों की नौकरशाही और लोन वसूली का तरीका उन्हें रास नहीं आता. बैंक भी बढ़ते एनपीए के डर से इन्हें लोन देने में आनाकानी करते हैं. ऐसीखबरों का आना शुरू हो गया है, जिसमें कहा गया है कि सरकार की ओर से तीन लाख करोड़ रुपये के लोन की गारंटी लेने के बाद भी बैंक लोन देने के लिए आगे नहीं आ रहे हैं.
बैंक जोखिम उठाना नहीं चाह रहे हैं. छोटे उद्यमियों के पास गारंटी देने के लिए ज्यादा कुछ नहीं होता है. यही उनके खिलाफ जाता है. यह बात खुद रिजर्व बैंक ने मानी है.
सरकार को उम्मीद है कि लोन पैकेज के ऐलान के बाद एमएसएमई क्षेत्र की इकाइयां लोन लेकर अपना काम आगे बढ़ाएंगीं, लेकिन इस वक्त अर्थव्यवस्था बड़ी तेजी से मंदी की गिरफ्त में फंसती जा रही है.
पिछली सात तिमाहियों से वृद्धि दर में लगातार गिरावट आती जा रही थी और अब तो कोविड-19 की मार ने इसे लगातार नकारात्मक जोन में धकेल दिया है.
असली दुश्मन कौन
एमएसएमई क्षेत्र का यह संकट नया नहीं है. इसकी जड़ें 8 नवंबर, 2016 को अचानक किए गए उस फैसले में है, जिसे अब दुनिया नोटबंदी के नाम से जानती है.
लॉकडाउन की तरह ही अचानक देशहित और जनहित के नाम पर लिए गए इस फैसले ने एमएसएमई क्षेत्र की कमर तोड़ कर रख दी. देखते ही देखते इस क्षेत्र में काम करने वालों के रोजगार उजड़ गए, बाजार की लिक्विडिटी बुरी तरह सूख गई.
उद्योग चलाने वाले और कामगार दोनों हाशिये पर चले गए. खुद रिजर्व बैंक का अध्ययन बताता है कि नोटबंदी ने इस क्षेत्र की लिक्विडिटी को बुरी तरह चोट पहुंचाई। वहीं जीएसटी नियमों की वजह से परिचालन समेत दूसरी लागतें बढ़ गईं.
रही-सही कसर आईएलएंडएफएस जैसे एनबीएफसी संकट ने पूरी कर दी. एमएसएमई के लिए फंडिंग के रहे-सहे स्रोत भी सूख गए. 2019 में एमएसएमई क्षेत्र के कर्ज में एनबीएफसी क्षेत्र की हिस्सेदारी 21 फीसदी तक बढ़ गई थी.
लेकिन इस क्षेत्र के धराशायी होते ही छोटे और मझोले उद्योग के फंड का प्रवाह रुक गया. पहले से ही खराब हालत से जूझ रहे एमएसएमई क्षेत्र के लिए लॉकडाउन और बुरा वक्त लेकर आ गया.
खुद सरकारों का एमएसएमई के प्रति रवैया सवालों के घेरे में है. केंद्र और राज्य सरकारों पर इस क्षेत्र का पांच लाख करोड़ रुपये का बकाया है. अभी तक इसका भुगतान नहीं हो पाया है.
क्या इस क्षेत्र पर इतनी निर्भरता ठीक है?
जो लोग एमएसएमई को लेकर पुराने ख्यालों में जी रहे हैं, उन्हें अपनी सोच बदलने की जरूरत है. रोजगार और निर्यात बढ़ाने के लिए सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योग पर निर्भरता खतरनाक है. भारत को बड़े पैमाने पर मैन्युफैक्चरिंग की जरूरत है.
मैन्युफैक्चरिंग में बड़े निवेश सरकार ही कर सकती है और इसी से बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा होंगे. यह कहना आसान है कि सरकार को कारोबार नहीं करना चाहिए और सब कुछ बाजार के भरोसे छोड़ देना चाहिए लेकिन भारत जैसे देश में वो वक्त अभी नहीं आया है.
इस मामले में चीन से सीखने की जरूरत है जो अपनी सार्वजनिक कंपनियों का पूरा ख्याल रखता है. इस वजह से वह बड़े पैमाने पर इन उद्योगों में लोगों को रोजगार देने में भी कामयाब है.
दरअसल बड़े उद्योग ही छोटे और मझोले उद्योग के बाजार हैं. जब भी बड़े उद्योग डगमगाते हैं, छोटे उद्योग औंधे मुंह गिर पड़ते हैं. मसलन, अगर बड़ी कार कंपनियों में उत्पादन नहीं होगा तो पार्ट्स बनाने वाले छोटे उद्योगों पर इसका असर पड़ना लाजमी है.
एमएसएमई क्षेत्र को रफ्तार देने का अब ही एक रास्ता बचा है और वह है मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र को जीडीपी के 25 फीसदी तक ले जाने के लक्ष्य पर तेजी से अमल. बड़े उद्योगों की मांग बढ़ेगी तो एमएसएमई क्षेत्र भी चल पड़ेगा. वरना एमएसएमई का जाप करते रह जाएंगे और मौका हाथ से निकल जाएगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है.) सौज दवायर